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बड़े फैसले की कठिन परीक्षा

एक बोतल शराब के लिए चिलचिलाती धूप में सब्र के साथ खड़े लुंगीधारी पुरुषों की लंबी-सर्पिली कतारें केरल के आम नजारों में शामिल रही हैं। ऐसे दृश्य आप उसके पड़ोसी राज्य तमिलनाडु में भी देख सकते हैं। और यह...

बड़े फैसले की कठिन परीक्षा
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 07 Sep 2014 07:33 PM
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एक बोतल शराब के लिए चिलचिलाती धूप में सब्र के साथ खड़े लुंगीधारी पुरुषों की लंबी-सर्पिली कतारें केरल के आम नजारों में शामिल रही हैं। ऐसे दृश्य आप उसके पड़ोसी राज्य तमिलनाडु में भी देख सकते हैं। और यह समानता यहीं पर खत्म नहीं होती- इन दोनों ही राज्यों में शराब की खुदरा दुकानों का मालिकाना हक सरकार के पास है। वे इनसे मोटी कमाई करती रही हैं। केरल के कुल राजस्व का पांचवां हिस्सा शराब की बिक्री से आता है, तो तमिलनाडु के कुल राजस्व में एक-चौथाई से भी अधिक का इसका योगदान है। केरल देश का सबसे शिक्षित सूबा है और तमिलनाडु भी इस मामले में उसके आसपास ही है। दोनों राज्यों ने सामाजिक क्षेत्र में सराहनीय उपलब्धियां हासिल की हैं। फिर भी इनकी आबादी का एक हिस्सा बुरी तरह से शराबखोरी की गिरफ्त में जा फंसा है। केरल सरकार अब शराब की दुकानों के लाइसेंस का नवीनीकरण बंद करके राज्य को शराब मुक्त करने का प्रयास कर रही है। क्या उसकी यह पहल कामयाब होगी? देश की आजादी के तत्काल बाद गांधीवादी विचारों से प्रेरित कई राज्यों ने पूर्ण शराबबंदी लागू की थी। इनमें केरल और तमिलनाडु भी शामिल थे। लेकिन राजस्व वसूली में गिरावट के मद्देनजर अंतत: तमाम सूबों ने अपने कदम वापस ले लिए। सिर्फ गुजरात ही ऐसा राज्य है, जो अपने महात्मा के साथ खड़ा रहा। गुजरात में शराब सिर्फ विदेशी मेहमानों और अनिवासी भारतीयों को परोसी जाती है और इसके लिए भी बाकायदा परमिट लेनी पड़ती है। जहां तक स्थानीय नागरिकों का प्रश्न है, तो वे मेडिकल आधार पर यह परमिट हासिल कर सकते हैं।

हालांकि यह भी एक खुला रहस्य है कि शराब तस्करों से वहां बोतल हासिल की जा सकती है, मगर अपने जोखिम पर। मणिपुर एक और राज्य है, जहां आधिकारिक रूप से शराबबंदी लागू है। आंध्र प्रदेश और हरियाणा ने भी शराब-बिक्री को प्रतिबंधित करने की कोशिश की, लेकिन राजस्व घाटे को देखते हुए उन्होंने इस प्रयास को ठंडे बस्ते में डाल लिया। हरियाणा में इस कवायद का आलम यह रहा कि लोग अपनी पसंद की बोतल के लिए आसानी से पड़ोसी राज्य, दिल्ली व पंजाब चले जाते थे। केंद्र सरकार ने राज्यों को यह प्रस्ताव दिया था कि शराबबंदी से राजस्व को होने वाले नुकसान की आधी भरपायी वह कर सकती है, मगर किसी भी राज्य ने केंद्र के इस प्रस्ताव में खास रुचि नहीं ली। शराबखोरी के मामले में देश भर में केरल सबसे आगे रहा है। वहां सालाना प्रति-व्यक्ति शराब की खपत 8.3 लीटर है, जबकि राष्ट्रीय औसत 5.7 लीटर है।

हालांकि इसकी सबसे अधिक ब्रिकी तमिलनाडु में होती है। जाहिर है, ये विशेषताएं समाज में तरह-तरह की विकृतियां पैदा कर रही हैं। शराब विरोधी संगठनों का कहना है कि पुरुषों की शराबखोरी ने पूरे परिवार की जिंदगी को प्रभावित किया है। घरेलू हिंसा की वारदातें बढ़ती ही जा रही हैं। यह भी देखने में आया है कि अब कम उम्र के लोग भी शराब पीने लगे हैं, यहां तक कि स्कूली बच्चे भी बार में पहुंचने लगे हैं। हताशा और खुदकुशी की प्रवृत्तियां बढ़ने लगी हैं। केरल में आत्महत्या की दर काफी ऊंची है। तमिलनाडु और केरल, दोनों राज्य अपनी अच्छी कार्य-संस्कृति के लिए मशहूर रहे हैं। वहां के कामगार आम तौर पर काफी आज्ञाकारी और अनुशासित होते हैं। लेकिन उत्पादकता में गिरावट से चिंतित लोगों का कहना है कि गरीबों का एक तबका यह मानने लगा है कि वे तो बगैर किसी परिश्रम के अपनी जिंदगी गुजार सकते हैं, क्योंकि राज्य सरकार उनकी मदद के लिए मुस्तैद है।

उदाहरण के तौर पर, तमिलनाडु में अत्यंत गरीबों को महीने में 30 किलो चावल मुफ्त में दिया जाता है। और भी कई तरह के मुफ्त उपहार हैं। मसलन, बेटी के विवाह के समय सोने का ‘मंगलसूत्र’, नवजात बच्चों को दूध की बोतल और मच्छरदानी, किसानों को बकरी, गृहिणियों को ग्राइंडर और मिक्सी आदि। यही नहीं, राज्य मुफ्त में टेलीविजन भी बांट रहे हैं। सरकारी स्कूलों में शिक्षा फ्री है और दूसरे सूबों के मुकाबले वहां सार्वजनिक चिकित्सा सुविधाएं भी बेहतर स्थिति में हैं। कुल मिलाकर, बेहतर प्रशासन के कारण राज्य की तमाम कल्याणकारी योजनाओं के फायदे वाकई जनता तक पहुंचते हैं। इस वजह से इन दोनों राज्यों में कुशल कामगारों को ढूंढ़ना काफी मुश्किल हो गया है। चेन्नई में यदि आप किसी कुशल बढ़ई की तलाश में हैं, तो इसके लिए आपको अच्छी-खासी रकम देनी पड़ेगी।

केरल में न्यूनतम मजदूरी अन्य राज्यों के मुकाबले सबसे अधिक है। आलम यह है कि तमिलनाडु के कुछ इलाकों में खेतों में काम करने वाले श्रमिक नहीं मिल रहे। निर्माण के कार्य वहां पहले ही उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूरों के हवाले है। इन बाहरी मजदूरों-कामगारों ने चेन्नई मेट्रो का पूरा निर्माण कार्य संभाल रखा है। शराबबंदी के संदर्भ में केरल की यूडीएफ सरकार के कदम की सभी राजनीतिक पार्टियां सराहना कर रही हैं। महिलाएं, ईसाई मिशनरियां और अल्पसंख्यक समूह, सभी खुश हैं, लेकिन कुछ हिंदू गुट इसे लेकर आशंका जता रहे हैं, क्योंकि शराब की ज्यादातर खुदरा दुकानें उनके नाम ही हैं। तमिलनाडु में छोटी पार्टियां शराबबंदी की मांग करती रही हैं। इनमें पीएमके सबसे अधिक मुखर है। यह दिलचस्प बात है कि तमिलनाडु में शराब की खुदरा दुकानों का नियंत्रण जहां राज्य सरकार के हाथों में है, वहीं उन्हें बनाने वाली कंपनियां निजी क्षेत्र की हैं, जिनमें से ज्यादातर का मालिकाना हक या तो मंत्रियों के पास है या फिर उनके रिश्तेदारों के पास।

बहरहाल, केरल की यूडीएफ सरकार के लिए यह काम पूरा करना बहुत आसान नहीं होगा। राजनीतिक दबाव और खींचातानी तो अपनी जगह है ही, मार्केटिंग के स्तर पर भी इस समस्या से निपटना उसके लिए काफी चुनौतीपूर्ण होगा। उदाहरण के तौर पर, तमिलनाडु सरकार केरल बॉर्डर पर शराब की अपनी खुदरा दुकानें खोलने का पहले ही ऐलान कर चुकी है। पड़ोसी प्रांत पुडुचेरी में शराब आसानी से उपलब्ध है। पुडुचेरी के चार जिलों में से एक जिला माही भौगोलिक रूप से केरल में अंदर की तरफ है। जाहिर है, विश्लेषक पहले से ही अंदाज लगा रहे हैं कि माही केरल के लोगों के लिए ‘शराब-पर्यटन’ का नया ठिकाना बनेगा। यूडीएफ सरकार अपने भीतर की पार्टियों के दबाव में पहले से ही है, जिनकी दलील है कि इस कदम से केरल के राजस्व को काफी नुकसान पहुंचेगा। राज्य को आबकारी शुल्क का घाटा तो होगा ही, पर्यटन से होने वाली कमाई का भी नुकसान उठाना पड़ेगा। मुख्यमंत्री ओमन चांडी ने भले ही शराबखोरी के लिखाफ जंग छेड़ दी हो, मगर उनकी असली परीक्षा इस बात में होगी कि वह कैसे इसे लागू कर पाते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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