सचिन का दुख
सचिन तेंदुलकर की आत्मकथा प्लेइंग इट माई वे के बहुत विवादास्पद होने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। उनका स्वभाव विवाद पैदा करने वाला नहीं है। करीब 25 साल से लगातार प्रसिद्धि की रोशनी में रहे व्यक्ति के...
सचिन तेंदुलकर की आत्मकथा प्लेइंग इट माई वे के बहुत विवादास्पद होने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। उनका स्वभाव विवाद पैदा करने वाला नहीं है। करीब 25 साल से लगातार प्रसिद्धि की रोशनी में रहे व्यक्ति के हिसाब से सचिन तेंदुलकर के जीवन में विवाद लगभग नदारद रहे हैं। अब जब वह खेल से संन्यास ले चुके हैं, उस समय यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह विवाद खड़ा करेंगे। इस किताब के बारे में जो खबरें आ रही हैं, उनके मुताबिक शायद उसमें सबसे चर्चित हिस्सा उनकी कप्तानी को लेकर ही होगा। उसमें बताया गया है कि कप्तान के तौर पर लगातार नाकाम रहने पर, खासकर जब वेस्ट इंडीज में एक टेस्ट मैच में भारतीय टीम लगभग 80 रन पर सिमट गई, तब सचिन क्रिकेट से संन्यास लेने की सोचने लगे थे। यह अच्छा ही हुआ कि उन्होंने अपने इस फैसले पर अमल नहीं किया, उन्होंने कप्तानी छोड़ दी और फिर कभी भारतीय टीम के कप्तान नहीं बने। जब राहुल द्रविड़ ने कप्तानी छोड़ी, तब भी उनसे कप्तानी करने की बात की गई थी, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। ऐसा नहीं है कि वह कप्तान किसी भी स्तर पर बने ही नहीं, उन्होंने मुंबई से लेकर मुंबई इंडियंस तक कई टीमों की कप्तानी की और अच्छी-खासी कामयाबी भी हासिल की, लेकिन भारतीय कप्तान के रूप में उनका अनुभव इतना बुरा रहा कि फिर उन्होंने उसे कभी हाथ नहीं लगाया।
अगर सचिन तेंदुलकर क्रिकेट छोड़ने की सोचने लगें, तो इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वह कितने आहत हुए होंगे। सचिन के लिए क्रिकेट जीवन की एकमात्र धुन थी। उनकी तरह की एकाग्रता किसी व्यक्ति में मुश्किल से ही मिलती है। सचिन अपने रिटायरमेंट का फैसला टालते रहे, उसकी वजह भी जानकार यही बताते हैं कि वह समझ ही नहीं पा रहे थे कि अगर वह क्रिकेट नहीं खेलेंगे, तो क्या करेंगे? सचिन शरीफ और विनम्र व्यक्ति हैं, इसलिए शायद वह कप्तान की तरह अपनी नाकामी की वजहों की चर्चा न करें। वह नहीं बताएंगे कि क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने उनके साथ सहयोग नहीं किया, या उस वक्त टीम बुरी तरह बंटी हुई थी, जिसमें कई वरिष्ठ खिलाड़ी थे, जो तरह-तरह से चतुर थे और मृदुभाषी सचिन उनसे पार नहीं पा सकते थे। इन लोगों ने सचिन का साथ नहीं दिया। यह भी मानना होगा कि सचिन में नेतृत्व के गुणों की कुछ कमी रही। वह बहुत प्रभावशाली कप्तान नहीं थे और उन्हें लगता था कि बाकी खिलाड़ी भी उनकी ही तरह समर्पित और मेहनती हैं।
सचिन ने कप्तानी को कुछ ज्यादा गंभीरता से लेकर अपने ऊपर दबाव बढ़ा लिया था, लेकिन क्रिकेट से जुड़ी किसी चीज में वह पूरे समर्पण के साथ ही जुड़ सकते थे। बाद में जिन टीमों का उन्होंने नेतृत्व किया, उसके ज्यादातर खिलाड़ी उनसे काफी कम अनुभवी और युवा थे और वे सभी सचिन के प्रशंसक थे। ऐसे में उनका नेतृत्व करना सचिन के लिए आसान रहा। सचिन द्वारा भारतीय टीम की कप्तानी छोड़ने के बाद आखिरकार कप्तानी सौरभ गांगुली को मिली, जो देश के सर्वश्रेष्ठ कप्तानों में से एक साबित हुए। सचिन का करियर लगातार कामयाबी की कहानी है। लगभग 12 साल की उम्र में ही यह कह दिया गया था कि उनमें बड़ा खिलाड़ी बनने के लक्षण हैं। बचपन में प्रतिभाशाली लगने वाले ज्यादातर खिलाड़ी बड़े होकर अपनी संभावनाओं को फलीभूत नहीं कर पाते, लेकिन सचिन से जो उम्मीदें थीं, उससे कहीं ज्यादा उन्होंने हासिल किया। खेल के तमाम रिकॉर्ड, यश, समृद्धि, देश का सबसे बड़ा सम्मान ‘भारत रत्न’ उन्हें सब कुछ मिला। अगर कोई बड़ी नाकामी है, तो वह सिर्फ भारत के कप्तान के तौर पर है, लेकिन मुकम्मल जहान तो कभी किसी को नहीं मिलता।