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बचे हुए वित्त वर्ष के लिए

सबकी नजरें इस समय आगामी बजट पर हैं। उम्मीदें आसमान पर हैं। इसके कई कारण हैं। भाजपा ने अपने चुनाव अभियान में तेज विकास और रोजगार के अवसर पैदा करने की बात कही थी। इसके अलावा, पिछले एक दशक में आर्थिक...

बचे हुए वित्त वर्ष के लिए
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 07 Jul 2014 12:35 AM
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सबकी नजरें इस समय आगामी बजट पर हैं। उम्मीदें आसमान पर हैं। इसके कई कारण हैं। भाजपा ने अपने चुनाव अभियान में तेज विकास और रोजगार के अवसर पैदा करने की बात कही थी। इसके अलावा, पिछले एक दशक में आर्थिक बदलाव ठप रहा है। इसीलिए उम्मीदें बहुत ज्यादा हैं और माना जा रहा है कि प्रधानमंत्री अब इस अतीत से नाता तोड़ेंगे। परिणामस्वरूप, एक असामान्य बजट की संभावना व्यक्त की जा रही है। कंपनी क्षेत्र के हौसले बुलंद हैं और सेंसेक्स पिछली सारी ऊंचाइयों को इतिहास बना चुका है। लेकिन जब यह आशावाद जोर पकड़ रहा था, तो कुछ बुरी खबरें भी आने लगीं। सबसे पहले तो मानसून को लेकर अनिश्चितता का माहौल बना, जिसका असर खाद्य सुरक्षा, महंगाई, ग्रामीण रोजगार, क्रय क्षमता और विकास दर, सब पर पड़ता है। दूसरी, इराक में दिनोंदिन खराब होते हालात से पेट्रोलियम सब्सिडी बढ़ने का खतरा खड़ा हो गया है। फिर ढेर सारी दूसरी समस्याएं तो हैं ही, जैसे- खर्चों की लंबी देनदारी, पांच फीसदी विकास दर के कारण कम राजस्व, महंगा कर्ज, समस्याग्रस्त बैंकिंग क्षेत्र, और एक दशक का रोजगारहीन विकास। इन सब परेशानियों के चलते किसी सरकार को ऊंची उम्मीदों पर लगाम तो लगानी ही होगी। फिर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वित्त वर्ष का एक बड़ा हिस्सा खत्म हो चुका है, अगला बजट सात महीने बाद ही पेश होगा। ऐसे हालात में बजट को कौन-से लक्ष्य हासिल करने के लिए जुटना चाहिए?

पहला, बचत और निवेश चक्र को बदलकर विकास में नई जान फूंकनी चाहिए। लगातार बरकरार भारी वित्तीय घाटे, बढ़ते खर्च, राजस्व में कमी, सुस्त निर्यात और चालू खाते का भारी घाटा दीर्घकाल में अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाएंगे। इसलिए सबसे पहले इस विरोधाभास को खत्म करना होगा कि बिना इन कारकों को नुकसान पहुंचाए अर्थव्यवस्था में नई जान कैसे फूंकी जाए? बजट को इन कारकों को सुधारने की रणनीति बनानी होगी। यानी हमें ऐसी वित्तीय और मौद्रिक नीतियां अपनानी होंगी, जिनसे हम पक्के तौर पर वित्तीय पुनर्गठन के रास्ते पर लौट सकें। हमें वित्तीय जवाबदेही और प्रबंधन पर एक संशोधित विधेयक भी तैयार करना चाहिए।

दूसरा, सार्वजनिक क्षेत्र के खर्च को इस तरह तर्कसंगत बनाना होगा कि उससे संसाधनों की उपलब्धता पर कोई असर न पड़े। जहां तक खर्च के प्रावधान का सवाल है, तो सार्वजनिक खर्च नीति में सुधार का काम काफी समय से नहीं हो पाया है। खाद्य, पेट्रोलियम और उर्वरक सब्सिडी में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, लेकिन बदलाव का तरीका विश्वसनीय और पारदर्शी होना चाहिए। इसके अलावा, बहुत सारा धन व्यवस्था में फंसा पड़ा है। सार्वजनिक परियोजनाओं का काम समय से काफी पीछे चल रहा है, जिसके कारण उनकी लागत काफी बढ़ गई है। इस तरह के तौर-तरीके और प्रक्रियाएं, दोनों सार्वजनिक निवेश के रास्ते में बाधा पैदा करते हैं। इसलिए सार्वजनिक क्षेत्र के लिए खर्च का प्रावधान बढ़ाना ही सही समाधान नहीं है। परियोजनाओं को लागू करने की रणनीति प्राथमिकता के साथ बननी चाहिए। इसके लिए बहुत सारे कायदे-कानून बदलने का काम करना होगा।
तीसरा, कर प्रशासन में इस तरह से सुधार करना होगा कि राजस्व में कमी न आए। जीएसटी को लागू करने की समय-सीमा तय करनी होगी। कर प्रशासन को ऐसा बनाना भी महत्वपूर्ण है, जिसमें विरोधाभास न हो। पिछली तारीखों से टैक्स लागू करने पर उठ रहे संदेहों को भी खत्म करना होगा। इसे लेकर जो विवाद उठे हैं, उन्हें भी जल्द ही खत्म करना होगा। महंगाई का खयाल रखते हुए आयकर के स्लैब बदलने का काम भी समझदारी भरा होना चाहिए। डायरेक्ट टैक्स कोड के लिए सभी पक्षों से मशविरा करना भी जरूरी है।

चौथा, हकदार बनाने वाले कानूनों का इस ढंग से पुनर्गठन करना होगा कि उससे गरीबों को कोई नुकसान न पहुंचे। खाद्य सुरक्षा, भूमि अधिग्रहण और रोजगार का अधिकार जैसे बहुत से कानून से लोगों को अधिकार तो मिला, लेकिन इनका नतीजा बहुत अच्छा नहीं रहा। कुछ कानूनों में तो थोड़े-बहुत बदलाव की ही जरूरत होगी। मसलन, मनरेगा को ही लें, इसमें ध्यान पूंजी के निर्माण पर होना चाहिए और दिहाड़ी को उत्पादकता से जोड़ना चाहिए। श्रम कानूनों के मामले में राज्यों को लचीलेपन का अधिकार देना चाहिए। इसके लिए राजस्थान की पायलट परियोजना को अन्य राज्यों में भी लागू किया जा सकता है। इसी तरह, भूमि अधिग्रहण कानून में भी बदलाव की जरूरत है। खाद्य सुरक्षा कानून के लिए वैकल्पिक तरीके अपनाने चाहिए। शिक्षा के अधिकार कानून के नतीजों को भी सुधारना चाहिए।

पांचवां, कृषि कानून, श्रम कानून, कृषि उत्पादों की मुक्त आवाजाही, खुदरा तंत्र तक आसान पहुंच और आपूर्ति की नई रणनीति के बिना कृषि नीतियों को हम ठीक से नहीं लागू कर सकते। सरकार के सामने चुनौती विकास दर को नुकसान पहुंचाए बगैर महंगाई को नियंत्रित करने की है। इसके लिए जरूरी है कि आपूर्ति के मोर्चे पर काम हो, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरुस्त किया जाए और भारतीय खाद्य निगम का पुनर्गठन हो।

छठा, हर कोई इस बात पर सहमत है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। सबसे बड़ी दिक्कत विद्युत क्षेत्र में है। पिछले पांच साल में विद्युत क्षेत्र में सुधार के काम को रोक दिया गया। संचरण और वितरण में होने वाला नुकसान हद से ज्यादा है। जब तक कोयला क्षेत्र में सुधार नहीं होता और कोल इंडिया का पुनर्गठन नहीं होता, तब तक ऊर्जा की समस्या को हमें झेलते रहना होगा। ऊर्जा क्षेत्र के लिए हमें कई अलोकप्रिय, बल्कि कड़े फैसले करने होंगे। इसी तरह परियोजनाएं न लागू होने और संसाधनों की कमी का असर सड़क व रेलवे क्षेत्र पर पड़ा है। इसके साथ ही हमें निजी-सार्वजनिक साझेदारी का फ्रेमवर्क भी बदलना होगा। इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए अगर निजी क्षेत्र का सहयोग लेना है, तो शर्तों को ज्यादा यथार्थवादी बनाना होगा।

अंत में, सुस्त आर्थिक विकास के दौर में रोजगार के अवसर पैदा करना सबसे बड़ी चुनौती है। रोजगारहीन विकास के दौर का बड़ा गंभीर सामाजिक-आर्थिक असर पड़ा है। इस समय जरूरत है कि न केवल इस दौर में हुए रोजगार की कमी की भरपायी की जाए, बल्कि रोजगार के कई गुना और अवसर पैदा किए जाएं। इसके लिए हमें मैन्युफैक्र्चंरग सेक्टर को फिर खड़ा करना होगा। साथ ही विकास नीति के साथ ही रोजगार नीति को भी प्राथमिकता देनी होगी।

राजनीतिक तौर पर देखें, तो बजट सीधी रेखा की तरह आसान नहीं होता। वह जटिल होता, क्योंकि उसमें कई विकल्पों के बीच संतुलन साधना होता है। कई विरोधाभासों को खत्म करना होता है। वैसे तो यह राजस्व और खर्च का गणित है, लेकिन यह गरीबी को कम करने और विकास को बढ़ाने की कवायद भी है। वित्त मंत्री के सामने विकल्प सीमित हैं और चुनौतियां बहुत ज्यादा, लेकिन मुझे उम्मीद है कि वित्त मंत्री इन चुनौतियों पर आसानी से पार पा लेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

 

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