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यह कैसी राजनीति

खेद है कि देश में हिंसक राजनीति बढ़ती ही जा रही है। किसी पर स्याही, अंडे और जूता आदि फेंकना या फिर थप्पड़ व लात-घूंसे चलाना अत्यंत अमानवीय व शर्मनाक कृत्य है, जिसका लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं। मगर...

यह कैसी राजनीति
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 25 Jan 2016 08:41 PM
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खेद है कि देश में हिंसक राजनीति बढ़ती ही जा रही है। किसी पर स्याही, अंडे और जूता आदि फेंकना या फिर थप्पड़ व लात-घूंसे चलाना अत्यंत अमानवीय व शर्मनाक कृत्य है, जिसका लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं। मगर दिक्कत यह है कि ऐसी हिंसा करने वाले को कुछ नेता मिठाई का डिब्बा देने चले जाते हैं। अब इसका क्या उपाय है? इसी तरह, किसी के लिए गलत और अमर्यादित शब्दों व भाषा का प्रयोग भी हिंसक कार्य है, मगर यह भी आजकल मानो आम-सी बात हो गई है। आज महात्मा गांधी के शांति और अहिंसा के रास्ते पर कोई नहीं चल रहा। सरकार के गलत कार्यों व नीतियों का विरोध लोकतंत्र की मजबूती के लिए जरूरी है, मगर इसका रास्ता सही होना चाहिए। जरूरत नेताओं द्वारा बेवजह की आलोचना से बचने की भी है, तभी कुछ सुधार संभव है।  
वेद मामूरपुर, नरेला

कांग्रेस का बढ़ता रुतबा
'नए समीकरणों में उभरती कांग्रेस' शीर्षक से प्रकाशित लेख में निर्मल पाठक ने सटीक विश्लेषण किया है। साल 2014 के आम चुनाव के बाद हुए कई विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का बुरा हाल था। ऐसा लग रहा था कि पार्टी शायद ही वापसी कर पाएगी। मगर हाल के चार-पांच महीनों में पार्टी में कई सकारात्मक बदलाव हुए हैं। कांग्रेस ने सोशल मीडिया पर पकड़ बना ली है। एक रिपोर्ट के अनुसार, कांग्रेस इन दिनों भाजपा और आप से ज्यादा सोशल मीडिया पर सक्रिय है और जबर्दस्त तरीके से विरोधियों पर हमले कर रही है। वहीं जमीनी स्तर पर भी पार्टी काफी सक्रिय हो गई है, जिसका नतीजा पंचायत चुनावों,  नगर निकाय चुनावों और कई उप-चुनावों में देखा जा रहा है।
प्रिया कुमारी

सराहनीय कदम
20 जनवरी के अंक में शैक्षिक वर्ष में 220 कार्यदिवस के बारे में पढ़कर अच्छा लगा। पिछले कुछ वर्षों में यह देखा गया है कि पढ़ाई के दिवसों से ज्यादा अवकाश के दिवस हो रहे हैं। कभी ठंड, तो कभी गरमी व बरसात, कभी दशहरा, तो कभी अन्य त्योहारों के बहाने छुट्टी कर दी जाती है। पढ़ाई के दिवस कम होने से कोर्स भी ठीक से पूरा नहीं हो पाता। बच्चा स्कूल जाए या न जाए, मगर ट्यूशन फीस पूरी ली जाती है, ट्रांसपोर्ट के पैसे भी पूरे लिए जाते हैं। इसलिए पढ़ाई के न्यूनतम घंटे निर्धारित करना एक सराहनीय और साहसिक कदम है। यह नियम पूरे देश में बहुत जल्दी लागू होना चाहिए।
सतीश त्यागी 'काकड़ा'
इंदिरापुरम, गाजियाबाद

मौत पर राजनीति
रोहित वेमुला की मौत की असली वजह तो जांच के बाद ही सामने आएगी, मगर सभी विपक्षी दलों को अपनी महत्वाकांक्षा की रोटियां सेंकने को एक मुद्दा मिल गया है। सचमुच की हमदर्दी किसी नेता को नहीं। सभी नेता घडि़याली आंसुओं में तर-बतर नजर आ रहे हैं। किसी गरीब की मौत को नेता कैसे अपनी राजनीति का हथियार बना लेते हैं, यह हमें अखलाक और रोहित वेमुला की मौत के बाद के घटनाक्रम में दिखाई देता है। पर 'दलित' व 'अल्पसंख्यक' क्यों अपने स्वजनों की मौत पर राजनीति करने देते हैं- यह उन्हें स्वयं सोचना होगा, ताकि किसी मजलूम की मौत यूं तमाशा न बने।
राजेश गोयल, महरौली

मदद की दरकार
कश्मीर से डेढ़ माह पहले करीब ढ़ाई सौ बाढ़ पीडि़त रोजगार की उम्मीद लेकर पटना पहुंचे। पटना के गायघाट पुल के पास वे डेरा डालकर काम की तलाश करने लगे। महीने बीत गए, लेकिन उन्हें अपना पेट पालने को कोई रोजगार नहीं मिल सका। अब तो हालात ऐसे हो गए हैं कि वे निराश होकर वापस लौट जाना चाहते हैं। इनकी मदद के लिए आखिर कोई तो आगे आए। जम्मू-कश्मीर की राज्य सरकार,  बिहार सरकार या केंद्र सरकार, किसी की तो मदद इन्हें मिले, ताकि ये लोग कहीं भी काम करके अपना पेट पाल सकें।
खुशबू मिश्रा

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