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सहयोग का नया मोर्चा

आठ साल पहले अमेरिकी बैंकिंग कंपनी गोल्डमैन सैश ने एक नया शब्द इस्तेमाल किया था- ब्रिक। यह शब्द ब्राजील, रूस, भारत और चीन की विश्व अर्थव्यवस्था में बढ़ती भूमिका के लिए था। आज जब विश्वव्यापी मंदी के...

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लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 17 Jun 2009 09:44 PM
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आठ साल पहले अमेरिकी बैंकिंग कंपनी गोल्डमैन सैश ने एक नया शब्द इस्तेमाल किया था- ब्रिक। यह शब्द ब्राजील, रूस, भारत और चीन की विश्व अर्थव्यवस्था में बढ़ती भूमिका के लिए था। आज जब विश्वव्यापी मंदी के कारण गोल्डमैन सैश जसी कंपनियों की साख डूब रही है, ब्रिक दुनिया की एक बड़ी आर्थिक ताकत बनने ज रहा है। रूस के शहर येकेतेरिनबर्ग में हुए ब्रिक के पहले शिखर सम्मेलन से जो संदेश आया है  वह यही है कि दुनिया की इन चार बड़ी ताकतों ने विश्व अर्थव्यवस्था के मौजूदा स्वरूप को बदलने की ठान ली है। सम्मेलन के आखिर में जरी साझ बयान में जिस ‘वाजिब विश्व अर्थव्यवस्था’ की बात की गई है, वह दरअसल अर्थव्यवस्था को पश्चिमी देशों के प्रभुत्व से मुक्त कराने एक ऐलान है। साझ बयान में 16 बिंदु हैं, जिसमें से ज्यादातर अर्थव्यवस्था से ही संबंधित हैं, जो यह बताता है कि ब्रिक का प्रमुख एजेंडा आर्थिक ही है। बयान में दुनिया के वित्तीय संस्थानों में बहुलता और लोकतंत्र कायम करने की बात की गई है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक से इन देशों की नारजगी वसे भी कोई छुपी हुई बात नहीं है। आर्थिक मंदी ने उन्हें विरोध का और भी बड़ा कारण दे दिया है। बयान में अंतरराष्ट्रीय कारोबार के लिए डॉलर का विकल्प खोजने की भी बात की गई है। इन सभी देशों के विदेशी मुद्रा कोष का बड़ा हिस्सा डॉलर में ही है, इसके अलावा चीन ने अमेरिकन डिपाजिटरी में भारी पैमाने पर निवेश किया हुआ है। डॉलर की अस्थिरता कभी भी इनके लिए परेशानी खड़ी कर सकती है। इसमें खाद्य सुरक्षा का मुद्दा भी उठाया गया है और दोहा राउंड को नए सिरे से शुरू करने की मांग की गई है। सम्मेलन में सिर्फ बयान ही नहीं जरी हुआ एक कार्ययोजना भी बनाई गई है। अब चारों देशों के वित्तमंत्री और राष्ट्रीय बैंक के प्रमुख बैठेंगे। वे विश्व की नई वित्त व्यवस्था की रूपरेखा तैयार करेंगे।

ब्रिक देश जिस तरह एकजुट हुए हैं उसके पीछे का एक बड़ा कारण आर्थिक मंदी से लगे झटके भी हैं। शायद इसीलिए येकेतेरिनबर्ग में वित्तीय स्थायित्व की बात जोरदार ढंग से की गई। लेकिन अगर मंदी न भी आई होती तो भी तेजी से उभर रही अर्थव्यवस्थाओं को एक मजबूत राजनैतिक लॉबी की जरूरत थी। इसलिए भी कि परंपरागत ताकतें उनके रास्ते में बाधा न बनें और इसलिए भी कि वे बाकी दुनिया के सामने अपना पक्ष रख सकें। यह काम न जी-7 या जी-20 जसे संगठनों के भरोसे हो सकता था और न विश्व व्यापार संगठन के भरोसे।

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