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सब कुछ छोटा है इस हौसले के सामने

वह बास्केटबॉल, फुटबॉल और हॉकी खेलना चाहती थीं। तभी एक हादसे ने उनसे एक पैर छीन लिया। गले की चेन खींचने का विरोध करने पर कुछ असामाजिक तत्वों ने चलती पद्मावती एक्सप्रेस से उसे फेंक दिया। जिंदगी और मौत...

हिन्दुस्तान फीचर टीम Tue, 2 Aug 2016 04:35 PM
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सब कुछ छोटा है
इस हौसले के सामने

वह बास्केटबॉल, फुटबॉल और हॉकी खेलना चाहती थीं। तभी एक हादसे ने उनसे एक पैर छीन लिया। गले की चेन खींचने का विरोध करने पर कुछ असामाजिक तत्वों ने चलती पद्मावती एक्सप्रेस से उसे फेंक दिया। जिंदगी और मौत के बीच झूलते कई दिन गुजर गए। अंतत: जिंदगी बचाने के लिए बाएं पैर की बलि देनी पड़ी। ऐसा लगा, जैसे उसके लिए सब खत्म हो गया। लेकिन नहीं। उसे कुछ बड़ा करना था, उसने हार नहीं मानी। फिर से उठ खड़ी हुई। मजबूत इरादों के साथ।
 
सपनों पर सिर्फ ब्रेक लगा, सपने टूटे नहीं
इस हादसे से पहले अरुणिमा वॉलीबॉल की राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी थी। हादसे ने उसके सपनों पर ब्रेक लगा दिया। वह कहती है, ‘मैं वॉलीबॉल-फुटबॉल खेलना चाहती थी, हॉकी चैंपियन बनना चाहती थी, लेकिन मेरी कटी हुई टांग ने मुझे नियम-कानून से बंधे खेलों में जाने से रोक दिया।’ फिर उन्होंने एवरेस्ट को फतह करने के बारे में सोचा। जब उन्होंने अपने दिल की बात जाहिर की, तो लोगों ने मजाक उड़ाया। लेकिन एक बार जिसने कुछ करने की ठान ली, तो फिर उसे कौन रोक सकता था? अरुणिमा कहती हैं कि अगर सिर्फ पैरों के होने से ही मंजिल मिल जाती तो अनगिनत लोग अपनी मंजिल पर पहुंच गए होते। पैरों से नहीं, आदमी हौसले से मंजिल पर पहुंचता है।
 
उतार-चढ़ाव भरी जिंदगी
उत्तर प्रदेश के अंबेडकर नगर जिले की निवासी अरुणिमा का अब तक का जीवन काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा है। उनका परिवार मूलत: बिहार से है। परिवार में मां, एक बड़ी बहन और एक छोटा भाई है। पिताजी सेना में थे। अरुणिमा का परिवार बाद में सुल्तानपुर आ गया था। बिना पति के तीन छोटे-छोटे बच्चों का लालन-पालन करना उनकी मां के लिए कितना मुश्किल रहा होगा, इसका सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है। मां को अंबेडकर नगर में स्वास्थ्य विभाग में नौकरी मिल गई और जीवन की गाड़ी धीरे-धीरे पटरी पर आने लगी। अरुणिमा शुरू से ही जुझारू थी और उसका मन पढ़ाई से ज्यादा खेल-कूद में लगता था। खेल उसका जुनून था। स्थानीय और जिला स्तर पर वॉलीबॉल तथा फुटबॉल खेल कर कई पुरस्कार भी जीते। राष्ट्रीय स्तर के खेलों में भी गई, लेकिन वह नहीं मिला, जिसकी तमन्ना थी। वह कहती हैं, ‘मेरे पास जुनून था, लेकिन कोई सीढ़ी नहीं थी, कोई छत नहीं थी, जो मुझे आगे बढ़ने देती, मुझे महफूज रखती।’ फिर उसने नौकरी करने का फैसला किया, यह सोच कर कि नौकरी के सहारे वह अपनी मंजिल की ओर बढ़ेगी। एक दिन घर से अकेली निकल पड़ी केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ) के नोएडा दफ्तर जाने के लिए। 11 अप्रैल, 2011 का दिन, उसकी जिंदगी का ऐसा दिन बन गया, जिसे वह कभी भूल नहीं सकती। उसी दिन के हादसे में उसे अपना बायां पैर गंवाना पड़ा। और शुरू हुई जिंदगी को नए सिरे से संवारने की जद्दोजहद। परिवार वालों ने हौसला दिया और अपने मन में तो लगन थी ही।
 


पहाड़ों से लोहा लेने का सफर
अस्पताल से निकलते ही अरुणिमा बछेंद्री पाल के पास पहुंचीं। उन्हें ट्रेनिंग देने के लिए मनाया और प्रशिक्षण लेना शुरू किया। अंतत: अरुणिमा ने 21 मई 2013 को दुनिया की सबसे ऊंची चोटी को फतह कर लिया। एवरेस्ट पर पहुंच कर इतिहास बनाने वाली अरुणिमा का इरादा शारीरिक रूप से अक्षम लोगों के लिए खेल अकादमी शुरू करने का है। वह कहती है, ‘मैं अपने जैसे लोगों की मदद करना चाहती हूं। मैं चाहती हूं कि उनके लिए कोई खेल अकादमी बनवाऊं।’ पिछले तीन सालों में अरुणिमा दुनिया भर के पांच सबसे ऊंचे पहाड़ों पर फतह कर चुकी हैं। उनका इरादा बाकी बचे दो सबसे ऊंचे पर्वतों पर चढ़ाई करना भी है।

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