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भाजपा कुनबे में घमासान

देश की सत्ता पर काबिज होने का सपना रखने वाली भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस के विकल्प के तौर पर अपने को पेश करने में बार-बार नाकाम हो रही है। लोकसभा चुनाव में फजीहत के बाद भी पार्टी ने हाल में संपन्न...

भाजपा कुनबे में घमासान
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 29 Oct 2009 10:05 PM
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देश की सत्ता पर काबिज होने का सपना रखने वाली भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस के विकल्प के तौर पर अपने को पेश करने में बार-बार नाकाम हो रही है। लोकसभा चुनाव में फजीहत के बाद भी पार्टी ने हाल में संपन्न महाराष्ट्र, हरियाणा और अरुणाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भी अतीत की गलतियों से सबक नहीं लिया। राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी नेतृत्वविहीन दिखी। वह अपने परम्परागत शहरी मतदाताओं पर भी अपनी पकड़ बनाने में असफल रही। नतीजा, तीनों राज्यों में उसे मुंह की खानी पड़ी।

महाराष्ट्र में कांग्रेस ने महंगाई और 9/11 जैसी घटनाओं के बाद भी तीसरी बार सत्ता पर कब्जा जमा लिया। इसी तरह हरियाणा में लोकसभा चुनाव में एनडीए के सहयोगी रहे ओम प्रकाश चौटाला की इण्डियन नेशनल लोकदल से गठबंधन तोड़कर उसने कांग्रेस के लिये दूसरी बार रास्ता बना दिया। यदि आलाकमान के दबाव में यह गठबंधन नहीं टूटता तो कांग्रेस को सत्ता से बेदखल होने से कोई रोक नहीं सकता था। वहीं केन्द्रीय नेतृत्व में आपसी अंतर्कलह के चलते अरुणाचल प्रदेश के जनाधार रखने वाले पार्टी के पन्द्रहवीं लोकसभा के दो सदस्य किरेन रिजीजू और तापिर गाव कांग्रेस में शामिल हो गए और इस तरह सूबे में पार्टी बिखर गई।

अपनी ढपली अपना राग
लोकसभा में हार के बाद भाजपा में इस कदर अनुशासनहीनता और नेतृत्व पर अविश्वास बढ़ा कि हर छोटा-बड़ा नेता अपनी-अपनी ढपली बजाने लगा। पार्टी ने हार से सबक सीखने और हार के कारणों में जाने के बजाय उस पर चुप्पी साधना बेहतर समझा। अलबत्ता जसवंत सिंह, अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा जैसे वरिष्ठ नेताओं ने हार के कारणों की समीक्षा की मांग की तो जसवंत सिंह को पार्टी के बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा को अपने में रहने के लिए दबाव बनाया गया।

पार्टी ने हार के कारणों की समीक्षा का नाटक शिमला में चिंतन बैठक कर करने का प्रयास किया, लेकिन वह बैठक भी बेनतीजा रही। ऐसा होना ही था क्योंकि चिंतन बैठक के मूल दस्तावेज में लौह पुरुष लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने और चुनाव रणनीति बनाने वाले अरुण जेतली और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को चुनाव के मध्य में प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करने के सवाल को हार के कारणों में गिनाया गया था।

संघ के हस्तक्षेप पर हमला
तीन राज्यों में ताजा हार के पीछे जानकार बताते हैं कि इन राज्यों में विशेष कर महाराष्ट्र में संघ परिवार ने भाजपा-शिवसेना गठबंधन के लिये विशेष काम नहीं किया। इसकी वजह यह थी कि भाजपा आलाकमान संघ परिवार द्वारा हरिद्वार और राजगीर की बैठक में बनाए गए उसके रोडमैप को मानने में नानुकुर कर रहा है। संघ प्रमुख मोहन भागवत साफ संकेत दे चुके हैं कि वरिष्ठ लोगों को नेतृत्व से हट कर युवाओं को नेतृत्व सौंप देना चाहिए। यहां तक कि उन्होंने उम्र सीमा तक का खुलासा कर दिया है। उन्होंने कहा है कि भाजपा का नेतृत्त्व करने की क्षमता रखने वाले ऐसे सौ लोगों को मैं व्यक्तिगत तौर पर जानता हूं। बावजूद इस खुलासे के नेतृत्व में काबिज नेता पद छोड़ने के मूड में नहीं दिख रहे हैं। विपरीत इसके ऐसे नेताओं के समर्थक बुद्धिजीवी अखबारों में कॉलम लिख कर संघ के हस्तक्षेप पर हमला बोल रहे हैं।

क्या जन्मदिन पर जाएंगे आडवाणी?
संघ ने लालकृष्ण आडवाणी को साफ रूप में संकेत दे दिया है कि उन्हें लोकसभा में नेता विपक्ष का पद छोड़ देना चाहिए। इस बात की चर्चा जरूर है कि वे 8 नवम्बर को अपने जन्मदिन के मौके पर इस पद को छोड़ देंगे, लेकिन आडवाणी के नजदीकी सूत्रों का कहना है कि वे इस पद को छोड़ने के मूड में नहीं हैं। इसके लिए भी यह तर्क गढ़ा जा रहा है कि आडवाणी के बाद पार्टी में फिलहाल नेतृत्व करने वाला कोई नेता नहीं दिख रहा है। पार्टी की दूसरी पंक्ति के जो नेता हैं, उसमें से अधिकांश आडवाणी समर्थक हैं। इनमें अरुण जेतली, वेंकैया नायडू, अनंत कुमार, सुषमा स्वराज, गोपीनाथ मुंडे आदि समय-समय पर कहते रहे हैं कि आडवाणी लोकसभा के विपक्ष के नेता पद पर बने रहेंगे। इस बात का आडवाणी भी संकेत दे चुके हैं कि वे जो भी काम करते हैं दिल से करते हैं।

संघ और भाजपा आमने सामने
विपरीत इसके संघ आडवाणी को नेतृत्व छोड़ने के लिए विवश करने के लिए कृतसंकल्प है। इस बाबत 28 अक्टूबर को संघ प्रमुख मोहन भागवत से आडवाणी की भेंट हुई। जानकारों का कहना है कि भागवत ने आडवाणी पर पद छोड़ने के लिये मुलाकात में दबाव बनाया। लेकिन आडवाणी ने भागवत को टालमटोल भरा जवाब दिया है। इस तरह संघ और आडवाणी जिन्ना प्रकरण के बाद एक बार फिर आमने सामने हैं। आडवाणी इस बार कड़ा रुख अख्तियार कर रहे हैं। वे संघ की ताकत को तौलने की कोशिश कर रहे हैं।

संघ में भी आडवाणी लॉबी
संघ में भी आडवाणी को लेकर गुटबाजी चरम पर है। पूर्व सह सरकार्यवाह मदनदास देवी आडवाणी के लिए गोटियां बिछा रहे हैं। आडवाणी का रास्ता साफ करने के लिये संघ और भाजपा के बीच समन्वय का काम देख रहे सुरेश सोनी को भी मुक्त कराने के लिए प्रयास चल रहे हैं। सोनी की जगह मदनदास देवी सह सरकार्यवाह होसबोले को बैठाने की मुहिम चला रहे हैं। भाजपा की गुटबाजी की बीमारी संघ में भी घुस गई है। मोहन भागवत भी चारों तरफ से घिरते नजर आ रहे हैं। वे आडवाणी के टालमटोल से क्षुब्ध हैं। इसीलिए उन्हें बीते दिनों भाजपा के लिए सजर्री और कीमोथैरेपी जैसे शब्दों के इस्तेमाल की जरूरत पड़ी है।

आडवाणी के नेतृत्व पर संघ की चुनौती के बाद भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्वविहीन पार्टी के तौर पर उभरी है। इसी के चलते हाल में संपन्न विधानसभा चुनावों में पार्टी के कद्दावर नेता पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पार्टी को जिताने की अपील भी बेअसर साबित हुई।

संगठन पर कब्जे की मुहिम
मौजूदा वर्ष भाजपा का चुनावी वर्ष है। इस साल उसके संगठनात्मक चुनाव की प्रक्रिया जारी है। संघ और आडवाणी खेमा संगठन पर कब्जा जमाने के लिए कमर कसे हुए हैं। आडवाणी और मदनदास देवी पार्टी अध्यक्ष पद पर अपना आदमी देखना चाहते हैं। मदनदास देवी बाल आप्टे के लिए प्रयास कर रहे हैं। आडवाणी का भी उन्हें समर्थन मिल सकता है। अरुण जेतली, सुषमा स्वराज, अनंत कुमार और वेंकैया नायडू के नामों के बारे में मोहन भागवत एक प्रकार से अपनी न कर चुके हैं। संघ की कोशिश है कि विचारधारा के प्रति समर्पित व्यक्ति को भाजपा अध्यक्ष पद पर नवाजा जाए। इस पद के लिए उसकी पसंद मुरली मनोहर जोशी हो सकते थे, जिन्होंने एनडीए सरकार के समय संघ के एजेन्डे को पूरी शिद्दत से लागू करवाया था, लेकिन उनकी उम्र इसके आड़े आ रही है।

मौजूदा अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी दूसरी पारी खेलने के इच्छुक रहे हैं, लेकिन पार्टी का संविधान इसकी इजाजत नहीं देता है। वैसे उन्होंने लोकसभा चुनाव में हार के बाद दिल्ली में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में संविधान में संशोधन करवाने की गुप्त मुहिम चलाई थी, पर उन्हें इसमें कामयाबी नहीं मिली थी। संघ खेमे से नितिन गडकरी का नाम सुनाई पड़ रहा है, लेकिन इस नाम में कितनी जान है, इसका खुलासा कोई भी करने को तैयार नहीं दिख रहा है। वैसे दिसम्बर में अध्यक्ष पद के चुनाव का अब यूं भी टलना तय है, क्योंकि झारखंड में विधानसभा चुनावों का ऐलान हो चुका है। राजनाथ सिंह को इस तरह अध्यक्ष पद के लिये दो-तीन माह की और मौहलत मिल जाएगी।

युवा नेतृत्व का यक्ष प्रश्न
संघ का भाजपा को युवा नेतृत्व देने के सपने की बात करें तो जमीनी सच्चई यह है कि उसके दूसरी पंक्ति के जितने नेता हैं वे 2014 के लोकसभा चुनाव तक साठ की उम्र पार चुके होंगे या फिर साठ को छू रहे होंगे। वहीं कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी पैंतालिस भी नहीं छू पाएंगे। तीसरी पंक्ति के नेताओं राजीव प्रताप रूडी, रविशंकर प्रसाद, मुख्तार अब्बास नकवी, शिवराज चौहान, शहनवाज हुसैन, अमित ठाकर, वरुण गांधी आदि की हालत यह है कि इन्हें नहीं लगता है कि इनका नेतृत्व के लिये नम्बर साठ साल के पहले आएगा, क्योंकि अभी दूसरी पंक्ति के नेता ही स्थापित नहीं हो पाए हैं।

राज्य इकाइयों में बगावत
भाजपा केन्द्रीय नेतृत्व जिस तरह से हलकान है, उसी तरह उसकी राज्य इकाइयां भी गुटबाजी से जूझ रही हैं। नतीजतन कार्यकर्ताओं का मनोबल और उत्साह पूरी तरह से टूट चुका है। उत्तराखंड में बहुमत होने के बाद जिस तरह से आलाकमान ने मुख्यमंत्री पद से भुवनचंद्र खंडूरी को हटाकर निशंक को मुख्यमंत्री बनाया और उसके बाद इसी बात को दोहराने की कोशिश राजस्थान में हुई।

वसुंधरा राजे ने लंबी आनाकानी के बाद विधानसभा में नेता विपक्ष पद से इस्तीफा तो दे दिया, लेकिन उन्होंने तमाम असहज सवाल आलाकमान के सामने खड़े कर दिये। उन्होंने कहा कि दिल्ली और देश में पार्टी की हार के लिए जिम्मेदार लोगों को नहीं हटाया गया। पार्टी में यह दोहरा मानदंड नहीं चलेगा। उनके बगावती तेवर बने हुए हैं। वे इस्तीफे के बाद जयपुर जब पहुंची तो उन्होंने शक्ति प्रदर्शन कर दिखाया कि इस्तीफा उन्होंने बेशक दे दिया है, लेकिन वे राज्य में पार्टी को अपनी मनमानी से चलाएंगी। इसी तरह हिन्दी पट्टी के सभी राज्यों में पार्टी में अंदरूनी कलह अपने चरम पर है। महाराष्ट्र चुनाव में भी गुटबाजी के कारण भाजपा को नुकसान हुआ है।

भूल से सबक लेने का आग्रह
फिलहाल भाजपा पटरी से उतर चुकी दिख रही है। जो लोग स्वस्थ लोकतंत्र में एक मजबूत विपक्ष देखना चाहते हैं, उन्हें भी भाजपा के अंदर मचे घमासान से गहरी निराशा हो रही है। वैसे जिस तरह से पार्टी ने लोकसभा की हार का स्यापा किया, वैसा अभूतपूर्व कुछ भी नहीं घटा था। बीते लोकसभा चुनाव की तुलना में उसकी सिर्फ 22 सीटें कम हुईं थीं। 116 सीटें लेकर भाजपा अभी भी देश की दूसरी बड़ी पार्टी बनी हुई है। अति उत्साह के शिकार और केन्द्र में अपनी सरकार का मजबूत हवाई सपना देखने की वजह से उसे इस तरह की निराशा हुई है। पार्टी के वरिष्ठ जमीनी कार्यकर्ताओं और नेताओं का मानना है कि अभी भी वक्त नहीं गुजरा है विचारधारा पर टिके रहकर पार्टी अपनी भूलों की समीक्षा कर अपना पुराना गौरव प्राप्त कर सकती है।

विचारधारा को लेकर असमंजस
विचारधारा के प्रति आग्रह के सवाल पर भी पार्टी में गंभीर मतभेद हैं। हिन्दुत्व को लेकर पार्टी का एक धड़ा चाहता है कि उसे संघ के आग्रहों को छोड़कर पार्टी की एक मॉडरेट छवि बनानी चाहिए, जिसमें मोदी और वरुण गांधी जैसे लोगों के लिये कोई जगह नहीं होनी चाहिए।  वहीं दूसरी ओर मुरली मनोहर जोशी, विनय कटियार, योगी आदित्यनाथ जैसे नेताओं का कहना है कि देश में पार्टी का सबसे बड़ा उभार अयोध्या आंदोलन के बाद हुआ था और एनडीए में उसके विरोधी विचारों के लोग भी शामिल हुए थे। विचारधारा के प्रति आग्रह संघ के स्वयंसेवकों का भी है, जो पार्टी के लिए झंडा-डंडा लगाने से लेकर दरी बिछाने और मंच लगाने का काम करते हैं। उनके मुताबिक विचारधारा को लेकर पार्टी के विचलन का ही कारण है कि उसे न तो माया मिल रही है और न राम।

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