समाधान नहीं, उसका रास्ता है अलग राज्य
तेलंगाना या पूर्वाचल या विदर्भ या बुंदेलखंड जैसे राज्यों के गठन की मांग को पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता और न ही इसे अनुचित माना जा सकता है। भारत जैसे सांस्कृतिक विविधता वाले देश में क्षेत्रीय...
तेलंगाना या पूर्वाचल या विदर्भ या बुंदेलखंड जैसे राज्यों के गठन की मांग को पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता और न ही इसे अनुचित माना जा सकता है। भारत जैसे सांस्कृतिक विविधता वाले देश में क्षेत्रीय आकांक्षाओं का पैदा होना लाजिमी है। दरअसल क्षेत्रीय स्वायत्तता की अवधारणा काफी पुरानी है और महात्मा गांधी का ग्राम स्वराज्य भी उसी पर आधारित है। भारत जैसे विशाल देश में एक-दूसरे से बंधे होने की विवशता और अलग सांस्कृतिक पहचान कायम रखने की छटपटाहट ने ही अलग राज्य की मांग को हवा दी है। यह विवशता और छटपटाहट हमारे संघीय ढांचे की मजबूती के लिए भी जरूरी है। सामाजिक दृष्टिकोण से देखा जाए, तो यदि एक-दूसरे से बंधे होने की विवशता नहीं होगी, तो भारत का अस्तित्व ही मिट जाएगा। हम आज भी उतने परिपक्व नहीं हो सके हैं कि क्षेत्रीय अस्मिता को राष्ट्रीय अखंडता से जोड़ कर देखें और सावधानीपूर्वक कदम उठा सकें। इसके लिए हमें अभी थोड़ा इंतजार करने की जरूरत है।
लेकिन इस मांग को पूरा करने में सावधानी जरूरी है। छोटे राज्य प्रशासनिक दृष्टिकोण से अधिक सुगठित होते हैं। वहां विकास सुनियोजित तरीके से हो सकता है। हालांकि झारखंड के संदर्भ में यह सही नहीं है। झारखंड का गठन भारतीय राजनीतिक इतिहास का एक अनोखा घटनाक्रम है। बिहार की सामंतवादी और जातिवादी शासन व्यवस्था से अलग होकर झारखंड अस्तित्व में आया। राज्य भौगोलिक और राजनीतिक रूप से अलग हो गया, लेकिन यहां की मानसिकता नहीं बदली। हम कह सकते हैं कि जिस तरह से भारत की आजादी भी विश्व इतिहास की एक अद्भुत परिघटना है, ठीक उसी तरह झारखंड का गठन भी भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण मोड़ है। जिस तरह भारत आजाद होने के बावजूद आज भी पश्चिमी मानसिकता से पूरी तरह उबर नहीं सका है, झारखंड भी बिहार की छाया से अलग नहीं हो सका है। आजादी के 62 साल बाद भी भारत में अंग्रेजों के कानून हैं, यहां की शासन प्रणाली ब्रिटिश तौर-तरीकों से प्रभावित है। ठीक यही बात झारखंड के साथ भी है। झारखंड का कोई अपना नहीं है। महज 10 साल में कोई अपना हो जाए, यह भी संभव नहीं है। सरकारी अधिकारी आज भी रांची और पटना के बीच झूल रहे हैं। आनेवाली पीढ़ी, जो यहां पैदा हुई, पली-बढ़ी, वह झारखंड को अपना समझे, इसकी कोशिश अभी से जरूरी है। ग्राम स्वराज या ग्राम गणतंत्र की जो बातें हैं, उनमें भी यही तत्व है। गांधी-नेहरू के जमाने से ही गांवों को उनके विकास की जिम्मेदारी देने की कोशिश हो रही है। आदिवासी इलाकों के लिए तो और भी विस्तृत व्यवस्था की गई है। ऐसे में यदि हम अपना विकास खुद करेंगे, तो फिर हमारी क्षेत्रीय आकांक्षाएं जोर मारेंगी ही। इसमें बुराई क्या है।
सवाल अलग राज्य बनाने का नहीं है। समस्या का समाधान भी केवल अलग राज्य या स्वायत्त इकाई बना देने से नहीं हो सकता। हमें विकास का ऐसा मॉडल चुनना होगा, जिससे समाज के अंतिम व्यक्ति तक उसका असर पहुंचे। झारखंड को ही लें। दजर्नों एमओयू हुए। दुनिया भर की कंपनियां आईं। हम एक टाटा से तो निबट नहीं सके, जो कम से कम झारखंडी कंपनी तो है। इस नाते उसमें इतनी नैतिकता तो है कि वह झारखंड के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझते हैं। लेकिन दूसरी कंपनियां यहां के प्रति अपनी जिम्मेदारियां क्या समझेंगी। एक कंपनी कहती है कि 50 हजार लोगों को नौकरी देगी। दूसरे ही दिन 10 हजार लोगों के बाहर निकाले जाने की खबर आती है। यह सब छलावा मात्र है। बाहर की कंपनियां झारखंडियों को क्या काम देंगी। चपरासी और क्लर्क ही बनाएंगी। अधिकारी तो बाहर से ही आएंगे। तब ऐसे उद्योग से झारखंड को क्या मिलेगा। दुनिया के विकसित देश जो व्यवहार भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों के साथ कर रहे हैं, वही सब कुछ भारत के विकसित राज्य भी झारखंड जैसे पिछड़े राज्यों के साथ करेंगे। इसमें कोई फर्क नहीं आनेवाला। झारखंड में पहाड़ बेचे गए। यहां का पैसा दूसरी जगहों पर चला गया। इससे किसका फायदा हुआ। जिसने पैसा बाहर भेजा, उसे खुद पता नहीं कि उसका पैसा कहां है। और उस पैसे से बाहर के देश मजे कर रहे हैं। असमान विकास का यह परिणाम है। लोग कहते हैं कि आदिवासियों ने ही झारखंड को बर्बाद किया। लेकिन वास्तविकता तो यही है कि चाहे ब्रह्मा, विष्णु या महेश को भी यहां क्यों न लाया जाए, स्थिति बदलनेवाली नहीं, क्योंकि यहां की धरती से किसी को लगाव नहीं है। आज झरिया क्यों उजड़ रहा है। कोयला निकालनेवालों ने कोयला तो निकाल लिया, लेकिन गड्ढे में बालू भरने की जिम्मेदारी पूरी नहीं की। धरती खोखली हो गई। असमान विकास के मॉडल की यही पहचान है। इसमें कुछ लोगों या समूहों का विकास तो होता है, लेकिन उसके दुष्परिणाम दूसरे समूहों को भुगतने पड़ते हैं।
तो क्या इसका इलाज केवल अलग राज्य है? भौगोलिक या राजनीतिक रूप से अलग राज्य बना देना समस्या का समाधान नहीं है। यह समाधान का एक रास्ता बेशक हो सकता है। इलाज तो विकास का पैमाना तय करना है। शिक्षा का ऐसा मॉडल तैयार करना होगा, जिससे हमारे लोग हमारे यहां की बिजली जला कर अमेरिका के लिए काम नहीं करें। हमारी प्रतिभा हमारे अपने घर में उपेक्षित रहती है। इस हालत को सबसे पहले बदलना होगा। केवल अलग राज्य की मांग करना या अलग राज्य बना देना ही काफी नहीं है। धरती की बंदरबांट भर से कुछ हासिल नहीं होनेवाला। इतना जरूर है कि क्षेत्रीय स्वायत्तता विकास के लिए बहुत जरूरी है। लेकिन यदि केवल विकास ही करना है, तो हरेक गांव को स्वायत्तता मिलनी चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र की सबसे मजबूत और छोटी कड़ी गांव ही है। राज्य तो बड़ी इकाई है। गांव के बाद पंचायत, उसके बाद प्रखंड और फिर अनुमंडल, जिला, कमिश्नरी और फिर राज्य की बात आनी चाहिए। गांवों को उनके विकास का जिम्मा मिल जाए, तो आधी समस्या वैसे ही दूर हो सकती है। लेकिन उन गांवों को रास्ता दिखाना होगा। दिल्ली या रांची में बैठ कर हम नगालैंड या पलामू के किसी दुर्गम गांव के विकास की तसवीर नहीं खींच सकते। हमें पहले सही तसवीर देखनी होगी। इसलिए अलग राज्य का गठन तो होना चाहिए, लेकिन केवल इलाके के बंटवारे से ही विकास नहीं होता, इसके लिए सही रास्ता अपनाना भी जरूरी है।
लेखक रांची विश्वविद्यालय के पूर्व वाइस चांसलर और जनजातीय मामलों के विशेषज्ञ हैं
(प्रस्तुति- यशोनाथ झा)