शिखर से एक संत की विदाई
चंद घंटों में सोलहवीं लोकसभा की तस्वीर साफ हो जाएगी। महीनों के रोमांच को विश्रम मिलेगा, और चुनाव परिणाम यह भी बता देंगे कि किसके मुकद्दर में क्या कुछ बदा है। लेकिन एक बात तय हो चुकी है कि डॉक्टर...
चंद घंटों में सोलहवीं लोकसभा की तस्वीर साफ हो जाएगी। महीनों के रोमांच को विश्रम मिलेगा, और चुनाव परिणाम यह भी बता देंगे कि किसके मुकद्दर में क्या कुछ बदा है। लेकिन एक बात तय हो चुकी है कि डॉक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के पद से विदा हो रहे हैं। मंगलवार की शाम साउथ ब्लॉक में जब वह अपने सहकर्मियों का शुक्रिया अदा कर रहे थे, तब उन्हें अपने दफ्तर में देखने की आदी हो चुकी कई आंखें सजल हो उठी थीं। यह स्वाभाविक ही था। वर्तमान जब इतिहास बनने की ओर बढ़े, तो कुछ छूट जाने की टीस लाजमी है।
इस साल जनवरी के पहले सप्ताह में ही प्रधानमंत्री ने साफ कर दिया था कि वह रिटायर हो रहे हैं और राहुल गांधी यूपीए-3 के स्वाभाविक नेता होंगे। तभी से आहिस्ता-आहिस्ता उन्होंने अपनी भूमिका समेटनी शुरू कर दी थी। बतौर प्रधानमंत्री और उसके पहले वित्त मंत्री के रूप में मनमोहन सिंह ने देश की बेहतर सेवा की है और इसे देश जरूर याद रखेगा। उनके प्रधानमंत्री काल का मूल्यांकन इतिहास को करना है, और तब वह कितना उदार होगा व कितना आलोचनात्मक, यह इतिहासकारों के ऊपर ही छोड़ना बेहतर है। लेकिन आज इतना जरूर कहा जा सकता है कि तब वक्त आज से कहीं अधिक तटस्थ होगा, क्योंकि उस समय उसके आगे कुछ और नजीरें होंगी, जिनके बरक्स वह मनमोहन सिंह को अपनी कसौटियों पर कस सकेगा।
वैसे पिछले बीस-बाईस वर्षों में हम सबने भारत को जिस तेजी से बदलते देखा है, उस बदलाव की बुनियाद रखने में मनमोहन सिंह के रोल को इतिहास दरगुजर नहीं कर सकता। इसमें कोई दोराय नहीं कि तब नरसिंह राव जैसे परिपक्व नेतृत्व का उन्हें साथ मिला था और तमाम विपरीत परिस्थितियों में वे दोनों मिलकर देश को आर्थिक तरक्की की राह पर आगे बढ़ा सके थे।
यह एक निपट सच्चई है कि 1991 से 1996 तक उनकी आर्थिक नीतियों की प्रखर आलोचना करने वालों ने बाद में न सिर्फ उन नीतियों की बढ़-चढ़कर पैरोकारी की, बल्कि उनको रफ्तार देने के लिए एनडीए की सरकार तो कई बार अविवेकपूर्ण फैसलों की हद तक गई। जाहिर है, आर्थिक उदारीकरण और सुधारों की निरंतरता ने इस बात की ताईद की कि नरसिंह राव और मनमोहन सिंह ने 1991 में जो रास्ता अख्तियार किया था, वह देशहित में था।
साल 2004 में प्रधानमंत्री के रूप में सोनिया गांधी ने जब मनमोहन सिंह का नाम आगे बढ़ाया, तब पूरे देश ने इत्मीनान की सांस ली थी। क्यों? क्योंकि मनमोहन सिंह के पास एक काबिल वित्त मंत्री की स्थापित और आजमाई हुई पहचान थी, फिर उनकी ईमानदारी, शराफत और सियासी छल-छद्म के प्रति निर्लिप्तता का लोहा उनके विरोधी भी मानते थे। इसीलिए जब यूपीए-एक के काल में वाम दलों ने अमेरिका के साथ परमाणु करार के मसले पर सरकार का दामन झटका, तब देश मनमोहन सिंह के साथ रहा और उसने उन्हें दोबारा चुनकर इसकी तस्दीक भी की। दस वर्षो तक देश की बागडोर संभालने वाला शख्स अब जब विदा हो रहा है, तो कोई नहीं कह सकता कि उसने अपने व्यक्तित्व की कोई पूंजी गंवाई है।
लेकिन यह सच है कि मनमोहन सिंह जननेता नहीं बन सके। शायद उनका मिजाज इसके अनुकूल नहीं था। इसीलिए वह लोगों से संवाद बनाने की कला नहीं सीख पाए। प्रधानमंत्री कार्यालय लाख दावे करे कि इन दस वर्षो में वह हजार से ज्यादा बार देश के लोगों से मुखातिब हुए, मगर हकीकत यह है कि उनमें से ज्यादातर उनका एकतरफा संबोधन था। इन दस वर्षो में कहां किसी ने मनमोहन सिंह को आम अवाम या दूसरी पार्टी के राजनीतिकों के साथ बेफिक्र होकर टहलते या बतियाते देखा? वह अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, बल्कि अपने राजनीतिक गुरु नरसिंह राव से इस मामले में काफी कुछ सीख सकते थे, मगर वह हमेशा औपचारिक मुद्रा में ही दिखे। राजनीतिक प्रबंधन, गठबंधन की उलझनों को सुलझाने का जिम्मा उन्होंने एक तरह से पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के जिम्मे छोड़ दिया था। इससे पार्टी के भीतर वह अपना वकार खुद ही कम करते गए। ऐसे में, भला विपक्ष उनकी इस कमजोरी का लाभ क्यों नहीं उठाता? उसने निरंतर उन्हें एक कमजोर प्रधानमंत्री के रूप में लोगों की धारणाओं में उतारने की कोशिश की।
मनमोहन सिंह की दूरदर्शिता पर सवाल नहीं उठा, उनकी खामोशी लोगों को चुभती रही। विडंबना देखिए कि जिस व्यक्ति की सरकार ने अपने देश के नागरिकों को सबसे अधिक अधिकार संपन्न बनाया, वह इस तोहमत को झटक ही नहीं सका कि वह जनता की तकलीफों के प्रति संजीदा नहीं है। सूचना का अधिकार हो या शिक्षा का; मनरेगा हो या किसानों की कर्ज माफी; भोजन का अधिकार हो या फिर भूमि अधिग्रहण कानून; इन सबका श्रेय कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी या फिर पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के खाते में गया। यह सही है कि इनमें से कुछ कार्यक्रमों की रूपरेखा सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने तैयार की थी, लेकिन धीरे-धीरे लोगों में मनमोहन सिंह को लेकर यही धारणा बनती चली गई कि वह महज एक विद्वान प्रशासक हैं, राजनेता नहीं।
एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के रूप में देश के लोगों को डॉक्टर सिंह से हमेशा यह अपेक्षा रही, और होनी भी चाहिए थी कि वह उनके आर्थिक हितों की बेहतर देखभाल करेंगे, लेकिन यूपीए-दो की सरकार में एक के बाद दूसरे घोटालों के सामने आने से न सिर्फ लोगों की निगाह में उनकी सरकार का इकबाल घटा, बल्कि लगातार बढ़ती महंगाई और नए-नए आश्वासनों के बावजूद उसके बेकाबू रह जाने से लोगों का भरोसा भी टूटा। कई विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी की जबर्दस्त पराजय से इस बात की पुष्टि हो गई कि लोग क्या सोच रहे हैं।
प्रत्येक लोकतंत्र में सरकार की कामयाबी और नाकामयाबी, यश और अपयश, दोनों का सेहरा उसके मुखिया के माथे ही बंधता है। इतिहास प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी इसमें किसी तरह की रियायत नहीं बख्शेगा। मगर हिन्दुस्तान की तारीख इस बात पर जरूर फा करेगी कि मनमोहन सिंह जैसा एक बेहतरीन इंसान कभी उसका प्रधानमंत्री रहा। हम जिस सियासी दौर में आज हैं, वह अपने विरोधियों को इज्जत बख्शने का शऊर भूल गया है। मगर हमारी राजनीति की नई नस्लें डॉक्टर सिंह की शख्सियत से यह तो सीख ही सकती हैं कि दशकों तक सत्ता की काल कोठरी में रहने के बाद भी उससे बेलौस कैसे निकला जाता है। इसलिए, हम देश के नए नेतृत्व का स्वागत जरूर करें और पूरे उत्साह के साथ करें, मगर जो जा रहा है, उसे उसकी उसी सज्जनता के साथ विदा करें, जिसके लिए वह दुनिया भर में सराहा जाता रहा है। लोकतंत्र का यही तकाजा है और आदमीयत का भी।