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जब कानून में समाज शामिल नहीं होता

अवैध की अवधारणा कानून बदलने से बदल सकती है। केन्द्र सरकार ने एक और अधिसूचना जारी कर दी है दिल्ली में सीलिंग को फिर से खोला जाएगा। यानी अवैध की अवधारणा समय और राजनीति सापेक्ष है। इसका कानून से कोई...

 जब कानून में समाज शामिल नहीं होता
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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अवैध की अवधारणा कानून बदलने से बदल सकती है। केन्द्र सरकार ने एक और अधिसूचना जारी कर दी है दिल्ली में सीलिंग को फिर से खोला जाएगा। यानी अवैध की अवधारणा समय और राजनीति सापेक्ष है। इसका कानून से कोई संबंध नहीं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद पूरी दिल्ली में हाहाकार मचा। सबने कहा कि अतिक्रमण मजबूरी में किया। अदालत ने कहा कि गैरकानूनी है, सरकार ने कहा लोग परेशान हैं। शीला दीक्षित ने कहा मुझे परवाह नहीं। अगर लोग परेशान हैं तो दूर होनी चाहिए। काश केंद्र सरकार रिश्वत लेने से रोकने के सभी कानूनों को बदल देती। कह देती कि ये मजबूरी में किया गया अपराध है। महंगाई और जनसंख्या के बढ़ने से इंसान रिश्वत ले लेता है। एक और कानून है सूचना का अधिकार। लगा कि लोगों के पास सूचनाएं आ जाएंगी तो राज्य खुद नियम पर चलेगा। अफसर गलत नहीं करेंगे। कई लोग हैं, जो सूचना के अधिकार के तहत दस्तावेज हासिल कर घूमते मिल जाते हैं। सहारनपुर के एक किसान योगेश दहिया ने सूचना के अधिकार के तहत एक महत्वपूर्ण जानकारी हासिल की। 1से एक कानून है कि अगर चीनी मिल गन्ने का भुगतान पन्द्रह दिन के भीतर भुगतान नहीं करे, तो उन्हें किसानों को ब्याज देना पड़ेगा। योगेश दहिया को प्रशासन ने एक जानकारी दी है कि पिछले एक साल में चीनी मिल का सहारनपुर के किसानों पर तीस करोड़ का बकाया है। अब एक किसान के पास जानकारी तो आ गई, लेकिन उसका क्या हुआ। वो जिले के कमिश्नर, एसपी, प्रेस और चीनी मिल के मैनेजर सबको वह कागज दिखा चुके हैं। कानून होते हुए भी बेअसर। लगा कि सिर्फ सूचना काफी नहीं है कानून का राज कायम करने के लिए। कुछ वैसा ही है, जैसे कभी आफ द रिकॉर्ड ऑन द रिकॉर्ड होता जाता है और लोग हैरान नहीं होते कि हां पहले से ही पता था। नया क्या है? कारण शायद यह है कि हम कानून का पालन करने वाले नागरिक समाज में नहीं तब्दील हो पाए हैं। किसी वेद पुराण में भी नहीं है कि कानून तोड़ने से नरक मिलेगा। शास्त्रवर्णित तमाम तरह के पाप कर्मों में कानून तोड़ने का जिक्र नहीं है और अगर है भी तो धर्माचायरे के कानून का पालन को नैतिकता का मुद्दा नहीं बनाया। आजाद भारत के लोगों को अपने बनाए कानून पर चलने का अनुभव साठ साल ही पुराना है। हर मसले पर कानून है, मगर कानून से किसी भी मसले को खत्म नहीं किया जा सका। कानून का भी हाल मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम जैसा है। हम इतना तो गर्व कर ही सकते हैं कि हमने कानून को कुछ इज्जत बख्शी है। हम सैनिक शासन की तरफ नहीं गए। हमने संविधान का पालन किया है। इसके आगे राज्यपाल से लेकर द्वारपाल तक सबने कानून तोड़ने में जो नागरिक भूमिका निभाई है वह सब जानते हैं। राज्य कानून बनाकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेता है। उसे लागू करने के लिए पुलिस तैनात कर देता है। भूल जाता है कि समाज को भी शामिल करना है। समाज में महिलाआें की क्या स्थिति है, सब जानते हैं। भ्रूणहत्या से लेकर बलात्कार तक। हम इसके खिलाफ कानून बना रहे हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग ने कहा कि यौन उत्पीड़न के विरुद्ध तमाम कानूनी प्रावधान अपर्याप्त हैं। नया कानून चाहिए। महिला विदेशी सैलानियों से होने वाले बदसलूकियों को रोकने के लिए अलग से सुरक्षा बल बनाए जाएं। मगर समाज में जो विकृति है उसका सामना कैसे करें, इसका जिक्र नहीं है। हमारा समाज कानून को प्रभावी बनाने के लिए बहस नहीं करता। कुछ साल पहले हरियाणा में विरोधी दल की एक रैली में आए कुछ लोगों से मैंने पूछा कि क्या सरकार अच्छा काम कर रही है? आपको नहीं लगता कि आपके विरोध को जनता समर्थन नहीं देगी। तो लोगों ने कहा,‘हम किसलिए हैं। हम सरकार के कामों को फेल करा देंगे।’ हमारा समाज हर कानून को फेल करा दे रहा है। वह इस पर चलने का नैतिक माहौल नहीं बनाता। चुपके से बालकनी पर कमरा बना लेता है। सड़क पर कार पार्क कर देता है। रेड लाइट जंप कर पत्रकार को फोन करता है कि जरा इस ट्रैफिक पुलिस का दिमाग ठीक कर दो। लोग घर तक आकर कह जाते हैं कि मंत्री को जानते हैं? हम कितने कानून बनाएंगे? जब तक नागरिक समाज नहीं बनाएंगे, तब तक कानून का क्या होगा सब जानते हैं। बलात्कार की मानसिकता किसी कानून के अभाव में नहीं पनपती। यह महिला आयोग को भी यह मालूम है।ं

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