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भ्रष्टाचार की थकी-हारी लड़ाई

घपले-घोटाले अब लोगों को चौंकाते नहीं हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ चाहे जितना भी हो-हंगामा हो, नए-नए कानून बना दिए जाएं, किंतु धरातल पर उसका कोई ठोस परिणाम दिखाई नहीं पड़ता। उम्मीद भले ही कभी-कभी जाग जाए,...

भ्रष्टाचार की थकी-हारी लड़ाई
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 21 Dec 2014 09:53 PM
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घपले-घोटाले अब लोगों को चौंकाते नहीं हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ चाहे जितना भी हो-हंगामा हो, नए-नए कानून बना दिए जाएं, किंतु धरातल पर उसका कोई ठोस परिणाम दिखाई नहीं पड़ता। उम्मीद भले ही कभी-कभी जाग जाए, लेकिन आमतौर पर लोग भी अब मानकर चलते हैं कि कुछ होने वाला नहीं है। यह उनकी निराशा भर नहीं है, बल्कि यह उनका अब तक का अनुभव है। भ्रष्टाचार हटाने के नाम पर सत्ता में पहुंचने वाले अंत में भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा बन जाते हैं। लोकपाल की पिछली लड़ाई का नतीजा हमारे समाने है। लोकपाल कानून भी बन चुका है, हालांकि लोकपाल की नियुक्ति अभी होनी है। यह कानून लागू हो, इसके पहले ही उसकी खामियों की चर्चा शुरू हो चुकी है। इससे संदेह तो पैदा हो ही गया है कि भ्रष्टाचार को हटाने का नुस्खा कारगर होगा भी या नहीं? लेकिन लोकपाल भ्रष्टाचार को रोकने का अकेला कानून नहीं है। हमारे पास ऐसे बहुत सारे कानून हैं, फिर भी घोटाले रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। ये कानून कारगर तो नहीं ही हैं, भ्रष्ट लोगों में भय भी पैदा नहीं करते। उनका अनुभव यही है कि अंत में कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। उनकी करनी-धरनी का मूलमंत्र बड़ा सरल है- घूस लेते पकड़े जाओ, रिश्वत देकर बच जाओ।

ताजा मामला उत्तर प्रदेश के यादव सिंह का है, जिनके पास 1,000 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति का पता चला है। 12 करोड़ रुपये तो नकद मिले हैं। साथ ही मकान, प्लॉट, जमीन-जायदाद, ढेर सारी कंपनियां और न जाने क्या-क्या। कई अखबार यादव सिंह के किस्से-कहानियां पूरे चटखारे के साथ छाप रहे हैं। ये किस्से, जो उनकी निंदा कम करते हैं, उनकी अथाह दौलत का वर्णन ज्यादा करते हैं। वह एक जूनियर इंजीनियर के रूप में नियुक्त हुए और लगतार तरक्की पाते रहे। सरकारें आती-जाती रहीं, लेकिन यादव सिंह के ओहदे और दौलत में इजाफा होता रहा। उन्हें कई बार पद से हटाया भी गया, निलंबित भी किया गया, जांच भी हुई, लेकिन आखिर में बिगड़ा कुछ भी नहीं। यादव सिंह का मामला इस बात का उदाहरण है कि सरकारें किस तरह से काम करती हैं? एक-दूसरे पर आरोप लगाने वाली राजनीतिक पार्टियां आखिर में कहां पहुंचती हैं? और भ्रष्टाचार किस तरह चलता रहता है? यहां तक कि काले धन को रोकने वाली व्यवस्थाएं भी मूकदर्शक बनी रहती हैं। फर्जी कंपनियों और बेनामी लेन-देन के जरिये काला धन सफेद बनता रहता है।

यादव सिंह का मामला अकेला नहीं है। जगनमोहन रेड्डी ने महज दो साल में ही पांच लाख रुपये की राशि को 27 करोड़ रुपये बना दिया था। रॉबर्ट वाड्रा का मामला भी कुछ ऐसा ही है।  झारखंड में मधु कोड़ा का कमाल तो बहुत आगे तक चला गया था। इसलिए अब लगभग सभी मामले में धन शोधन निवारण कानून के तहत भी मुकदमे चलाए जा रहे हैं। 2-जी मामले में ए राजा, दयालुअम्मा, कनिमोझी और सभी आरोपित कंपनियों के खिलाफ धन शोधन निवारण अधिनियम के तहत मामले शुरू हो चुके हैं। इसमें हुआ यह कि एक कंपनी ने दूसरी कंपनी को धन दिया, दूसरी ने तीसरी को और अंत में वह राशि उस टीवी चैनल के पास आई, जो एम करुणानिधि के परिवार से संबद्ध है। ऐसे सभी मामलों में धन को किसी खास स्थान पर पहुंचाने के लिए काफी जटिल प्रक्रिया अपनाई जाती है। कोयला खदान आवंटन घोटाला यानी कोलगेट में भी इस कानून के तहत मुकदमे दर्ज किए जाने की संभावना है।

फिर भी यह माना जाता है कि जिस पैमाने पर काले धन को सफेद बनाने का काम हो रहा है, उसके मुकाबले अभी इस कानून के तहत काफी कम मुकदमे दर्ज हुए हैं। 2010 तक केवल 54 मामले दर्ज थे, परंतु अब यह 100 की संख्या पार कर गया है। इस कानून में एक बड़ी कमी है कि इसमें प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारियों के सामने दिया गया वक्तव्य भी साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य है। अपराध प्रक्रिया विधान में पुलिस के समक्ष दिए गए बयान को साक्ष्य नहीं माना जाता। लेकिन सीमा शुल्क व प्रवर्तन निदेशालय के लिए ऐसा नहीं है, भले ही पुलिसकर्मी ही वहां प्रतिनियुक्ति पर भेजे गए हों। कानून में संशोधन करके ऐसा प्रावधान किया गया, जिसे उच्चतम न्यायालय ने भी वैध ठहराया है।

भ्रष्टाचार में राजनेताओं व अधिकारियों की मिलीभगत एक ऐसा सच है, जिसे हर कोई जानता है। यहां यह भी समझने की जरूरत है कि भ्रष्टाचार मानवाधिकार का सबसे बड़ा हनन है। हत्या और बलात्कार की घटनाएं तो नजर आती हैं, लेकिन जो सामने साफ-साफ दिखाई नहीं पड़ता, वह है विकास का न होना, जिसकी सबसे बड़ी मार गरीबों पर पड़ती है। विकसित देशों के मुकाबले पिछड़े देशों में भ्रष्टाचार ज्यादा है, तो काफी हद तक यही उनके पिछड़ेपन का कारण भी है। जिन मुल्कों में अधिक भ्रष्टाचार है, वहां मृत्यु दर अधिक होती है, साक्षरता की दर कम होती है, बच्चे कुपोषण का शिकार होते हैं। यानी मानव विकास सूचकांक के पैमाने पर उस देश का रिकॉर्ड दयनीय होता है, क्योंकि भ्रष्टाचार जन-कल्याण की राशि गटककर गरीबी को बढ़ाता है। जांबिया के एसेट रिकवरी केस में अदालत ने पाया कि फर्जी कंपनी द्वारा चुराई गई राशि से राष्ट्रपति फ्रेडरिक टाइटस चिलुबा के वार्डरोब का भुगतान किया गया था। अदालत ने पाया कि केवल एक दर्जी को 10 लाख अमेरिकी डॉलर का भुगतान किया गया, जो कि राष्ट्रपति के 10 वर्षों के वेतन का पांच गुना था।

स्वाधीनता के बाद के शुरुआती दिनों में जीप घोटाला, जगमोहन मुंदड़ा घोटाला, सिराजुद्दीन- मालवीय घोटाला आदि के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने 1963 में के संथानम की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया, जिसने अपनी रिपोर्ट में संस्थागत सुधार की अनुशंसा की। उसी के बाद 1964 में केंद्रीय सतर्कता आयोग का गठन हुआ। उच्चतम न्यायालय ने केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो को आयोग के अधीन कर दिया और उसके निदेशक को दो वर्ष का निश्चित कार्यकाल दे दिया। किंतु हाल में हमने देखा कि किस तरह खुद ब्यूरो के निदेशक पर गंभीर आरोप लगे। हालांकि यह जांच का विषय है, किंतु उच्चतम न्यायालय ने निदेशक को एक महत्वपूर्ण जांच से हटा दिया था। समस्या यह है कि लोग दूसरों के ऐश्वर्य को देखकर चकाचौंध हो जाते हैं, जबकि उन्हें सवाल करना चाहिए कि यह धन आया कहां से? यही इस देश में नहीं हो रहा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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