बांग्लादेशी बिहारियों का उलझता मसला
आजादी से बहुत पहले से ही बिहार के गांवों से मजदूर जीविका की खोज में कलकत्ता (अब कोलकाता) की जूट मिलों में जाते थे। इनमें बड़ी संख्या में मुसलमान थे। जब जूट मिलों की हालत खराब होने लगी, तब ये मुस्लिम...
आजादी से बहुत पहले से ही बिहार के गांवों से मजदूर जीविका की खोज में कलकत्ता (अब कोलकाता) की जूट मिलों में जाते थे। इनमें बड़ी संख्या में मुसलमान थे। जब जूट मिलों की हालत खराब होने लगी, तब ये मुस्लिम मजदूर जीविका की खोज में धीरे-धीरे तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के ढाका शहर चले गए। पर बिहार-पश्चिम बंगाल से आए इन मजदूरों का स्थानीय लोगों ने स्वागत नहीं किया। क्योंकि वे उनकी रोजी-रोटी में दखल दे रहे थे। ये मजदूर हिंदी बोलते थे, इसलिए उन्हें उर्दू बोलने वाले पश्चिमी पाकिस्तान का समर्थक माना गया।
बांग्लादेश की आजादी के युद्ध में इन पर पाकिस्तानी सेना की मदद का आरोप लगा। बांग्लादेश बना, तो इन बिहारी मुसलमानों को उसी जमीन पर शक की नजर से देखा जाने लगा, जहां ये अपना खून-पसीना बहाते थे। उन्होंने पाकिस्तान जाने की कोशिश की, लेकिन ज्यादा सफल नहीं हो सके। आज भी तकरीबन पांच लाख ‘बिहारी मुसलमान’ ढाका और मीरपुर के शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं। न कोई रोजगार का साधन है, न बाल- बच्चों की पढ़ाई का कोई उपाय और न चिकित्सा की कोई व्यवस्था। अक्सर स्थानीय बांग्लाभाषी बांग्लादेशियों में और इन बिहारी मुसलमानों में झड़प होती रहती है। उनके पास न तो बांग्लादेश की नागरिकता है और न ही पाकिस्तान जाने का कोई रास्ता है। जनरल अयूब खान से लेकर जनरल परवेज मुशर्रफ तक कई लोगों ने उन्हें पाकिस्तान की नागरिकता देने का वादा तो किया, लेकिन हकीकत में हुआ कुछ नहीं।
कुछ साल पहले ढाका हाईकोर्ट ने सरकार को यह निर्देश दिया था कि उन्हें तुरंत पहचान पत्र दिए जाएं और सरकार उन्हें अन्य बांग्लादेशियों की तरह ही ‘नागरिकता’ प्रदान करे। हाईकोर्ट ने चुनाव आयोग को भी निर्देश दिया कि बांग्लादेश में रहने वाले इन सभी बिहारी मुसलमानों का रजिस्ट्रेशन चुनाव के रिकॉर्ड में हो और उन्हें वोट देने का अधिकार दिया जाए। हाईकोर्ट के निर्देश के बावजूद बांग्लादेश के इन बिहार मूल के मुसलमानों की स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ा है। सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि इन बांग्लादेशी बिहारियों के बाल-बच्चों को कोई शिक्षा नहीं मिल पा रही है। संयुक्त राष्ट्र और रेड क्रॉस ने यह कोशिश भी की कि इन्हें पाकिस्तान की नागरिकता मिल जाए, लेकिन वहां की सरकार इसके लिए तैयार नहीं। उनका कहना है कि बांग्लादेश में रह रहे बिहारी मुसलमानों का रहन-सहन, पहनावा, बोलचाल और खान-पान अलग है। वे पाकिस्तान के समाज में खप नहीं पाएंगे। साथ ही यह तर्क भी है कि पाकिस्तान पर पहले ही अफगानिस्तान से भारी संख्या में आए पख्तून लोगों का दबाव है, इसलिए अब वह और लोगों को यहां लेने की स्थिति में नहीं है। इस सारी खींचतान का शिकार वे लाखों लोग बन रहे हैं, जिन्होंने सिर्फ जीवन-यापन के लिए अपना ठिकाना बदला था। (ये लेखक के अपने विचार हैं)