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आसान नहीं कर्नाटक का मोर्चा

पिछले दिनों बेंगलुरु के अपने दौरे में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा कि आपलोग कर्नाटक को कांग्रेस मुक्त बनाने के लक्ष्य के साथ काम करें। यह लाइन अमित शाह के...

आसान नहीं कर्नाटक का मोर्चा
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 21 Sep 2014 07:46 PM
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पिछले दिनों बेंगलुरु के अपने दौरे में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा कि आपलोग कर्नाटक को कांग्रेस मुक्त बनाने के लक्ष्य के साथ काम करें। यह लाइन अमित शाह के राजनीतिक गुरु नरेंद्र मोदी की चाहत के बिल्कुल अनुकूल है, जो पूरे देश को कांग्रेस मुक्त बनाना चाहते हैं। लेकिन अमित शाह के लिए यह आसान मोर्चा नहीं है और जिस तरह से कांग्रेसी मुख्यमंत्री के सिद्धारमैया राज्य में अपनी स्थिति मजबूत करते जा रहे हैं, उसमें भाजपा के लिए अपनी जमीन को फिर से हासिल करना भी सरल नहीं होगा। भाजपा के लिए कर्नाटक अत्यंत महत्वपूर्ण राज्य है, क्योंकि यह पहला दक्षिणी प्रांत है, जहां पार्टी साल 2008 में न सिर्फ अपने बूते सरकार बनाने में कामयाब हुई, बल्कि उसने अपनी गंभीर छाप छोड़ने का प्रयास किया।

लोकसभा चुनाव में कर्नाटक ही एक ऐसा राज्य था, जहां मोदी लहर के कारण भाजपा को कुछ चुनावी लाभ मिला। वरना तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश जैसे दूसरे दक्षिणी राज्यों में पार्टी को मामूली फायदा हुआ। केरल में तो भाजपा शून्य पर रही। पिछले कुछ वर्षों में कर्नाटक की राजनीति में दो तरह के स्पष्ट रुझान देखने को मिले हैं- एक, यहां के मतदाता निरपवाद रूप से लोकसभा और विधानसभा चुनावों में फर्क करते हैं और दूसरा, राज्य के मतदाता उदार राजनीति को ज्यादा तवज्जो देते हैं और उन्हें राजनीतिक रार पसंद नहीं। इसलिए कलह में डूबी हर सत्ताधारी पार्टी को उन्होंने अगले चुनाव में खारिज कर दिया। साल 2004 में कांग्रेस पार्टी ने केंद्र की सत्ता में वापसी की , लेकिन राज्य में उसे विपक्ष के हाथों सत्ता गंवानी पड़ी। पिछली सदी के आखिरी पच्चीस वर्षों का गहन अध्ययन बताता है कि 1991-94 और 1996-98 के छोटे अंतराल को छोड़कर हमेशा ही केंद्र में जिस पार्टी या गठबंधन की सरकार रही, उसका विरोधी दल या गठबंधन कर्नाटक की सत्ता में आया।

1989 में कांग्रेस पार्टी ने सत्ता में वापसी की और वीरेंद्र पाटिल इसके मुख्यमंत्री बने। 1994 में लोगों ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया, क्योंकि कांग्रेस अंदरूनी कलह में फंस गई थी। पांच साल बाद जनता दल में सिर-फुटौव्वल से नाराज जनता ने कांग्रेस को सत्ता में फिर से बिठा दिया। एस एम कृष्णा के नेतृत्व में कर्नाटक को एक स्थायी सरकार मिली, लेकिन जब 2004 में खंडित जनादेश आया, तो कांग्रेस-जेडी एस गठबंधन के नेतृत्व के लिए एन धरम सिंह के नाम पर सहमति बनी। लेकिन कुछ समय बाद एच डी कुमारस्वामी ने भाजपा से हाथ मिला लिया और धरम सिंह सरकार को जाना पड़ा। मगर कुमारस्वामी ने भाजपा के साथ हुए सत्ता-बंटवारे के करार का भी सम्मान नहीं किया और भाजपा ने इसका पूरा फायदा उठाया। परिणामस्वरूप, 2008 के विधानसभा चुनाव में भाजपा बहुमत के बेहद करीब पहुंच गई और कुछ निर्दलीयों की सहायता से बी एस येदियुरप्पा के नेतृत्व में उसकी सरकार बनी।

येदियुरप्पा का कार्यकाल जबर्दस्त विवादों में रहा। उन पर बेल्लारी में खनन माफिया से गठजोड़ के आरोप लगे। वह जमीन आवंटन के घोटाले में भी आरोपों के दायरे में आए। जो सूबा आईटी हब होने के गौरव से अभिभूत था, उसके मुख्यमंत्री पर कथित रूढ़िवादी कर्मकांडों में लिप्त होने के आरोप लगे। कहा जाता था कि येदियुरप्पा अपने निर्णय, बल्कि मामूली नियुक्तियों का फैसला भी ज्योतिषीय गणना के आधार पर लेते थे। उनका कार्यकाल तत्कालीन राज्यपाल हंसराज भारद्वाज के कारण भी रंगीन रहा। भारद्वाज बेंगलुरु के राजभवन में आने से पूर्व कांग्रेस की केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके थे और उन्होंने भाजपा मुख्यमंत्री पर राजनीतिक हमले का कोई मौका नहीं गंवाया। भूमि-आवंटन घोटाले में येदियुरप्पा के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए भी राज्यपाल ने अनुमति दे दी, इन सबके परिणामस्वरूप, राज्य की शासन-व्यवस्था बदहाल अवस्था में पहुंच गई। जब-जब केंद्र की यूपीए सरकार भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों में घिरती दिखती, तब-तब अपने आलोचकों को चुप कराने के लिए वह येदियुरप्पा के नाम का इस्तेमाल करती। इन सबका फल यह हुआ कि मई 2013 में कांग्रेस पूर्ण बहुमत के साथ राज्य की सत्ता में लौट आई। लेकिन इसके ठीक एक साल बाद संसदीय चुनाव में राज्य के मतदाताओं ने बिल्कुल अलग तरीके से मतदान किया।

संसदीय चुनाव में बेहतर प्रदर्शन के लिए सिद्धारमैया पर स्पष्ट दबाव था। पार्टी ने राज्य में अपनी पुरानी संख्या में तीन सीटें और जोड़ीं और ये सीटें उसने भाजपा और जेडी एस से छीनीं। हालांकि हाईकमान को सिद्धारमैया से 15 सीटें दिलाने की आशा थी, लेकिन वह नौ सीटें ही बटोर सके। जिस तरह से केंद्र में कांग्रेस पार्टी काम करती है, उससे लोहिया के पुराने अनुयायी सिद्धारमैया के लिए तालमेल बिठाना काफी मुश्किल होता, लेकिन हाल के विधानसभा उपचुनावों ने उन्हें राहत की सांसें मुहैया कराई हैं। कांग्रेस ने इन उपचुनावों की तीन में से दो सीटों पर अपनी जीत दर्ज की है। यह संख्या भले छोटी लगे, मगर सियासी रूप से काफी अहमियत रखती है और यह परिणाम भाजपा के लिए झटके की तरह है। चिक्कोड़ी-सदलगा विधानसभा क्षेत्र पारंपरिक रूप से कांग्रेस पार्टी का मजबूत गढ़ रहा है, जिस पर उसने अपना कब्जा बनाए रखा। शेष दो शिकारीपुरा और बेल्लारी-ग्रामीण क्षेत्र इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि ये दोनों भाजपा के मजबूत दुर्ग के रूप में जाने जाते रहे हैं।

शिकारीपुरा तो पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा का क्षेत्र है, जहां से उनके बेटे भाजपा के टिकट पर मामूली अंतर से जीत सके, जबकि बेल्लारी ग्रामीण से मशहूर बेल्लारी भाइयों के वफादार भाजपा उम्मीदवार को कांग्रेस प्रत्याशी ने बड़े अंतर से परास्त किया। महज तीन माह पहले ही भाजपा ने कर्नाटक से लोकसभा की 17 सीटें जीती थीं। इस लिहाज से यह हार उसके लिए बड़ा झटका है। राज्य की राजनीति पर करीबी नजर रखने वालों का कहना है कि सिद्धारमैया ने भले कोई चमत्कारिक फैसला नहीं किया हो, लेकिन उन्होंने सभी गुटों को अपने साथ जोड़कर रखा है और किसी भी बड़े विवाद से खुद को बचाए रखने में भी वह कामयाब रहे हैं। सिद्धारमैया ने सामाजिक कल्याण के कई कदम उठाए हैं, लेकिन इसके साथ ही वह राजकोषीय प्रबंधन की समझ रखने वाले भी माने जाते हैं। दूसरी तरफ, भाजपा के पास येदियुरप्पा को छोड़ राज्य में कोई भी बड़ा नेता नहीं है। राज्य में जगदीश शेट्टर और सदानंद गौड़ा के समर्थक बहुत ज्यादा नहीं हैं। युवा वोटरों ने नरेंद्र मोदी के नाम पर भाजपा का समर्थन किया था। आईटी बिरादरी और शहरी आबादी अब भी मोदी के साथ हैं।

अमित शाह के लिए  इस समर्थन आधार को बरकरार रखना बड़ी चुनौती है। इसके लिए उन्हें राज्य में विश्वसनीय नेताओं की कतार तैयार करनी पड़ेगी। कांग्रेस के उन्मूलन के लिए रथ पर सवार होने से पहले अमित शाह को अपना घर ठीक करना पड़ेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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