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पिंजरे के पीछे का दर्द

ाानवरों की फौा काट रही मौज’ पढ़ा तो अकबर-बीरबल का किस्सा याद आ गया। 10-10 गज के फासले पर शेर और बकरी को खूंटे से बांध कर बकरी को भरपूर भोजन दिया जा रहा था। फिर भी कई महीनों बाद बकरी की सेहत उतनी ही...

 पिंजरे के पीछे का दर्द
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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ाानवरों की फौा काट रही मौज’ पढ़ा तो अकबर-बीरबल का किस्सा याद आ गया। 10-10 गज के फासले पर शेर और बकरी को खूंटे से बांध कर बकरी को भरपूर भोजन दिया जा रहा था। फिर भी कई महीनों बाद बकरी की सेहत उतनी ही रही। कैद तो कैद ही है, चाहे वह सोने के जाल की हो या कंटीले बाड़ों की। पिंजर के पंछी का दर्द स्वयं पंछी ही समझ सकता है हम तो बस शीतल पेय और स्नैक्स से लैस होकर पिंजरों में बंद मूक जानवरों का दीदार कर पिकनिक मना कर वापस अपने घरों को लौट आते हैं। प्रकृति में विचरण करने वाले जानवर भला मनचाहे फलों व डाइट का लुत्फ किस प्रकार उठा पाते होंगे?ड्ढr राजेन्द्र कुमार सिंह, सेक्टर-15, रोहिणी भारतीय संस्कृति भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा अर्थ है परोपकार। अगर हम अपने को भारतीय कहते हैं, मगर परोपकार की भावना हमार अंदर नहीं है तो निश्चय ही हमें अपने प्रति शंका होनी चाहिए।ड्ढr सरमनलाल अग्रवाल, आगरा मजदूर दिवस तन पर फटे कपड़े, आधा पेट भोजन और अपने जीवन की आकांक्षाओं की बलि चढ़ाकर यह मजदूर सिर्फ दो जून की रोटी के लिए संषर्घ करता रहता है। कभी-कभी तो उसे उसका उचित पारिश्रमिक भी नहीं मिलता। तब उसका मन चीत्कार कर उठता है और वह खीझ उठता है उस नियति पर जिसने न सिर्फ उसे बल्कि उसके बच्चों को भी पैसे के अभाव में शिक्षित न कर पाने के कारण उसी कार्य में धकेल दिया। संसार में जो सौंदर्य और समृद्धि दिखाई पड़ती है श्रम का ही परिणाम है। इसलिए श्रम की महत्ता को नकारना मुश्किल है।ड्ढr पी. के. झा, सरस्वती गार्डन, नई दिल्ली विपक्ष की भूमिका महंगाई के नाम बैनर-बंद से ज्यादा हल रचनात्मक प्रक्रिया में है। विपक्ष व सहयोगी दलों को चाहिए वह रचनात्मक बहुआयामी सुझाव दें। अगर बंद-धरने से हल होता, तो समस्या कब की सुलझ गई होती।ड्ढr हरिओम मित्तल, सैक्टर 15, गुड़गांव हमारे प्रतिनिधि हमारी राय में अमर्यादित प्रतिनिधि पढ़कर बहुत दु:ख हुआ। दु:ख इसलिए कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के मंदिर में न जाने कैसे-कैसे लोगों को हम लोगों ने चुनकर ोज दिया है। आजाद होने के बाद इसी भारत में जिन सांसदों को मात्र 500 रु. तनख्वाह मिलती थी, वह चाहे पांव पैदल या अन्य किसी साधन से अपने मतदाताओं का हाल जानने उनके बीच जाते थे। परंतु आज जब लाखों रुपया उन्हें मिलता है, तो भी वे चुनाव जीतने के बाद दूज के चांद बने रहते हैं। अब तो कई सांसद उसी जनता के लिए संसद में प्रश्न पूछने के बदले पैसे लेने और जनता के विकास के लिए निधि फंड से पैसे खर्च करने के लिए कमीशन लेते पकड़े गए हैं। लाख प्रयास के बावजूद राजनीतिज्ञ और अपराधियों की दोस्ती बढ़ती जा रही है। संसद चलाने में प्रति मिनट 20-25 हाार रुपया खर्च होता है। फिर भी अगर हफ्तों संसद न चले तो?ड्ढr प्रभात कुमार, रमेश नगर, नई दिल्ली स्त्री से मिला पुरुषों को सहारा तीन बेटियों के पिता प्रधानमंत्री देश के माता-पिताओं से बेटियां बचाने को कह रहे हैं। अपनी बेटियों पर गर्व है। हर किसी को अपनी पुत्रियों पर गर्व होना चाहिए। स्त्रियों ने ही पुरुषों को सहारा दिया है।ड्ढr आलोक रांन झा, यमुना विहार, दिल्ली

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