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यूपी में खूब थे बदलाव के बीज

पन्द्रहवीं लोकसभा के चुनाव में उत्तर प्रदेश में मृतप्राय कांग्रेस पार्टी की भारी सफलता ने (उसने 6सीटों पर अकेले चुनाव लड़ा और 18.25 प्रतिशत वोट पाकर 21 सीटें जीतीं) विशेषज्ञ-विश्लेषकों और खुद...

 यूपी में खूब थे बदलाव के बीज
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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पन्द्रहवीं लोकसभा के चुनाव में उत्तर प्रदेश में मृतप्राय कांग्रेस पार्टी की भारी सफलता ने (उसने 6सीटों पर अकेले चुनाव लड़ा और 18.25 प्रतिशत वोट पाकर 21 सीटें जीतीं) विशेषज्ञ-विश्लेषकों और खुद कांग्रेस को भी चौंकाया है। करीब एक मास चले मतदान के पाँच चरणों के दौरान कांग्रेस के पक्ष में अण्डरकरण्ट को लगभग सभी महसूस तो कर रहे थे, लेकिन इतनी बड़ी सफलता का आकलन कोई नहीं कर पाया था। नतीजे आने के बाद अब यह साफ दिखता है कि कांग्रेस की इस अप्रत्याशित विजय के बीज प्रदेश की जमीन में काफी संख्या में मौजूद थे और वे एकाएक प्रकट नहीं हुए थे। दो साल पहले, 2007 के विधानसभा चुनावों में यूपी की जनता ने मायावती के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी को सिर-आँखों पर बैठाया था। बहुजन समाज पार्टी ने इसे अपनी ‘सोशल इंजीनियरिंग’ का कमाल बताया था। सोशल इंजीनियरिंग यानी दलितों और सवर्णो, विशेषकर ब्राहमणों की राजनीतिक एकजुटता जिसमें मुसलमानों और अन्य पिछड़े वर्गो की भी थोड़ी-बहुत भागीदारी थी। यह व्याख्या इतनी हिट हुई कि समाज-विज्ञानियों ने भी इस पर मुहर लगा दी। इस फामरूले का भी योगदान जरूर रहा होगा, लेकिन 2007 में बसपा की आशातीत सफलता मूलत: मुलायम सरकार के कुशासन का परिणाम थी। राज्य की त्रस्त जनता-सुशासन चाहती थी और विकल्प के रूप में सिर्फ मायावती दिखाई दे रही थीं, क्योंकि कांग्रेस और भाजपा परिदृश्य से बाहर ही थीं। फिर, जनता को मायावती में एक सख्त प्रशासक भी दिखाई देता था और प्रदेश को अपराधियों से मुक्त करने का उनका नारा बड़ी उम्मीदें जगा रहा था। इसलिए बसपा की वह जीत सिर्फ दलितों-ब्राह्मणों की गठजोड़ की विजय न होकर प्रदेश की बहुमत जनता की उम्मीदों की जीत थी। शुरुआती महीनों में मायावती ने अपराधियों के खिलाफ कड़ा रवैया अख्तियार किया, जिसकी खूब सराहना हुई। लेकिन दो साल पूरा होते और लोकसभा चुनाव आते-आते जनता की उम्मीदें कई कारणों से टूटने लगीं। नेतृत्व को सोशल इंजीनियरिंग की ही याद रही और उसी बूते लोकसभा चुनाव में अधिकाधिक सीटें जीतने की रणनीति पर ही सारा ध्यान रहा। जनता के बीच बढ़ती बेचैनी और आलोचनाओं की अनदेखी हुई। प्रसिद्ध दलित चिन्तक चन्द्रभान प्रसाद ने इस पर सटीक प्रकाश डाला है (देखें ‘मायावती के लिए पाँच बातें’, हिन्दुस्तान, 17 मई 200इसलिए यहाँ उन्हें दोहराने की जरूरत नहीं । इतना कहना काफी होगा कि बसपा सरकार के दो साल में ही जनता का एक बड़ा हिस्सा निराशा में दूसरा विकल्प भी देखने लग गया था। प्रदेश में बसपा के अलावा सपा ही दूसरी बड़ी राजनीतिक ताकत थी। लेकिन दो साल पहले ही जिस सपा की सरकार को अपदस्थ किया गया था, वह इतनी जल्दी जनता की पसन्द नहीं बन सकती थी। दूसरे, खुद समाजवादी पार्टी में दो बड़े खोट नजर आने लगे थे। पहला यह कि उसमें आन्तरिक झगड़े विद्रोह के स्तर तक पहुँच गए थे। मुलायम सिंह की सबसे बड़ी शक्ित मानी जाने वाली सांगठनिक क्षमता को चुनौती मिल रही थी और वे मौन थे। दूसरे, व्यापक मुस्लिम समाज में यह बात घर करने लगी कि सपा उनके वोटों पर अपना एकाधिकार मान बैठी है। मुस्लिम बुद्धिजीवी सभाओं-सम्मेलनों में यह बात जोर देकर कहने लगे थे कि मुसलमान सिर्फ वोट बैंक नहीं हैं और हिन्दू साम्प्रदायिकता का हौव्वा दिखाकर भाजपा को हराने की जिम्मेदारी हर बार सिर्फ उनके कन्धों पर नहीं डाली जा सकती। बढ़ते आतंकवाद की आड़ में मुसलमानों को कटघरे में खड़ा करने की प्रवृत्ति ने भी इस समाज में बड़ी उथल-पुथल मचाई और उनमें अपनी अस्मिता के लिए खड़ा होने की बेचैनी पैदा हुई। उलेमा काउंसिल जसी पार्टी का उदय इसका गवाह हैं। इस पृष्ठभूमि में मुसलमानों का बड़ा हिस्सा समाजवादी पार्टी से छिटक रहा था। मुलायम सिंह को इसका खूब अंदाजा था और बाबरी ध्वंस के खलनायक कल्याण सिंह को गले लगाने का दुस्साहस भी वे इसीलिए कर सके कि इस नुकसान की भरपाई लोध वोटों से हो सकेगी और कुछ हद तक हुई भी। तो, लोकसभा चुनाव के मौके पर उत्तर प्रदेश की जनता इस तरह की बेचैनियों से गुजर रही थी। यह छटपटाहट जाति-धर्म और क्षेत्र की राजनीति के लम्बे दौर के विरोध में एक लहर पैदा कर रही थी। लोग राष्ट्रीय मुद्दों और राष्ट्रीय दलों के बारे में चर्चा करने लगे थे। भारतीय जनता पार्टी इस वैक्यूम को भर सकती थी। लेकिन उसमें न तो नेतृत्व की कोई ताजगी थी और न ही मुद्दों का आकर्षण। न आडवाणी में कोई चार्म है, न प्रदेश नेतृत्व में। वरुण के जहर-बाणों से पीलीभीत जीता जा सकता था, उत्तर प्रदेश या देश नहीं। इसके विपरीत कांग्रेस बेहतर पायदान पर खड़ी थी। इस बात से शायद ही कोई असहमत होगा कि 2004 से 200े पूरे दौर में सोनिया गांधी ने अपने को क्रमश: जिम्मेदार, निष्ठावान और समर्पित राष्ट्रीय नेता के रूप में विकसित किया। मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने साफ-सुथरी छवि बनाए रखी। भ्रष्टाचार की ढेरों शिकायतों के बावजूद ‘नरेगा’ ने गरीब-गुरबों की देश भर में मदद की और किसानों की ऋण-माफी का गाँव-गाँव बहुत अच्छा संदेश गया। इसी के साथ कांग्रेस पार्टी में एक बड़ा परिवर्तन हो रहा था। जिस कांग्रेस को नरेन्द्र मोदी ने ‘बूढ़ी’ कहा, वह राहुल-ब्रिगेड के बढ़ते प्रभाव से जनता को वास्तव में जवान और नई होती लग रही है। युवा पीढ़ी के वोटरों से राहुल आदि का बेहतर तादात्म्य बनने लगा। पिछले कुछ चुनावों से सिर्फ भीड़ खींचू साबित हो रहे सोनिया, प्रियंका और राहुल अब वोट कमाऊ भी बन गए। राहुल उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी को अपने पैरों पर खड़ा करने की कोशिश कर ही रहे थे। सपा और कांग्रेस दोनों की इच्छा के बावजूद चुनावी तालमेल न हो पाना, कांग्रेस के लिए सौभाग्य बनकर आया। पृष्ठभूमि में धीरे-धीरे जो शून्य उपजा था, उसे भरने के लिए कांग्रेस जनता की पसन्द बनने लगी। यूपी में मायावती की बसपा और मुलायम की सपा अब भी बड़ी ताकत हैं। बसपा की उम्मीदें जरूर टूटीं, लेकिन उसके वोट 2.75 प्रतिशत बढ़े हैं। उसे कमजोर मानना बड़ी भूल होगी। लेकिन मतदाता ने कांग्रेस को तीसरी बड़ी शक्ित बनाकर उन्हें चेतावनी जरूर दी है कि वास्तविक विकास के बिना जाति की राजनीति बहुत दूर तक साथ नहीं देगी। प्रदेश में बीस साल बाद कांग्रेस के प्राण लौटे हैं। जाति व क्षेत्र की संकीर्ण राजनीति से ऊपर उठकर स्थिरता और विकास की जनता की उम्मीदों को वह कैसे पोसती है-यही अब उसकी चुनौती होगी। ठ्ठड्ड1द्गद्गठ्ठद्भoह्यद्धन्ञ्चद्धन्ठ्ठस्र्ह्वह्यह्लड्डठ्ठह्लन्द्वद्गह्य.ष्oद्वड्ढr लेखक हिंदुस्तान लखनऊ के वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं

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