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किसे ठहराएं हादसे का जिम्मेदार

बिहार में छपरा के पास नई दिल्ली-डिब्रूगढ़ राजधानी एक्सप्रेस के पटरी से उतरने के कारणों के बारे में जो भ्रम की स्थिति है, वह अपने आप में एक सबूत है कि हम इस विशालकाय सरकारी संगठन के प्रबंधन को लेकर...

किसे ठहराएं हादसे का जिम्मेदार
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 26 Jun 2014 10:46 PM
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बिहार में छपरा के पास नई दिल्ली-डिब्रूगढ़ राजधानी एक्सप्रेस के पटरी से उतरने के कारणों के बारे में जो भ्रम की स्थिति है, वह अपने आप में एक सबूत है कि हम इस विशालकाय सरकारी संगठन के प्रबंधन को लेकर कितने अगंभीर और लापरवाह हैं। यह अक्सर देखने में आया है कि जब भी इस तरह का कोई हादसा होता है, तो केंद्र और राज्य सरकारों के रुख में एकरूपता नहीं होती या फिर खुफिया एजेंसियां एक-दूसरे पर दोषारोपण करने लगती हैं। राजनीतिक दल तो जैसे मौके की ताक में बैठे होते हैं। घटना घटी नहीं कि वे अपने शब्द-बाण लेकर मैदान में कूद पड़ते हैं। हादसे के शिकार लोगों की सुध लेने की बजाय सरकार और तंत्र को कोसने में ही उनकी सारी ऊर्जा खर्च होती रहती है।  

मंगलवार की देर रात हुई दुर्घटना के पीछे माओवादियों का हाथ होने की आशंका जताई जा रही है। रेल मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने तिरहुत और सारण क्षेत्र में माओवादियों द्वारा बंद के आह्वान का हवाला भी दिया है, लेकिन यह आश्चर्य की बात है कि छपरा के पुलिस प्रमुख कहते हैं कि हमारे पास ऐसा कोई सुबूत नहीं है, जिससे हम इसको तोड़-फोड़ सिद्ध कर सकें। रेल हादसे के बहुत से कारण होते हैं, लेकिन पिछले चंद वर्षो में माओवादियों ने रेलवे को लक्ष्य करके जो कुछ किया, उसमें जान-माल का काफी नुकसान हुआ है। इनकी कारस्तानी की वजह से ही साल 2010 के ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस हादसे में लगभग 150 लोग मारे गए थे और 200 लोग घायल हुए थे। उसके थोड़े ही दिन पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि हमें माओवादियों की  हिंसक गतिविधियों और तोड़-फोड़ से अरबों रुपये का नुकसान हो रहा है। माओवादियों ने अप्रैल 2009 में झारखंड के लातेहार में एक पैसेंजर ट्रेन को अगवा कर लिया था और उसी साल अक्तूबर महीने में उन्होंने भुवनेश्वर-नई दिल्ली राजधानी को आठ घंटों तक रोक रखा था। इसलिए छपरा ट्रेन दुर्घटना में माओवादियों की भूमिका पर संदेह की ठोस वजह है। माओवादी राजधानी ट्रेनों को अपने निशाने पर इसलिए भी रखते हैं कि उन्हें लगता है कि इनमें समाज का प्रभु वर्ग सफर करता है।

बहरहाल, हमारे देश में ट्रेन दुर्घटनाओं की दूसरी वजहें भी हैं, जिनमें सिग्नल सही न होने, पटरियों का समुचित रख-रखाव न होने के कारण डिरेलमेंट, चालकों की मानवीय भूल और आतंकी गतिविधियां शामिल हैं। हमारे देश में आज भी बहुत-सी जगहों पर मानवरहित रेलवे क्रॉसिंग हैं, जिन पर अक्सर गाड़ियों और दूसरे वाहनों की टक्करों में अनेक जानें जाती हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, हमारे देश में तकरीबन 40 लोग प्रतिदिन रेलवे ट्रैक को पार करते हुए मारे जाते हैं। रेलवे सुरक्षा के संदर्भ में उच्च अधिकार प्राप्त एक कमेटी अनिल काकोदकर के नेतृत्व में बिठाई गई थी। उस कमेटी ने कहा था कि देश में हर साल अमूमन 15,000 लोग छोटी-बड़ी रेल दुर्घटनाओं के शिकार हो जाते हैं। अकेली मुंबई में ही 6,000 लोग उपनगरीय रेल सेवाओं के हादसों में मारे जाते हैं। इस कमेटी ने कई उपयोगी सुझाव दिए थे, जिनके लागू करने से हादसों में काफी कमी आ सकती है, लेकिन उन सुझावों का क्या हुआ, अभी तक इसका कुछ पता नहीं चला है। हैरत की बात तो यह है कि न रेलवे बोर्ड के अधिकारी, और न ही हमारे मंत्री अब इन हादसों की कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार होते हैं।

भारतीय रेलवे का सुरक्षा रिकॉर्ड बहुत कमजोर है और इस मद में खर्च भी बहुत कम होता है। इस मामले में तत्काल ध्यान दिए जाने की जरूरत है। गौर कीजिए, ऐसे हादसों में आपदा राहत टीम का पहला काम होता है, फंसे हुए लोगों को बाहर निकालना। इसके लिए लोहे की चादरें काटने वाले औजारों की जरूरत पड़ती है, स्थानीय राहत कैंप तत्काल खोलना और घायलों को फौरन अस्पताल पहुंचाना प्राथमिकता होती है। कई बार ऐसी भी घटनाएं देखने-सुनने में आईं कि कुछ असामाजिक तत्वों ने मौके का फायदा उठा मुसाफिरों को लूट लिया। ऐसे में, आपदा राहत टीम के लिए यह भी एक बड़ी चुनौती होती है कि ऐसे तत्वों को काबू में कैसे किया जाए, क्योंकि वास्तव में अनेक स्थानीय लोग ईमानदारी से पीड़ितों की मदद करते हैं। वैसे तो भारतीय रेलवे में एक अलग आपदा प्रबंधन विभाग भी है और उसके पास मेडिकल ट्रेनें भी हैं, मगर इनके पहुंचते-पहुंचते देर हो जाती है। ऐसे में, स्थानीय प्रशासन, पुलिस बल और नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट फोर्स को ही काम करना पड़ता है।

इसमें कोई दोराय नहीं कि रेलवे सुरक्षा बल की कार्य-प्रणाली, उनका संचार तंत्र और हथियार बहुत पुराने हैं। इनको आधुनिक बनाने की जरूरत है। खासकर माओवादी इलाकों में हमें रेलवे ट्रैक के पास सिविल डिफेंस फोर्स को तैनात करना होगा। ऐसे इलाकों में जिला पुलिस और रेलवे सुरक्षा बल का आपसी समन्वय और खुफिया सूचनाओं की साङोदारी की बेहतर व्यवस्था होनी चाहिए। माओवादी अचानक ही किसी स्थान पर पहुंच नहीं सकते। उनकी गतिविधियों पर नजर रखने की आवश्यकता है। वैसे भी, हम हर हादसे को माओवादियों की करतूत नहीं बता सकते। देश में कई ऐसे राज्य हैं, जहां माओवादी सक्रिय नहीं, मगर वहां भी बड़े हादसे हुए और होते रहे हैं।

भारतीय रेलवे दुनिया भर में सरकार के मातहत काम करने वाले सबसे बड़े चंद संगठनों में एक है। इसका नेटवर्क 65,000 किलोमीटर से लंबा है, और इसकी हजारों ट्रेनें तकरीबन ढाई करोड़ लोगों को रोजाना एक से दूसरी जगह ढोती हैं। कई लाख लोग इस तंत्र के मुलाजिम हैं। साफ है, भारतीय रेलवे के ऊपर बहुत बड़ा भार है। अब वह उससे मैनेज नहीं हो पा रहा। अगर हमें रेल यात्रा को सुरक्षित और आरामदेह बनाना है, तो हमें अन्य रास्तों के बारे में सोचना पड़ेगा। सरकार के पास यदि संसाधनों की कमी है, तो निजी क्षेत्र से पार्टनरशिप करके रेलवे का आधुनिकीकरण करना ही होगा। सबसे पहले तो सिग्नल सिस्टम को आधुनिक बनाने के लिए पर्याप्त धनराशि की व्यवस्था की जानी चाहिए। जहां तक माओवादियों से रेलमार्ग को सुरक्षित बनाने का सवाल है, तो यह सिर्फ रेलवे का नहीं, हमारे सभी अर्ध-सैनिक बलों व समूचे सुरक्षा तंत्र का दायित्व है कि वे यह सुरक्षा सुनिश्चित करें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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