ब्रेन गेन की इस लहर को हमें समझना होगा
पिछले पंद्रह बरसों में हमारी अर्थव्यवस्था राष्ट्र की सीमा से लगातार आगे बढ़ी और अंतर्राष्ट्रीय होती गयी है और जैसे-जैसे दुनिया की अर्थव्यवस्था में भारत की केंद्रीय पैठ बढ़ी है, बजट के साथ-साथ चलने...
पिछले पंद्रह बरसों में हमारी अर्थव्यवस्था राष्ट्र की सीमा से लगातार आगे बढ़ी और अंतर्राष्ट्रीय होती गयी है और जैसे-जैसे दुनिया की अर्थव्यवस्था में भारत की केंद्रीय पैठ बढ़ी है, बजट के साथ-साथ चलने वाला रहस्य और डर का कुहासा भी छंटता गया है। हमारी समाजवादी मिश्रित अर्थव्यवस्था पचास बरस तक कायम रही, लेकिन न्यायसंगत समाजवाद वह नहीं ला सकी, इसलिए बिना समारोह के वह बुझ गयी। नये आर्थिक सुधारों की रफ्तार बढ़ने के साथ ही देश की जनता देख पा रही है कि बहुनिंदित अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवाद पश्चिम के कई देशों में राष्ट्रीय परिसरों में एक न्यायसंगत पूंजीवाद लाने में कामयाब रहा है, जिसके कारण वहां सभी देशवासियों का जीवनस्तर बढ़ा और निपट गरीबी में रहनेवालों की तादाद में नाटकीय कमी आयी। यह सचाई अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ियों से अधिक ईमानदारी के साथ आज के दोनों बड़े दलों कांग्रेस और भाजपा के नेताआें ने भी कमोबेश स्वीकार कर ली है। नतीजतन गठबंधन-राजनीति के तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद भारतीय मूल के अनेकों उपक्रमी मेधावी छात्र और बड़ी ग्लोबल कंपनियां ब्रेन-ड्रेन को उलटा करते हुए भारत में पैर जमा कर ब्रेन-गेन का माहौल बना रही हैं। इसी से आज केंद्रीय बजट का जितना महत्व भारतीय कंपनियों के लिए है उतना ही भारत में काम कर रही ग्लोबल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भी। अगर आज के दिन योरोप और अमरीका के वित्तीय संस्थान भी अपने चार्टर्ड अकाउंटेंटों और टैक्स एक्सपर्ट्स के दस्तों सहित टीवी पर भारतीय बजट की व्याख्या सुनने-देखने में जुटे हैं, तो वजह यह कि देश की 20 सबसे बड़ी कंपनियों के उत्पाद में 37 प्रतिशत भागीदारी उनकी भी है। केंद्रीय बजट से बड़े प्रावधानों के परे बजट के दिशा-निर्देशों में छिपी कई और सूक्ष्म ध्वनि तरंगें ऐसी हैं, जिनका उपयोग यह तमाम कम्पनियां आनेवाले दिनों में भारतीय उपक्रमों की वृहत्तर आर्थिक दिशा-दशा को भांपने और उसके अनुसार अपनी कंपनी की नीतियां तै करने में करेंगी।ड्ढr जो लोग ग्लोबलाइजेशन के नाम से खौफ खाते हैं और सिर्फ सरकारी योजनाआें की मदद से गरीबी और निरक्षरता पर सफलतापूर्वक काबू करने का भ्रम पाले बैठे हैं, वे याद करें कि सालभर में नरेगा की मदद से गरीबों तक करोड़ों के सरकारी आवंटन का पूरा वितरण नहीं हो पाया। किसानों को दी गयी करोड़ों की लोन माफी भी अंतत: बहुत करके कुछ चुनावी वोट ही जुटा सकती है। कठोर और ईमानदार सचाई यही है कि पावभर जीरे में ब्रह्मभोज करने की सदिच्छा वाली सरकार की वर्तमान् ‘सेज’ या नरेगा जैसी योजनाएं भी बिना निजी क्षेत्र की भागीदारी के ग्रामीण उत्थान में बहुत दूर तक कारगर नहीं हो सकेंगी। अर्थव्यवस्था की तरक्की चार बातों पर टिकी होती है : उसके पीछे की संकल्पना, उसके भौतिक संसाधन, उन्हें चलाने वाले मानव संसाधन और पूंजी। आज की हमारी अर्थव्यवस्था के स्वरूप को देखते हुए बजट के प्रावधान को राजनैतिक नहीं आर्थिक तकरे के वैज्ञानिक आधार पर ही आगे बढ़ाना होगा। जोखिम भले ही जितना हो।ड्ढr शहरी निजी क्षेत्र की लक्ष्मी को देश के गांवों तक खींच कर ले आने का काम ही आज की तारीख में देश के नेतृत्व के आगे की असली चुनौती है। और बहुत सक्षम होते हुए भी वित्तमंत्री और उनका मंत्रालय अकेले अपने एक लोकलुभावन बजट के बूते इसे पूरी नहीं कर सकेंगे।ड्ढr लिहाजा अभी तो तेल देखें और तेल की धार देखें, और उम्मीद करें कि सरकार लोकप्रियता पाने की राजनैतिक इच्छा के साथ-साथ आर्थिक सुधारों की रफ्तार भी बनाये रखेगी।ं