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शीर्ष पर सुहाग

लेफ्टिनेंट जनरल दलबीर सिंह सुहाग के थल सेना प्रमुख नियुक्त हो जाने के बाद इस मामले में विवाद खत्म हो जाना चाहिए। हमें यह उम्मीद करनी चाहिए कि अगली केंद्र सरकार जिसकी भी हो, वह थल सेनाध्यक्ष के पद को...

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लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 13 May 2014 08:56 PM
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लेफ्टिनेंट जनरल दलबीर सिंह सुहाग के थल सेना प्रमुख नियुक्त हो जाने के बाद इस मामले में विवाद खत्म हो जाना चाहिए। हमें यह उम्मीद करनी चाहिए कि अगली केंद्र सरकार जिसकी भी हो, वह थल सेनाध्यक्ष के पद को विवाद में नहीं घसीटेगी। मनमोहन सिंह सरकार थल सेनाध्यक्ष की नियुक्ति पहले ही करना चाहती थी, लेकिन इस बात को लेकर विवाद हो गया कि क्या एक जाती हुई सरकार को नियुक्ति करनी चाहिए या यह काम अगली सरकार पर छोड़ देना चाहिए। रक्षा मंत्रालय ने यह मामला चुनाव आयोग की मंजूरी के लिए भेज दिया था। चुनाव आयोग ने रक्षा मंत्रालय के नियुक्ति के अधिकार को स्वीकृत किया। चुनाव आयोग का कहना है कि रक्षा मामलों से जुडे़ फैसले करने में आचार संहिता आड़े नहीं आती। इसके बाद जनरल सुहाग की नियुक्ति की राह खुल गई। थल सेनाध्यक्ष की नियुक्ति को लेकर सिर्फ आचार संहिता का विवाद नहीं था, इसमें कुछ अन्य विवाद और कानूनी मसले भी खड़े किए गए थे, लेकिन सरकार ने वरिष्ठता के पारंपरिक प्रतिमान को मानते हुए जनरल सुहाग को थल सेनाध्यक्ष बनाने का फैसला किया।

वरिष्ठता को सामान्यत: थल सेनाध्यक्ष बनाने के लिए योग्यता माना जाता है और जनरल सुहाग फिलहाल उप थल सेनाध्यक्ष हैं, इसलिए इस बात पर विवाद नहीं होना था। भारतीय जनता पार्टी ने इस बात को मुद्दा बनाया कि एक जाती हुई सरकार क्यों महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियां कर रही है। कुछ मामलों में भाजपा के ऐतराज जायज थे, जैसे लोकपाल की नियुक्ति के मसले पर। आखिरकार सरकार ने वह मसला अगली सरकार पर छोड़ भी दिया। इस सरकार ने  कुछ और भी नियुक्तियां की हैं, जिन पर सवाल उठाए जा सकते हैं या अगर अगली सरकार राजग की बनी, तो वे रद्द भी हो सकती हैं, लेकिन यह बात थल सेनाध्यक्ष के बारे में जायज नहीं है। सेना प्रमुखों की नियुक्ति अमूमन तीन महीने पहले की जाती है और वर्तमान थल सेनाध्यक्ष जनरल बिक्रम सिंह 31 जुलाई को रिटायर हो रहे हैं। इसके पहले भी ऐसा हो चुका है कि किसी जाती हुई सरकार ने सेना प्रमुख की नियुक्ति की, लेकिन उस पर कोई विवाद नहीं हुआ।

भाजपा अगर इसे राजनीति का मुद्दा बनाती है, तो चाहे-अनचाहे उस पर सेना को राजनीति में घसीटने का आरोप लगेगा, क्योंकि इस मामले में अब पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह का नाम भी आएगा। जब जनरल वी के सिंह थल सेनाध्यक्ष थे, तब उन्होंने किसी मामले में जनरल सुहाग को दोषी मानते हुए उनकी तरक्की पर रोक लगा दी थी। जनरल बिक्रम सिंह ने नेतृत्व की कमान संभालने के तुरंत बाद यह रोक हटा दी। बाद में जांच में दो जूनियर अधिकारियों को उस मामले में दोषी पाया गया, जिसमें जनरल सुहाग की तरक्की रोक दी गई थी। जनरल सिंह के एक करीबी रिश्तेदार लेफ्टिनेंट जनरल अशोक सिंह भी थल सेनाध्यक्ष के पद के दावेदार थे, इसलिए इस मामले पर विवाद बेवजह राजनीतिक उलझनें पैदा करेगा, भले ही लोगों की मंशा ऐसी न हो।

इस विवाद से अब किसी सेना प्रमुख की नियुक्ति के बारे में कानूनी और सांविधानिक स्थिति स्पष्ट हो गई है और शायद भविष्य में ऐसा विवाद न हो। सेना के मामलों में यथासंभव निर्विवाद फैसले करने की परंपरा रही है और अगर प्रचलित नियमों और स्थापित परंपराओं के मुताबिक कोई काम किया जाता है, तो उस पर आपत्ति की कोई वजह नहीं है। नए सेनाध्यक्ष के सामने कई चुनौतियां होंगी, जिनमें सैन्य आधुनिकीकरण और रक्षा सामग्री की कमी को दूर करना शामिल हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि नई सरकार और सेना परस्पर सहयोग बनाए रखकर देश की रक्षा को कमजोर नहीं होने देंगी।

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