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तीसरी तिमाही में खुशियों की बौछार

साल 2009 की पहली और दूसरी तिमाही से जितनी उम्मीदें बांधी जा रही थीं, वे सब एक-एक कर के ध्वस्त होती गयीं, लेकिन शुक्र है कि तीसरी तिमाही ने लाज रख ली और कुछेक  फिल्में चल निकलीं। सीधे आंकड़ों पर...

तीसरी तिमाही में खुशियों की बौछार
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 02 Oct 2009 11:22 AM
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साल 2009 की पहली और दूसरी तिमाही से जितनी उम्मीदें बांधी जा रही थीं, वे सब एक-एक कर के ध्वस्त होती गयीं, लेकिन शुक्र है कि तीसरी तिमाही ने लाज रख ली और कुछेक  फिल्में चल निकलीं। सीधे आंकड़ों पर आएं तो इस साल के पहले तीन महीनों में 57 फिल्में आई थीं, जबकि बाद के तीन महीनों में 72। बीती तिमाही यानी जुलाई, अगस्त और सितंबर में यह आंकड़ा 62 का रहा, लेकिन कामयाबी का औसत इस बार ज्यादा नजर आया। दरअसल पहले छह महीनों में स्कूल-कॉलेजों की परीक्षाओं, आम चुनावों और फिल्म इंडस्ट्री की हड़ताल ने फिल्मी कारोबार पर असर डाला। जब हालात सुधरे तो निर्माताओं ने ताबड़तोड़ बड़ी-बड़ी फिल्में रिलीज कर डालीं, जिसके चलते कामयाबी भी बरस पड़ी।

इन तीन महीनों की सबसे बड़ी हिट रही ‘लव आज कल’। इम्तियाज अली की उम्दा स्क्रिप्ट और संगीत वाली इस फिल्म ने हर  किसी को लुभाया और यह सुपरहिट के पायदान पर जा पहुंची। इसके बाद ‘वॉन्टेड’ ने कामयाबी दिलाई। निर्देशक प्रभुदेवा ने हिन्दी वालों के टेस्ट का ध्यान रखा और दर्शकों ने इसे अपने दिलों में जगह भी दी।

अक्षय कुमार, करीना कपूर की ‘कम्बख्त इश्क’ ने जितना शोर मचाया था, यह उतनी बढ़िया तो नहीं निकली, लेकिन फिर भी इसे काफी ज्यादा पसंद किया गया और यह सेमी-हिट के आले में जा बैठी। विशाल भारद्वाज की ‘कमीने’ को कहीं तारीफें मिलीं और कहीं प्यार। कुल मिला कर यह फिल्म भी सेफ रही और सेमी-हिट का तमगा पा गई। गोविंदा, फरदीन, तुषार वाली ‘लाइफ पार्टनर’ में कुछ खास दम नहीं था, लेकिन यह ज्यादा बुरी भी नहीं थी, सो इसने औसत कारोबार ही किया। यशराज से आई ‘दिल बोले हड़िप्पा’ कमजोर पटकथा की नींव पर खड़ी की गई थी, सो इसकी चमकदार पैकेजिंग भी इसके किसी काम नहीं आई, लेकिन अपने शोर-शराबे वाले प्रचार के चलते यह फिल्म भी औसत तक आ ही पहुंची।

अक्षय खन्ना की ‘शॉर्टकट’ पिलपिली कहानी का शिकार हुई और पिटी। ‘लक’ ने वादे तो ढेरों किए, मगर निभाया एक भी नहीं, सो दर्शकों ने इसे किनारे कर दिया। ‘तेरे संग’ देख कर लगा ही नहीं कि इसे सतीश कौशिक जैसे अनुभवी निर्देशक ने बनाया है। एक अच्छी कहानी के घटिया चित्रण का नमूना निकली यह फिल्म भी पिटी। सोहेल खान की ‘किसान’ भी कमजोर कहानी का शिकार हुई। यूटीवी की ‘आगे से राइट’ कुछ ज्यादा ही एक्सपेरिमेंटल हो गई। इसकी उलझी हुई पटकथा ने इसे रुलाया। ‘बाबर’ में नया कुछ नहीं था, सो यह भी ज्यादा दूर तक नहीं खिंच सकी। हैरानी तो हुई आशुतोष गोवारिकर की ‘व्हॉट्स योर राशि’ देख कर। एकरसता से भरी यह काफी लंबी और बोर फिल्म निकली, जिसके गानों ने इसे और थका दिया।

सबसे नीचे की सीढ़ी यानी सुपरफ्लॉप रहीं ‘संकट सिटी’, ‘मॉर्निग वॉक’, ‘सिकंदर’, ‘डैडी कूल’, ‘यह मेरा इंडिया’ और ‘वादा रहा’। ये ऐसी फिल्में हैं, जो या तो कम चमकते चेहरों वाली थीं या फिर कम प्रचार के साथ गलत वक्त पर रिलीज हुईं। थोड़ा और जोर लगाया होता तो ये फिल्में बेहतर प्रदर्शन कर सकती थीं। अध्ययन सुमन की ‘जश्न’, ग्रेसी सिंह की ‘देख रे देख’, सनी दियोल की ‘फॉक्स’, रणदीप हुड्डा की ‘लव खिचड़ी’, अश्मित पटेल की ‘टॉस’, आशीष चौधरी की ‘थ्री’, ‘रुसलान’, ‘मोहनदास’, ‘फास्ट फॉरवर्ड’ जैसी फिल्मों में कोई दम नहीं था, सो ये जोर से गिरीं। 61 में से 25 फिल्में यहां-वहां से डब हो कर आईं। इनमें से ‘ट्रांसफॉर्मर्स-इंतकाम के कगार पे’, ‘हैरी पॉटर एंड हॉफ ब्लड प्रिंस’, ‘क्विक गन मुरुगन’, ‘म्यूजियम के अंदर फिर फंस गया सिकंदर’ जैसी फिल्मों ने अपेक्षाकृत अच्छा बिजनेस किया।

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