तीसरे मोर्चे की सार्थकता और अगर-मगर
एक बार फिर आमचुनावों की पूर्वसंध्या पर टुमकुर जिले में देश की राजनीति ने एक तीसर मोर्चे को जन्म दिया, और एक बार फिर नौ जनक पार्टियों के नुमाइंदों ने मानव श्रृंखला बना कर मंच से उसका ज-ौकार करते हुए...
एक बार फिर आमचुनावों की पूर्वसंध्या पर टुमकुर जिले में देश की राजनीति ने एक तीसर मोर्चे को जन्म दिया, और एक बार फिर नौ जनक पार्टियों के नुमाइंदों ने मानव श्रृंखला बना कर मंच से उसका ज-ौकार करते हुए उसे भाजपा तथा कांग्रेस के दमन के लिए जन्मा एक अवतारी दल घोषित किया। पर चौदह आम चुनावों से गुजर चुके मतदाता अब तक काफी पोढ़े हो चुके हैं। वे बड़े दलों : भाजपा और कांग्रेस से नाराज जरूर हैं, लेकिन उनमें अभी इस गैरभाजपा, गैरकांग्रेसी मोर्चे को लेकर अधिक भ्रम या गगनचुंबी किस्म की आशाएं नहीं हैं। तीसर मोर्चे के जन्म की न्यूनतम सार्थकता यह रही है कि वह मुख्यधारा के बड़े दलों में व्याप्त विषाणुओं के लिए एक ऐतिहासिक विरचक का काम करता है। अगर ऐसे मोर्चे के जन्म की संभावना नहीं होती, तो 1से आज तक अपनी ताकत के नशे में झूमती कांग्रेस और भाजपा क्षेत्रीय दलों के आगे हाथ जोड़ कर क्षमायाचना की मुद्रा में उतरने पर एकाधिक बार बाध्य नहीं होतीं। दलितों-अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा को लेकर कांग्रेस संप्रग से न जुड़ती और न ही भाजपा और संघ परिवार कड़क हिन्दुत्व अजंडे को राममंदिर सहित तलघर भेज कर राजग को रचते। तीसर मोर्चे का उदय जिस तरह देश के लोकतंत्र में दलितों और हाशिए के समुदायों के हकों की बहाली एक हद तक सुनिश्चित करवाता है, और साम्प्रदायिक अजंडों को अमान्य बना देता है, वह निश्चित ही स्वागतयोग्य है। लेकिन कई गुणीजन चूँकि कांग्रेस और भाजपा दोनों के पिछले पाँच वर्षो में क्रमिक ह्रास के संदर्भ में इस बार के तीसर मोर्चे की सरकार को पूरी तरह कांग्रेस या भाजपा से मुक्त गठजोड़ मान रहे हैं, इसलिए इस वक्त इस मोर्चे की चुनावोत्तर शासन-क्षमता का पूर्वानुमान कतई जायज बनता है। सवाल यह नहीं है, कि तीसर मोर्चे के नेताओं का व्यक्ितश: रिकॉर्ड कांग्रेस या भाजपा के नेताओं से बेहतर है, अथवा बदतर। सवाल यह है कि इस मोर्चे की (मान लीजिए) जीत के बाद प्रधानमंत्रित्व पद के सर्वश्रेष्ठ दावेदार का चयन कौन करगा? और किस आधार पर? अब तक का अनुभव दिखाता है कि ऐसे प्रधानमंत्री चयन में अंततोगत्वा बेहद कड़वाहट उमड़ पड़ती है। तब बुजुर्गो द्वारा न्यूनतम साझा सहमति के नाम पर अंतिम क्षणों में प्राय: एक कतई ढुलमुल से भलमानस की ताजपोशी कर दी जाती है, भले ही इसमें खेल के कुछ नियम बदलने भी पड़ें। इसके बाद शेष प्रधानमंत्री पद-वंचितों में एक भीषण क्रोध उमड़ पड़ता है और गरीब प्रधानमंत्री की कुर्सी तले उसी के सहयोगी दल बारूदी सुरंगें बिछाने लगते हैं। अंतत: एक विस्फोट के साथ मध्यावधि में खेल खतम और (मतदाता का) पैसा हाम हो जाता है। अगर वामदलों की इस धारणा पर इस बार सभी दल सहमत हो जाएं कि एक दलित की बेटी किसी भी अन्य दल के नेताओं से अधिक प्रगतिशील, अधिक समाजवादी प्रमाणित होगी, तो भी मायावती के सर से मध्यावधि छत्रभंग का खतरा नहीं टलेगा। जिस तरह माकपा में भीतरी भागीदारी की इच्छा सर उठा रही है, और बीजद और अन्नाद्रमुक खिंचे-खिंचे से खड़े हैं, यह मोर्चा भी एक हद तक व्यक्ितगत और वैचारिक टकराव की संभावनाओं से परिपूर्ण नजर आने लगा है। जहाँ बाद में भी कोई जगजीवनराम, चरणसिंह, राजनारायण, कोई जॉर्ज या देवीलाल नेपथ्य से मंच पर आकर जातीय या क्षेत्रीय मुद्दों पर भारी टंटा खड़ा कर सकता है। संभावनाएँ और भी हैं। तीसर मोर्चे का जो भी नेता लोकतंत्र में जन-भागीदारी को देशव्यापी बनाने के नाम पर प्रधानमंत्री बनाया जाएगा, उससे उम्मीद की जाएगी कि कुर्सी में बैठते ही वह सबसे पहले अपनी पार्टी के खास क्षेत्रीय हितों को वरीयता देने की उतावली पर लगाम साधे। पर क्या क्षेत्रीय पक्षपात के बिना वह अपना जनाधार गँवा न देगा? उसे कई बेहद तकलीफदेह आर्थिक फैसले भी तुरंत लेने होंगे, जिनमें छँटनियाँ, कटौतियाँ, राष्ट्रीयकरण और नियामक संस्थाओं के गठन जसे कई अपयशकारी काम अनिवार्यत: शामिल होंगे। इस सबके शुरू होते ही कई भागीदार उस पर हल्ला बोल देंगे। उन्हें समझाने को वक्त चाहिए, लेकिन अगर प्रधानमंत्री का सारा वक्त अपनी क्षेत्रीय साख बचाने तथा दिल्ली में कुर्सी कायम रखने में ही बीतने लगे, तो बातचीत का वक्त कहाँ से निकलेगा? अनेक समन्वयवादी लोकहितकारी थीसिसें तीसर मोर्चे के नवों दलों के पास मौजूद हैं। पर उससे क्या? सवाल यह भी है, कि उनको साकार करने वाली प्रशासनिक मशीनरी अलग-अलग मंत्रियों की अलग-अलग अपेक्षाएँ कैसे पूरी करगी? हर योजना पर नीति-निर्देश दिए जाने से पहले भागीदार दलों द्वारा दर्जनों ऐसे सैद्धांतिक सवाल उठाए जा सकते हैं, जिन पर वे कतई समझौता नहीं करंगे। और समझौते के लिए जिस जनाभिमुख सहा अनौपचारिकता की दरकार है उसका कितना अनुभव इन एक चालकानुवर्ती अन्नाद्रमुक, बसपा, माकपा, भाकपा, तेदेपा जसे दलों में है? बहन मायावती जी ने 15 मार्च को तीसर मोर्चे के नेताओं को भोज में न्योत कर कई उम्मीदें जगाई थीं, पर ठीक भोज से पहले पत्रकार वार्ता में उन्होंने जो छपी अपील जारी की, यदि मोर्चे के भविष्य के संकेतक उसे माना जाए तो यह निष्कर्ष निकलता है, कि उनके पास दो अजंडे हैं। पहला अजंडा वैचारिक है, जिसे वे वर्षो से लगातार उच्चरित करती आई हैं : बहुान समाज पार्टी दलितों की दुर्दशा वृहत्तर समाज द्वारा दलितों-वंचितों की उपेक्षा आदि से जूझने की सच्ची इच्छा तथा क्षमता वाली इकलौती भारतीय पार्टी है। इधर उसमें सर्वजन समाज का मुद्दा भी जुड़ गया है, पर अनुक्रमणिका बन कर और उसकी नसेनी पकड़ कर अनेक घाघ आपराधिक छवि के नेता बहनजी की पार्टी में आ गए हैं। दूसरा अजंडा निजी है और उसमें विगत की ढेरों कड़वी यादें तथा उलाहने हैं। चौधरी चरणसिंह की ही तरह अन्य दलों व नेताओं की व्यक्ितगत नुक्ताचीनी का जो स्वर कई बार बहनजी के सार्वजनिक भाषणों में भी उतरता रहा है वह विचारवान् सहयोगियों में चिड़चिड़ापन पैदा करगा। अपील पुस्तिका के इस उद्धरण पर गौर करना प्रासंगिक होगा : ..‘देश की आम जनता को अपना वोट..अकेले बीएसपी को ही देना क्यों जरूरी है? हमारी पार्टी का यह मानना है कि देश में बीएसपी ही एकमात्र ऐसी पार्टी है, जिसकी विचारधारा एवं नीतियाँ तथा कार्यशैली सर्वसमाज के हित में है..दूसरी पार्टियाँ आश्वासन ज्यादा देती हैं, कार्य बहुत कम करती हैं।’ मायावती जी के पास निश्चय ही वैचारिक दृढ़ता और जमीनी अनुभव निश्चय ही कई नेताओं से ज्यादा है। लेकिन सौम्य समन्वय की मथानी से अन्य दलों के अनुभवों के साथ अपने विचारों को भी मथ कर सर्वस्वीकार्य योजनाओं के रूप में उतार पाना मोर्चे की कामयाबी की बुनियादी शर्त है। इसमें वे कितनी सफल होंगी, यह अस्पष्ट है। अपने अलावा वे यदि बसपा में किसी अन्य को प्रभावी उत्तराधिकारी तो छोड़ें सेनापति बनाने लायक भी नहीं मानतीं, तो मोर्चे की नेता बन कर वे तमाम अन्य दलों से लोकतांत्रिक मशवरा कर सर्वसम्मति से राज-काज चलाएंगी, कम से कम अभी ऐसा भरोसा हठात् नहीं होता। अंतिम बात, केन्द्र में भले ही तीसर मोर्चे के घटक दल त्याग और अपरिग्रह के मानदण्ड बन जाएं, लेकिन शेष क्षेत्रीय नेताओं की घुन्नी महत्वाकांक्षाएं भी अनंत वक्त तक ठण्डे बस्ते में नहीं पड़ी रह सकतीं। जब क्षेत्रीय हितों की बात हो अपने-अपने राज्यों में सत्ता का चारागाह क्षेत्रीय नेता मोर्चे के किसी अन्य दल से निकले प्रधानमंत्री के लिए सहर्ष कभी नहीं छोड़ते। राजग के शासनकाल में जया, ममता, चन्द्रबाबू और संप्रग के दौरान राजद तथा कामरडों ने सहृदय सौमनस्य के कैसे मानदण्ड रचे, जनता अभी शायद भूली न होगी।ं