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लोकलुभावन बजट की तिरछी लकीरें

लोकलुभावन और लोकप्रियतावादी- वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने शुक्रवार को लोकसभा में अगले वित्त वर्ष का जो बजट पेश किया, उसकी सबसे अच्छी व्याख्या इन्हीं दो शब्दों से ही हो सकती है। इस बजट की नार अगले आम...

 लोकलुभावन बजट की तिरछी लकीरें
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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लोकलुभावन और लोकप्रियतावादी- वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने शुक्रवार को लोकसभा में अगले वित्त वर्ष का जो बजट पेश किया, उसकी सबसे अच्छी व्याख्या इन्हीं दो शब्दों से ही हो सकती है। इस बजट की नार अगले आम चुनाव पर है। सारे प्रावधान, सारी घोषणाएं लगता है इसी को ध्यान में रखकर की गई हैं। कृषि, शिक्षा और स्वास्थ्य के जिस तरह से भारी प्रावधान किए गए हैं, वे भी यही बताते हैं कि यह हर तरह के मतदाता को खुश करने की कोशिश है। बजट में हुई ढेर सारी घोषणाआें में सबसे ज्यादा जिक्र के काबिल है किसानों की कर्ज माफी। इस एक कदम के जरिए कर्ज से दबे किसानों को तत्काल राहत दे दी गई है, लेकिन इसके लिए किए गए साठ हजार करोड़ रुपए के प्रावधान से कृषि की मूल समस्याआें का कोई हल नहीं निकलेगा। यह पूरा प्रावधान ही नॉन परफॉरमिंग हैं। इससे न तो कृषि की उत्पादकता बढ़ेगी और न किसानों को ही कोई दीर्घकालिक लाभ मिलेगा। उल्टे किसानों को एक नुकसान ही होगा कि अगले कुछ समय तक बैंक उन्हें कर्ज देने से बचेंगे। अगर इसी रकम का इस्तेमाल कृषि में किसी और तरह से किया जाता, तो शायद उसका फायदा सभी तरह के किसानों को मिल पाता, तब उसका असर भी दीर्घकालिक होता। यह ठीक है कि चिदंबरम के इस बजट में कृषि के लिए प्रावधान बढ़ाए गए हैं, लेकिन इसमें ऐसा कोई नीतिगत फैसला नहीं किया गया, जिससे कृषि की उत्पादकता बढ़ने का सिलसिला शुरू होता या फिर किसान भविष्य में इतने गहरे आर्थिक संकट का शिकार होने से बच पाते। लगभग यही शिक्षा में भी हुआ है। प्रावधान इसके लिए भी बढ़ाए गए हैं। नए संस्थान खोलने की भी बात की गई है, कुशलता और दक्षता बढ़ाने के इंतजाम भी किए गए हैं। बदलते समय की जरूरतों को देखते हुए ये सारे फैसले काफी महत्वपूर्ण है। लेकिन इस सारी कोशिश में शिक्षा व्यवस्था में सुधार की बात को नजरंदाज कर दिया गया है। सरकार से शिक्षा क्षेत्र में कई नीतिगत बदलावों की उम्मीद थी, लेकिन बजट उन सबकी आेर कोई इशारा नहीं करता है। एक अर्से से शिक्षा में निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ाने की बात चल रही है। शिक्षा के लिए नियामक संस्था बनाने की मांग भी हो रही है। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग इन दोनों की सिफारिश भी कर चुका है, लेकिन बजट में इसके लिए कुछ नहीं है। इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए भी भारी प्रावधान किए गए हैं। यह ऐसा क्षेत्र है, जो हमारे सारे विकास की रीढ़ है और अगर इन्फ्रास्ट्रक्चर को नजरंदाज किया गया, तो हमारी विकास दर आगे और बढ़ेगी तो खैर नहीं ही, उसे बरकरार रखना भी मुश्किल हो जाएगा। बजट में इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़े हुए कई महत्वपूर्ण मुद्दों की आेर ध्यान ही नहीं दिया गया है। इस क्षेत्र के लिए हमारे पास न तो कोई नियामक व्यवस्था है और न ही विवादों के निपटारे का कोई इंतजाम। पर बजट में इसकी चिंता नहीं दिखाई देती। इन्फ्रास्ट्रक्चर में निजी और सरकारी सहयोग के पहले के सभी प्रयोग खासे सफल रहे हैं, पर इस बजट में इस सहयोग को बढ़ाने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है। हालांकि वित्तमंत्री को इस तरह के प्रावधान रखने में बहुत ज्यादा दिक्कत नहीं हुई होगी, क्योंकि राजस्व संग्रह बढ़ने की वजह से सरकार का खजाना भरा हुआ है और इस भरे खजाने ने ही उन्हें करों में राहत और रियायत देने का मौका भी दे दिया। निजी आयकर के मामले में जो बदलाव हुए हैं, वे स्वागतयोग्य हैं। छठे वेतन आयोग की सिफारिशें आने वाली हैं, उसे देखते हुए टैक्स स्लैब में बदलाव किया जाना जरूरी भी था। अब बेहतर यही होगा कि इस तरह से हर कुछ समय बाद स्लैब बदलने के तरीके से मुक्त हुआ जाए और इन स्लैब को मुद्रास्फीति से जोड़ दिया जाए। उत्पाद शुल्क को 16 से घटाकर 14 फीसदी कर दिया गया। यह दरअसल उत्पाद शुल्क के पुराने तरीके से गुड्स एंड सर्विसेा टैक्स की आेर जाने की दिशा में लिया गया कदम है। वित्तमंत्री ने ऑटो और दवा जैसे कई उद्योगों की जरूरतों को देखते हुए कई रियायते दी हैं, जो स्वागतयोग्य हैं। वित्तमंत्री ने कारपोरेट कर में कटौती नहीं की जो अच्छी बात है। अर्थव्यवस्था अच्छी तरह से चल रही है और कंपनियां मुनाफा कमा रही हैं, ऐसे में कर कम करने का कोई बहुत बड़ा दबाव भी नहीं है, लेकिन इसके साथ ही यह भी देखना जरूरी है कि सरकार की राजस्व आय खासी बढ़ी है, इसलिए वह इस मौके का इस्तेमाल कर ढांचे को तर्कसंगत बनाने के लिए कर सकती थी। कारपोरेट टैक्स पर जो तरह-तरह के सेस और सरचार्ज लगाए गए हैं, उन्हें हटाया जा सकता था। लेकिन वित्तमंत्री ने इस मौके को गवां दिया। चुनाव के दबाव के कारण इस बजट में वित्तमंत्री ने अपनी कुछ पुरानी प्रतिबद्धताआें को नजरंदाज कर दिया है। मसलन वित्तीय और राजस्व घाटे को कम करने के लिए कुछ नहीं किया गया। इसका कोई रास्ता निकालने के बजाए पूरे मसले को 13वें वित्त आयोग के हवाले कर दिया गया। इसके अलावा बढ़ते सब्सिडी बिल के लिए कुछ नहीं किया गया, हालांकि उसे तर्कसंगत बनाने की बात लगातार एक लंबे अर्से से की जा रही थी। खाद्य और उर्वरक सब्सिडी तो अपनी जगह जस की तस है ही, तरह तरह की ढकी-छुपी सब्सिडी की चिंता इस बजट से नदारद है। सरकार पेट्रोलियम पदार्थो वगैरह कई चीजों के लिए समय-समय पर बांड जारी करती है, इन बांड के अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले असर के बारे में कोई भी बात नहीं कही गई है। अच्छी बात यही है कि लोकलुभावन होने के बावजूद यह बजट कहीं भी विकास को रोकता नहीं है। इसकी नजर भले ही चुनाव पर है, लेकिन यह उदारीकरण के उस सिलसिले को भी मोटे तौर जारी रख रहा है, जिसने हमें तरक्की के इस मोड़ पर पहुंचाया है।ं

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