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सौ दिन की जवाबदेही के सवाल

हाल ही में भारत ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के एक लघु सम्मेलन की मेजबानी की। सम्मेलन को सफल बताया गया, जबकि हकीकत यह है कि इससे कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं हो पाई। दुनिया के विभिन्न हिस्सों...

सौ दिन की जवाबदेही के सवाल
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 11 Sep 2009 12:16 AM
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हाल ही में भारत ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के एक लघु सम्मेलन की मेजबानी की। सम्मेलन को सफल बताया गया, जबकि हकीकत यह है कि इससे कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं हो पाई। दुनिया के विभिन्न हिस्सों से आए 36 देशों के मंत्रियों ने जेनेवा में 14 सितंबर को फिर मिलने भर की घोषणा ही की। दोहा दौर की वार्ता का गतिरोध दूर करने की दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो पाई। क्या दोबारा बातचीत को बतौर उपलब्धि गिनाया जा सकता है? वार्ता में सेवा क्षेत्र को शामिल करने, भारत जैसे विकासशील देश को अपने किसानों के हित की रक्षा के लिए खाद्यान्न आयात पर ऊंचा कर लगाने की अनुमति देने, विकसित देशों द्वारा अपने कृषि उत्पादों पर दी जा रही भारी सब्सिडी कम करने जैसे मुद्दों पर अभी भी गतिरोध बना हुआ है।

वास्तव में डब्ल्यूटीओ दिल्ली सम्मेलन एक जन-संपर्क अभियान ही माना जाएगा। भारत पर दोहा दौर के फैसलों को पलीता लगाने का आरोप लगता रहा है। इस आरोप को मिटाने की दृष्टि से ही भारत ने सम्मेलन की मेजबानी की थी। यदि इस नजरिए से सम्मेलन को परखें तो कुल मिलाकर भारत द्वारा मेजबानी करना सफल ही कहा जाएगा। मंत्रियों के इस सम्मेलन में विचारों का आदान-प्रदान तो खूब हुआ, किन्तु कोई ठोस उपलब्धि हासिल नहीं हुई।

मीडिया में दोहा दौर पर मंत्रियों के सम्मेलन के अतिरिक्त संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार की सौ दिन की उपलब्धियों का लेखा-जोखा खूब छाया रहा। इस वर्ष चार जून को संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति ने अपनी सरकार की सौ दिन की कार्ययोजना का खुलासा किया था। इस कार्ययोजना का खाका काफी विस्तृत था। चलिए इस पर विचार करते हैं।

महिला आरक्षण बिल अभी भी संसद में अटका पड़ा है। सरकार ने स्थानीय निकायों में महिलाओं का आरक्षण प्रतिशत बढ़ा दिया है। बिहार में यह काम पहले ही हो चुका है। वहां पंचायतों के साथ-साथ स्थानीय निकायों में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाया जा चुका है। इस मुद्दे पर केंद्र सरकार की उपलब्धि मिश्रित मानी जाएगी। गंगा नदी की सफाई और सौंदर्यीकरण की योजना भी थोड़ी आगे बढ़ी है। पिछड़ा क्षेत्र अनुदान कोष के पुनर्गठन के बाद कई प्रस्तावों पर विचार हुआ है, लेकिन अमल के लिए पंचायती राज पदाधिकारियों के प्रशिक्षण का कोई कारगर कार्यक्रम नहीं बनाया जा सका है।
जन-सूचना को लेकर आई चेतना और दबाव के कारण ही न्यायाधीश अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा को राजी हुए हैं। यह निर्णय न्यायपालिका ने स्वयं लिया है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (नरेगा) का सोशल ऑडिट कराने और जवाबदेही तय करने का मुद्दा भी ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाया है। हां, प्रधानमंत्री सचिवालय में इस योजना की निगरानी के लिए एक स्वतंत्र अधिकारी की नियुक्ति का प्रयास किया जा रहा है। आशा है, यह अधिकारी ईमानदारी से काम करेगा और योजना का बेहतर ढंग से मूल्यांकन किया जएगा। सत्ता संभालने के बाद संप्रग सरकार ने जो वायदे किए थे, उनमें से एक यह भी था। मॉडल सिविल सर्विस एक्ट को लागू करना भी बचा पड़ा है।
 
शिक्षा का अधिकार कानून पारित हो गया है। यह कानून बन जाने के बाद 6-14 वर्ष आयु वर्ग के प्रत्येक बच्चे को अनिवार्य नि:शुल्क शिक्षा प्रदान करना राज्य का उत्तरदायित्व है। यह एक बड़ा कदम है, किन्तु इससे जुड़ी अनेक व्यवहारिक कठिनाइयां हैं, जिन पर विचार किया जना जरूरी है। मसलन इस कानून को लागू करने के लिए धन का प्रबंध कैसे होगा, शिक्षा में गुणवत्ता कैसे लाई जाएगी और राज्य सरकारें कितना-कितना खर्चा उठाएंगी आदि।

राष्ट्रीय उच्च शिक्षा परिषद् गठित किए जाने के मुद्दे पर काफी सार्वजनिक बहस हो चुकी है और आशा की जानी चाहिए कि सरकार इस बारे में संसद के शीतकालीन सत्र में एक बिल पेश करेगी। एक राष्ट्रीय मानव संसाधन और स्वास्थ्य परिषद् के गठन को लेकर बहस होना बाकी है। प्रस्तावित 14 केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए दुनिया भर से प्रतिभा खोजने पर तो विचार-विमर्श हुआ है, किन्तु इन विश्वविद्यालयों की भर्ती प्रक्रिया, प्रोत्साहन और राष्ट्र की मुख्य शिक्षा व्यवस्था से तालमेल बिठाने जसे मुद्दों से कैसे निपटना है, इसकी रूपरेखा बनाया जना शेष है।

न्यायपालिका में सुधार के लिए सबसे जरूरी काम करोड़ों बकाया मुकदमों को निपटाना है। साथ ही पारदर्शिता, उच्च न्यायालय तथा अन्य अदालतों के लिए जजों की नियुक्ित के लिए ठोस कदम उठाए जाने चाहिए। खाद्य सुरक्षा कानून का गठन भी समस्याओं से घिरा दिखता है। जब सूखा पड़ जाए तब जरूरतमंद  लोगों की निशानदेही और गरीबी की रेखा से नीचे की जनता का कार्ड बनाना और भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है।

यूं भी गरीब जनता की पहचान का मामला विवादास्पद है। सरकार द्वारा नियुक्त एन. सी. सक्सेना समिति तथा तेंदुलकर समिति के अनुसार देश में कंगाल लोगों की संख्या पूर्वानुमानों से कहीं ज्यादा है। वास्तव में गरीबों की संख्या और गरीबी की रेखा का उपभोग से जुड़ा मापदंड पुराना पड़ चुका है। गरीबी को मापना और उसकी परिभाषा तय करना काफी जटिल काम है। इसके लिए सरकार को आम सहमति बनानी होगी।

कुल मिलाकर संप्रग सरकार के सौ दिन के कार्यकाल में उसकी सफलता आंशिक रही। बचाव में यह कहा ज सकता है कि राष्ट्रपति ने संसद के संयुक्त अधिवेशन में अपने अभिभाषण में जो बातें कही थीं, वह समयबद्ध कार्ययोजना नहीं, उठाए जाने वाले कदमों की रूपरेखा थी। सरकार दावा कर सकती है कि सभी मुद्दों पर वह पहल कर चुकी है। यह बात तो माननी ही पड़ेगी कि कई विषय काफी जटिल होते हैं और उन्हें समय की सीमा रेखा में बांधना अर्थहीन है।

संप्रग सरकार पांच वर्ष के लिए चुनी गई है और अभी स्थिर है। पहले सौ दिन का जायजा लेने की परम्परा अमेरिका से आई है। वहां चुने गए राष्ट्रपति की प्रथम सौ दिन की उपलब्धियों पर जनता गहरी नजर रखती है। हमारी राजनैतिक प्रणाली जटिल है। हां, सौ दिन का कार्यक्रम बनाकर मंत्रियों की जवाबदेही जरूर तय की जा सकती है। वैसे ऐसे कार्यक्रम पर अमल करना व्यावहारिक तौर पर कठिन ही है।

मुख्य विपक्षी दल भाजपा में उथल-पुथल है, जिससे सरकार पर दबाव कम हो गया है। सौ दिन का रिपोर्ट कार्ड, विभिन्न मोर्चो पर किए कार्यो का विकल्प नहीं हो सकता। विश्वव्यापी मंदी के दौरान विकास की ऊंची दर बनाए रखना, सूखे की चुनौती से निपटना तथा करोड़ों भारतीयों को भोजन, पेयजल और रोजगार मुहैया कराना ही मुख्य चुनौतियां हैं। सौ दिन का कार्यकाल इसके लिए नाकाफी है।

nandu@ nksingh. com

लेखक राज्यसभा सदस्य और जाने-माने अर्थशास्त्री हैं, वे केन्द्र सरकार में सचिव रह चुके हैं

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