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माओवाद के शिकार

छत्तीसगढ़ के सुकमा में माओवादियों के हमले में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ)  के 14 जवानों का शहीद हो जाना दुखद घटना है,  लेकिन इससे कई सवाल भी खड़े होते हैं। यह सही है कि जब सशस्त्र...

माओवाद के शिकार
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 02 Dec 2014 08:18 PM
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छत्तीसगढ़ के सुकमा में माओवादियों के हमले में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ)  के 14 जवानों का शहीद हो जाना दुखद घटना है,  लेकिन इससे कई सवाल भी खड़े होते हैं। यह सही है कि जब सशस्त्र विद्रोहियों से मुकाबला हो, तो उसमें दोनों तरफ के लोगों की मौत स्वाभाविक है। यह शुरू से माना जा रहा था कि माओवाद को खत्म करने की कोशिश में कुछ जानें तो गंवानी पड़ेंगी,  लेकिन ऐसा लगता है कि कुछ लापरवाहियों से अगर बचा जाता,  तो इन जवानों की शायद ऐसी मौत न होती। माओवादियों के हमला करने का एक तरीका है और छत्तीसगढ़ में बड़ी तादाद में जवान इसी तरीके के शिकार हुए हैं। माओवादियों की रणनीति का अच्छी तरह अध्ययन किया गया है और सुरक्षा बलों को कुछ एहतियात बरतने की हिदायतें भी हैं। माओवादियों के प्रभाव क्षेत्र में कब्जा करने के बाद लौटते हुए सुरक्षा बल के समूहों पर माओवादियों ने हमले किए हैं और यह ताजा हमला भी उसी तरह हुआ। यह एक स्वाभाविक मानवीय व्यवहार है कि थकान व लगातार एक ही माहौल में रहना लोगों को असावधान बना देता है।

इसलिए यह पाया गया है कि माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई से लौटते हुए अक्सर सुरक्षा बलों की टुकड़ियां जरूरी एहतियात नहीं बरततीं और इसका फायदा माओवादी उठाते हैं। मसलन,  नियम यह है कि जिस रास्ते कोई टुकड़ी जाए, उसी रास्ते से न लौटे या वाहनों का इस्तेमाल न करे और यह पाया गया है कि कई बार माओवादी हमलों का शिकार हुए सुरक्षा बलों ने इन एहतियातों का पालन नहीं किया। इस बार भी ऐसी कोई लापरवाही नहीं हुई है,  यह देखा जाना जरूरी है। इन जवानों की मौत इसलिए विशेष रूप से दुखद है कि अब माओवादी काफी कमजोर हो चुके हैं। उनके प्रभाव क्षेत्र में भी कमी आ रही है और जनता में उनकी पकड़ कमजोर हुई है। छत्तीसगढ़ में ही कई माओवादियों के पकड़े जाने या उनके आत्मसमर्पण की खबरें मिली हैं,  जबकि वहीं पर खासकर दक्षिण बस्तर में उनकी ताकत सबसे ज्यादा है। यह हमला जिस स्थान पर हुआ,  वह माओवादियों का मजबूत गढ़ रहा है और अब सुरक्षा बल इस इलाके में अपना प्रभाव बढ़ाते जा रहे हैं।

अगर छत्तीसगढ़ सरकार व सुरक्षा बल लगातार दबाव बनाए रखें,  तो वहां से माओवाद की विदाई बहुत दूर नहीं है। ऐसे में,  माओवादियों को इस तरह के हमले का मौका देने से बचा जाना चाहिए। कुछ दिनों पहले ही इसी इलाके में एक मुठभेड़ के बाद घायल जवानों को लेने के लिए गए सेना के हेलिकॉप्टर पर माओवादियों ने गोलाबारी की थी और को-पायलट के अलावा कई सुरक्षाकर्मियों को घायल कर दिया था। माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई में सबसे बड़ी भूमिका अर्धसैनिक बलों की है। इनमें से सीआरपीएफ को खास तौर पर अपने कामकाज को सुधारने की बड़ी जरूरत है, ताकि जवानों का मनोबल व कार्य-कुशलता बनी रहे।

माओवादी आंदोलन एक गलत जमीन पर खड़ा हुआ आंदोलन है,  इसलिए उसका कमजोर होना स्वाभाविक है। जो आदिवासी इससे जुड़े थे,  उनका भी वक्त के साथ मोहभंग हो रहा है,  इसलिए माओवादियों के पास कैडर की कमी होने लगी है। लेकिन आदिवासियों की वे समस्याएं वास्तविक हैं, जिनकी वजह से वे माओवाद की ओर आकर्षित हुए थे। अब भी सरकार की ओर से ऐसे प्रयास ठीक से नहीं हो रहे हैं,  जिनसे आदिवासियों को देश की मुख्यधारा में उनकी न्यायपूर्ण जगह मिल सके। चाहे गुमराह आदिवासी हों या सुरक्षा बलों के जवान,  मरना सबका दुखद है,  इसलिए राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर इस युद्ध को जल्दी खत्म करने के लिए ईमानदारी और शिद्दत से कोशिशें की जानी चाहिए।

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