पस्तहाल युद्धनायक
यह समय के भरोसे ही छोड़ना होगा कि कई वर्षों की अस्थिरता व हिंसा के बाद क्या अफगानिस्तान अपने लिए मुनासिब भविष्य गढ़ पाएगा। लेकिन यदि हम अफगानिस्तान में हुए लाभ का अंदाजा नहीं लगा सकते, तो निश्चित तौर...
यह समय के भरोसे ही छोड़ना होगा कि कई वर्षों की अस्थिरता व हिंसा के बाद क्या अफगानिस्तान अपने लिए मुनासिब भविष्य गढ़ पाएगा। लेकिन यदि हम अफगानिस्तान में हुए लाभ का अंदाजा नहीं लगा सकते, तो निश्चित तौर पर उन नुकसानों का आकलन कर सकते हैं, जो हमने खुद को पहुंचाए हैं और खास तौर पर एक ऐसे संस्थान को, जिसके प्रति ब्रिटिश नागरिकों में सम्मान-भाव रहा है। ब्रिटिश सेना, जो वर्षों से अपनी पेशेवर दक्षता से तमाम मसलों को चुनौती और कम संसाधनों में सर्वश्रेष्ठ देती रही, आज अपनी प्रतिष्ठा खो चुकी है। जाहिर है, सिर्फ संस्थागत प्रतिष्ठा धूमिल नहीं हुई, बल्कि सैनिकों की मौत और जख्मी हालत में घर लौटे जवानों से जो निजी नुकसान हुआ है, उसकी भरपायी मुश्किल है। हाल के युद्ध के कारण और कामयाबी, दोनों अस्पष्ट रहे हैं। ऐसे में, इन्हें ‘युद्ध नायक’ कहकर पुकारने भर से काम नहीं चलेगा। ब्रिटेन के सशस्त्र बल अतीत में राजनेताओं के गलत व लापरवाह फैसलों को अपनी जीत से सही ठहराते रहे, पर इराक व अफगानिस्तान में ऐसा नहीं हुआ। सबूत बताते हैं कि सेना के कई अधिकारी अपनी प्रासंगिकता व उपयोगिता दिखाने के लिए जिम्मेदारियां लेते रहे, जबकि वे जानते थे कि उनकी क्षमता से कहीं परे ये काम हैं। पर उन्होंने ये जिम्मेदारियां लीं, जो जोखिम भरी थीं और इसके पीछे कई कारण थे। उनमें एक कारण था गुमान। 1982 में सेना को फॉकलैंड्स में नाटकीय सफलता मिली। 1991 में कुवैत को मुक्त कराने की लड़ाई में भी उसकी जबर्दस्त भूमिका रही। 1999 के कोसोवो युद्ध में भी ब्रिटिश सेना का उपयोगी किरदार रहा। साल 2000 में सेरा लेओन में भी उसका विवेकपूर्ण हस्तक्षेप हुआ। ऐसे में, ब्रिटिश सेना स्वयं को सक्षम मान बैठी। दूसरा कारण अमेरिकियों के साथ सशस्त्र बलों का बर्ताव रहा। एक उपयोगी साथी बने रहने की उसकी इच्छा हमेशा प्रबल रहती है, जबकि आपसी होड़ छिपी हुई नहीं है। जवाबी कार्रवाई में अपने को बड़ा मानने का उसका भाव रहा है। तीसरा कारण इतिहास के प्रति रोमांटिक नजरिया है। ब्रिटेन की सेना यादों में जीती है। वह यह भूल जाती है कि इन दिनों वह सुपरपावर नहीं है।
द गार्जियन, ब्रिटेन