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गुारे हैं लाख बार इसी कहकशाँ से हम

इसी एक अप्रैल को उर्दू दैनिक ‘कौमी आवाा’ बंद हो गया। ‘नेशनल हैरल्ड’ भी खत्म हुआ। इस प्रकाशन समूह के खत्म हो जाने के पीछे वाजिब वजहें जरूर होंगी, पर लखनऊ और आसपास के जिन लोगों के पास साठ और सत्तर के...

 गुारे हैं लाख बार इसी कहकशाँ से हम
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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इसी एक अप्रैल को उर्दू दैनिक ‘कौमी आवाा’ बंद हो गया। ‘नेशनल हैरल्ड’ भी खत्म हुआ। इस प्रकाशन समूह के खत्म हो जाने के पीछे वाजिब वजहें जरूर होंगी, पर लखनऊ और आसपास के जिन लोगों के पास साठ और सत्तर के दशक की यादें हैं, उन्हें तकलीफ हुई होगी। महत्वपूर्ण था, इन अखबारों का निर्भीक राष्ट्रीय स्वर। वह हैरल्ड था, जिसने आपात्काल की सेंसर-बाधा की परवाह नहीं की। हैरल्ड के साथ ‘कौमी आवाा’ को भी बंद होना था। यह देश का सबसे महत्वपूर्ण उर्दू अखबार था। हैरल्ड समूह की गर्दिश में भी वह देश के कोने-कोने में पढ़ा जाता था। उर्दू का था, इसलिए इसके ज्यादातर स्वाभाविक पाठक मुसलमान थे। उनके बीच सबसे संतुलित राष्ट्रीय और वैज्ञानिक समझदारी लेकर जाने वाला यह बेहतरीन अखबार था। इसके मास्टहैड के नीचे हर रोज छपता था बानी (संस्थापक) : जवाहर लाल नेहरू। ‘कौमी आवाा’ का बंद होना, एक दौर का खत्म हो जाना है। मुसलमानों, खासकर उत्तर भारत के मुसलमानों ने उर्दू की जगह हिन्दी को अपना लिया है। बावजूद इसके कि उनकी बातों को हिन्दी अखबारों में सीमित स्पेस मिल पाती है। जैसे राजनीति उन्हें वोट बैंक मानती है वैसे ही मीडिया उन्हें ईद-आे-मुहर्रम तक सीमित रखता है। इधर सच्चर-सिफारिशों के बाद से मुसलमानों के बाबत सरकारी बातें सुनाई पड़ने लगी हैं। पर ज्यादातर लोगों की समझ कहती है कि चुनाव करीब हैं। ‘कौमी आवाा’ की खबर छपने के चार रोज पहले केन्द्र सरकार ने अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों के लिए 3780 करोड़ रुपए की योजना लागू करने की घोषणा की। मोटी समझ कहती है, अल्पसंख्यक माने मुसलमान। आम मुसलमान पर ऐसी खबरों का कोई असर नहीं होता। उसके मन में ऐसे कार्यक्रमों को लेकर उत्साह कभी नहीं था। और उसे वोट की गोट बनने में भी मजा नहीं आता। उसे डर लगता है कि जरा-जरा सी बात पर कोई पुलिस वाला उसे घसीट कर न ले जाए। किसी एनकाउंटर स्पेशलिस्ट की नजर न लग जाए। बार एसोसिएशन फैसला करने लगी हैं कि वकील ‘आतंकवादियों’ के मुकदमे नहीं लड़ेंगे। दूसरी आेर आफताब जैसे नौजवानों के मामले आते हैं, जिन्हें गलती से आतंकवादी मान लिया गया। जब गलती का पता लगा तो किसी ने माफी तक नहीं मानी। इंटरनेट ने, खासतौर से ब्लॉगिंग ने, आम लोगों को अपनी बात कहने का रास्ता दिखाया है। ऐसी ही एक साइट है एन इंडियन मुस्लिम डॉट कॉम। इसमें मुसलमानों से जुड़े मसलों पर संजीदगी के साथ लिखी गई बातें पढ़ने को मिलती हैं। यहाँ कई ब्लॉगरों के लिंक हैं। आला दर्जे के शायरों की रचनाएं भी। इसी साइट पर हाल में पढ़ने को मिला कि ‘बीसवीं सदी’ बंद हो गई। यह खबर ‘कौमी आवाा’ से पहले की है। यह पत्रिका पैसे या प्रसार की तंगी की वजह से बंद नहीं हुई, बल्कि हिसाब-किताब के किसी घोटाले की शिकार हो गई। शायद यह भारत की सबसे पुरानी जीवित पत्रिकाआें में एक थी। बीसवीं से इक्कीसवीं सदी में भी यह उसी नाम से चल रही थी और खासी लोकप्रिय थी। हिन्दी में लोकप्रिय कहानियों की पत्रिकाआें का चलन खत्म हो चुका है। ‘बीसवीं सदी’ अफसानों, ग़ालों और नमों की पत्रिका थी। उर्दू में ‘शमा’ और हिन्दी में ‘सुषमा’ भी ऐसी पत्रिकाएं हुआ करती थीं। इनमें हिन्दी फिल्मों की कहानियाँ भी होती थीं। बहरहाल सात दशक तक चलने के बाद ‘बीसवीं सदी’ भी खत्म हो गई। ये पत्रिकाएं घर-परिवार में पढ़ी जाती थीं और इनके सहारे एक संस्कृति चलती थी। एक घर से दूसरे घर में जाती थीं। बदले में दूसरे घर से कोई पत्रिका या पॉकेट बुक आती थी। मध्यवर्गीय हिन्दू और मुस्लिम परिवारों में हिन्दी-उर्दू रिसाले पढ़े जाते थे। हाल में देश के डाक विभाग ने उर्दू के रूमानी-इंकलाबी शायर मजाा पर टिकट जारी करके चौंका दिया। असरार-उल-हक ‘मजाा लखनवी’ विलक्षण शायर थे। मजाा आज के भग्न हृदय मुसलमान नौजवानों के मन की कहानी कहते हैं। उसकी बेचैनी और बेकरारी बताती है ‘आवारा’ जैसी बेहतरीन नम:-ड्ढr शहर की रात और मैं नाशादो-नाकारा फिरूँड्ढr जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँड्ढr गैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँड्ढr ऐ गमे-दिल क्या करूँ, ऐ वहशते-दिल क्या करूँ उर्दू शायरी में इश्क-मुश्क और शराब बहुत है। इंकलाब भी। इन सबके बीच जमाने से एक शिकायत, एक तकलीफ, एक खामोशी भी इसमें छिपी है। मजाा अपने ग़मों की नुमाइश नहीं करते, पर उनकी जैसी तड़प कहीं और नहीं मिलती। विचार, भाषा और संस्कृति के उच्चस्तरीय मेल की प्रतीक है उर्दू। शायद वह अपने इस रूप में कायम न रहे, पर किसी न किसी रूप में तो रहेगी। उर्दू के मन में दर्द है। वह दर्द आम मुसलमान का है। पिछले साल हमने 1857 की डेढ़ सौवीं सालगिरह मनाई। यह मौका था, जब मुसलमानों और हिन्दुआें की एकता को रेखांकित किया जाता। जो कुछ भी हुआ, उससे बेहतर भी हो सकता था। हमारे पाठकों में से काफी लोगों के लिए ‘कौमी आवाा’ या ‘बीसवीं सदी’ का कोई मतलब नहीं। मजाा को भी वे नहीं पहचानते। शुद्ध हिन्दी प्रेमियों को तो उर्दू शब्द काटने को दौड़ते हैं। क्या ऐसा होना ठीक है? 1में ग़ालिब की जन्म शताब्दी भारत सरकार ने मनाई। तब मुम्बई में हुए एक समारोह में साहिर ने एक नम पढ़ी, जिसे सुनकर काफी लोग चौंके। लोगों को उम्मीद थी कि ग़ालिब की तारीफ में साहिर कुछ कहेंगे। साहिर ने कहा:-ड्ढr जिस अहदे सियासत ने, यहोिन्दाोबाँ कुचलीड्ढr उस अहदे सियासत को मरहूमों का ग़म क्यों हैड्ढr गालिब जिसे कहते हैं, उर्दू ही का शायर थाड्ढr उर्दू पे सितम ढाके, ग़ालिब पे करम क्यों है यह लम्बी नम है। इसके पीछे की व्यथा सिर्फ उर्दू की नहीं समूची संस्कृति की है। एक अर्से तक हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों की बातचीत दबे-ाबान होती थी। बाबरी विध्वंस के बाद सदमे, दहशत, विचारोत्तेजना और अंतर्विरोधों की आंधियाँ चलीं। गदर्ो-गुबार बैठने के बाद भी संजीदा बातचीत नहीं हुई। हिन्दी फिल्मों में शाहरुख, आमिर, अरबाज और तमाम हीरो हैं, पर फिल्मों के पात्र मुसलमान कम ही होते हैं। मुस्लिम सोशल फिल्मों में होते थे तो सब मुसलमान होते थे। ‘गर्म हवा’ शायद पहली संजीदा फिल्म थी। ‘रंग दे बसंती’ में एक मुसलमान पात्र है। उसकी सहज मनोदशा भी है, पर आम फिल्मों में मुसलमान पात्र कम होते हैं। हाल में किसी टीवी चैनल पर खबर थी कि किसी अपार्टमेंट में मुसलमान के मकान खरीदने पर बाकी निवासी नाखुश थे। सच यह है कि तमाम मुसलमानों के पूर्वज यहाँ तब से रह रहे हैं, जब यहाँ न हिन्दू होते थे और न मुसलमान। फिर भी न जाने क्यों बेगानापन है। लेखक हिन्दुस्तान, दिल्ली संस्करण के वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं

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