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महंगाई से निपटने के आठ तरीके

मुद्रास्फीति अब एशियाई चिंता का विषय है। एशियाई विकास बैंक की इस साल की सालाना रिपोर्ट में कहा गया है कि इस साल एशिया की विकास दर सुस्त रहेगी और मुद्रास्फीति को दुरुस्त रखना सबसे बड़ी चुनौती होगी।...

 महंगाई से निपटने के आठ तरीके
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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मुद्रास्फीति अब एशियाई चिंता का विषय है। एशियाई विकास बैंक की इस साल की सालाना रिपोर्ट में कहा गया है कि इस साल एशिया की विकास दर सुस्त रहेगी और मुद्रास्फीति को दुरुस्त रखना सबसे बड़ी चुनौती होगी। मध्य एशिया में मुद्रास्फीति दहाई अंक को पार कर सकती है। और चीन में कड़ी मुद्रानीति के बावजूद यह चिंता का कारण बनी रहेगी। इसकी वजह से बैंकों के रिार्व बढ़ाए जाएंगे और निर्यात व निवेश से हुए विकास की हवा निकलेगी। एशियन डेवलपमेंट आउटलुक- 2008 शीर्षक इस रिपोर्ट में कहा गया है कि एशिया में मुद्रास्फीति के लगातार बढ़ते जाने का खतरा दिख रहा है और इस पर ध्यान देने की जरूरत है। यह हो सकता है कि सबसिडी, मूल्य नियंत्रण और सीमा शुल्क में कटौती की वजह से इसका दबाव कुछ कम दिखाई पड़े। और जगह कुछ भी हो पर भारत में शायद यही होगा।ड्ढr हम जानते हैं कि कम आमदनी वाले देशों में मुद्रास्फीति हर तबके को तकलीफ देती है, लेकिन सबसे ज्यादा परशान शहरी और ग्रामीण गरीबों को करती है। और इस तबके पर सबसे ज्यादा असर खाद्यान्न की कीमत बढ़ने का पड़ता है। जो थोड़ी बेहतर स्थिति में हैं वे कुछ अन्य खचरें में कटौती करके खाने-पीने की अपनी आदतों को बरकरार रखते हैं। लेकिन गरीब लोगों के पास यह विकल्प भी नहीं होता, क्योंकि उनकी आमदनी का ज्यादातर हिस्सा इसी में स्वाहा हो जाता है। यानी गरीबों को अपने भोजन में कटौती करनी पड़ती है, जिसका उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है।ड्ढr 22 मार्च को खत्म होने वाले हफ्ते के लिए मुद्रास्फीति का आंकड़ा सात के अंक पर था। अब इसमें यह बात छिप जाती है कि हमार थोक मूल्य सूचकांक में प्राथमिक वस्तुओं की हिस्सेदारी महा 22 फीसदी है, जबकि औद्योगिक वस्तुओं की 63.7 फीसदी। फलों, सब्जियों, खाद्य तेल, दालों और अनाज के दाम ज्यादा तेजी से बढ़े हैं। यानी खाने-पीने के सामान की महंगाई इन आंकड़ों से ज्यादा है। अगर इस महंगाई पर काबू पाना है तो फिलहाल आठ कारण हैं जिनका ध्यान इस समय दिया जाना जरूरी है। पहला तो यह कि हमने बाजार की जरूरत के हिसाब से बुद्धिमानी का परिचय नहीं दिया। यह काफी समय से ही स्पष्ट था कि विश्व खाद्य परिदृश्य लगातार बदतर होता जा रहा है। आस्ट्रेलिया में लगातार कई साल से पड़ रहा सूखा, गेहूं और चावल के भंडारों का कम हो जाना और फिर दुनिया भर में इनके बजाय एथनॉल और बॉयोडीाल के लिए खेती पर जोर दिए जाने जसी बातों में कुछ भी ऐसा नहीं है जो हमसे छुपा था। अगर समय रहते इन पर ध्यान दिया जाता तो हम अपनी जरूरत के लिए तब आयात कर सकते थे। उस समय कीमतें आज के मुकाबले काफी कम थीं। यह वह समय था जब भारत और चीन की बढ़ती मांग के सामने आपूर्ति की बाधा नहीं थी। हमार खुद के खाद्य निगम और राज्य सरकारों के भंडार में खाद्यान्न कम होता गया। फिर दुनिया के ट्रेंड पर ध्यान दिए बिना हम चावल और गेहूं का निर्यात करते रहे। खाद्य प्रबंधन की सही रणनीति के लिए फूड इंटेलीजेंस बहुत जरूरी है, लेकिन अभी तक हमने इसका जरा भी परिचय नहीं दिया। दूसरे यह कि कुछ खास चीजों पर आयात शुल्क में कटौती करने और कुछ चीजों के निर्यात पर पाबंदी लगाने जसे कदम तत्काल फायदा ही देते हैं। वे कृषि उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने का विकल्प नहीं हो सकते। हमें खाद्यान्न, दालों, तेल, फल, सब्जी, डेयरी उत्पाद और मीट उत्पाद सभी का उत्पादन बढ़ाना होगा। देश में सकल घरलू उत्पाद और इसकी वजह से प्रति व्यक्ति आमदनी बढ़ने से हमार उपभोग का पैटर्न बदला है और इसके चलते बाजार में नई मांग भी पैदा हुई है। अगर सिर्फ प्रोटीन को ही लें तो देश में शाकाहारी और मांसाहारी दोनों ही तरह की प्रोटीन की खपत देश में बढ़ी है। इसकी वजह से भारत जो खाद्यान्न के भर भंडार वाला देश था अब वह खाद्यन्न की किल्लत वाला देश बन गया है। तीसरे यह कि फिलहाल सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत बनाने का कोई विकल्प नहीं है। इसे गरीबी की रखा के नीचे जीने वाले लोगों के वास्तविक आंकड़ों के हिसाब से आपूर्ति बढ़ाकर किया जा सकता है। राज्यों को आवश्वयक वस्तु अधिनियम के तहत कार्रवाई करने के लिए प्रोत्साहित करना भी जरूरी है। लेकिन इससे यह माहौल भी नहीं बनना चाहिए कि बाजार में बहुत किल्लत है। चौथे उन वित्तीय नीतियों को अपनाया जाना चाहिए, जो मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के लिए जरूरी हैं। जाहिर है इनसे निवेश और विकास दर पर असर पड़ेगा ही। पांचवे ऐसे तकनीक अपनानी होगी, जिससे अनाज के उत्पादन को हम लगभग दुगना कर सकें। बिहार जसे राज्यों में तो इसे तिगुना करने की जरूरत है। छठा कदम यह होना चाहिए कि हम खाने-पीने की चीजों की बरबादी को किसी भी तरह से रोकें। ऐसे तरीकों को तुरंत ही अपनाने की जरूरत है, जिससे फल और सब्जियां जल्दी खराब न हों। इसके लिए अगर ग्रामीण इन्फ्रास्ट्रक्चर सुधारने, बाजार तक सीधे, बिना किसी बाधा के पहुंच बनाने, और सूचनाओं के आदान-प्रदान की व्यवस्था कायम करने जसे कदम अगर उठाए जाएं तो आपूर्ति भी बढ़ाई जा सकती है और किसानों की आमदनी भी। सातवीं चीज यह है कि हमें अमेरिका की मंदी और दुनिया पर पड़ने वाले उसके असर को भी नजरंदाज नहीं करना चाहिए। इसकी वजह से बाकी दुनिया में भी विकास दर सुस्त पड़ेगी ही। जिसका नतीजा यह भी होगा कि इस साल के अंत तक गैर खाद्य वस्तुओं की मांग कम होने लगेगी। आठवीं और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आज की दुनिया में सभी देशों की परस्पर निर्भरता बढ़ी है। इसे किसी एक जगह अगर किसी चीज की किल्लत होती है तो बाकी जगह भी ऐसी ही मानसिकता बनती है। कीमतें बढ़ने के नतीजे खाद्य सुरक्षा के सवाल से कहीं ज्यादा आगे जा सकते हैं। इसका असर दूसरी चीजों की कीमतों खासकर निर्माण सामग्री वगैरह की कीमतों पर भी पड़ सकता है। ऐसा हुआ तो कई निजी और सार्वजनिक परियोजनाओं के बजट गड़बड़ाएंगे। मुद्रास्फीति को बर्दाश्त करने की भारत की क्षमता बहुत कम मानी जाती है। हम समय रहते बदलाव को आंकने, समझने और माकूल प्रतिक्रिया देने में नाकाम रहे हैं। यह महंगा साबित हो सकता है। महंगाई पर नकेल डालना और इसके रुख को मोड़ना कभी आसान भी नहीं होता। लेखक राज्यसभा सदस्य और जाने-माने अर्थशास्त्री हैं, वे के न्द्र सरकार में सचिव रह चुके हैं।

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