हिन्दी को दुनिया के बराबर खड़ा करने में जुटा योद्धा
ललित चार साल के थे जब पोलियो के कारण उनके कमर से नीचे का हिस्सा खराब हो गया। दसवीं में पहुंचे तो आसपास के लोग उनके भविष्य को लेकर फिक्रमंद...
ललित चार साल के थे जब पोलियो के कारण उनके कमर से नीचे का हिस्सा खराब हो गया। दसवीं में पहुंचे तो आसपास के लोग उनके भविष्य को लेकर फिक्रमंद हुए। कोई कहता, विकलांगता कोटे से स्टेनोग्राफर वगैरह की नौकरी कर लो तो कोई सिलाई मशीन खरीदकर अपना काम शुरू करने को कहता। लेकिन ललित के इरादे कुछ और थे। वह खुद बुलंदियों के साथ अपने पैरों पर खड़े तो हुए ही, हिंदी भाषा को भी सहारा देकर दुनिया के सामने खड़ा किया।
ललित ने तमाम सुझावों के दर्द को जज्ब किया और पढ़ाई जारी रखी। उन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ से नौकरी का न्योता आया। पांच साल तक नौकरी करने के बाद स्कॉटलैंड सरकार की स्कॉलरशिप पर बायो इन्फॉरमेटिक्स में एमएससी करने एडनबरा गए।
कनाडा सरकार ने भी पीएचडी करने को बुलाया। बुलावे पर गए भी, लेकिन वतन की मिट्टी वापस खींच लाई। उन्हें जुनून था हिंदी भाषा को एक मुकाम तक पहुंचाने का। इसके लिए इंटरनेट को जरिया बनाते हुए उन्होंने हिंदी का सबसे विशाल कोश तैयार किया।
ललित कहते हैं कि कविताकोश स्वयं सेवा पर आधारित है। इसके लिए देश के करदाताओं से पैसा नहीं लिया गया है। शुरुआत में यह निजी जरूर था, लेकिन आम लोगों तक उसकी पहुंच बनाने के बाद यह बेहद लोकप्रिय हुआ। कहते हैं, सरकार को समझना चाहिए कि समुदाय को सिर्फ सही दिशा और नेतृत्व मिल जाए, तो कोई भी काम मुश्किल नहीं।
महरौली के रहने वाले ललित कुमार की प्राथमिक शिक्षा एमसीडी के स्कूल में हुई। पांचवीं कक्षा में मैडम क्यूरी का पाठ पढ़ने के बाद वैज्ञानिक बनने का निश्चय किया, लेकिन स्नातक की पढ़ाई के दौरान खर्च उठाना मुश्किल हो गया था। बावजूद इसके, ललित ने हार नहीं मानी।
उन्होंने कंप्यूटर कोर्स किया और गोल्ड मेडल लेकर निकले। संयुक्त राष्ट्र की पक्की नौकरी भी महजड इसलिए छोड़ दी कि उनकी उड़ान अभी बाकी है।