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निर्थक बहसें और असली चुनौतियाँ

आरक्षण की बोतलों से निकले एक लावारिस जिन्न ने इन दिनों हठात् राजस्थान से लेकर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र तक को दबोच लिया है। जिन्न लावारिस इसलिए है कि पिछले चुनावों में गुर्जरों से वायदा कर मुकरने...

 निर्थक बहसें और असली चुनौतियाँ
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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आरक्षण की बोतलों से निकले एक लावारिस जिन्न ने इन दिनों हठात् राजस्थान से लेकर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र तक को दबोच लिया है। जिन्न लावारिस इसलिए है कि पिछले चुनावों में गुर्जरों से वायदा कर मुकरने वाले क्षेत्रीय नेताओं से लेकर आरक्षण के आधार पर उच्चशिक्षा में सुनामी ला चुकी केन्द्र सरकार तक, कोई अब उसका आका नहीं बनना चाहता। गोलियाँ चलने के बाद मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने एक सिफारिशी चिट्ठी लिख कर गेंद केन्द्र के पाले में फेंक दी है और केन्द्र सरकार ने प्रस्ताव पर कंधे उचका दिए हैं। करने को हर नेता, हर पार्टी ने हिंसक आंदोलन का विरोध किया है। कांग्रेस-भाजपा के तूफानी गुर्जर नेता स्तब्ध हैं, पर जिन्न ने राष्ट्र की राजधानी के गिर्द अपनी गिरफ्त ढीली नहीं की है। प्रांतीय नेताओं को अंदाजा नहीं था, कि इस बार आरक्षण के चिराग को रगड़ने से इतनी जल्द यह हाल बन जाएगा। भय से सब खामोश हैं। जिन्न को नाराज कर अपना राजनैतिक फातेहा पढ़वाने का शौक किसीड्ढr को नहीं। इस लावारिस जिन्न के कई शक्लों वाले बिरादर राष्ट्रव्यापी हैं। उनमें से कोई झारखंड से लेकर राजस्थान तक एक चपेट में दर्जनों जानें ले लेता है, दूसरा देश के सर्वोच्च चिकित्सा संस्थानों में से एक के पूरे प्रशासनतंत्र को वह मटियामेट कर देता है। एक अन्य महिला-आरक्षण पर देश की संसद में अभूतपूर्व घटिया आचरण के मानदंड बनवाते हुए विचार के लिए गठित समिति में भी कार्रवाई को बाधित कर कोई विचारपरक बहसें नहीं होने देता। जिन्नों से आविष्ट माहौल में व्यर्थता और निराशा की भावना ऐसी घर कर गई है कि चंबल के गुर्जर डाकू दस्ते भी खुलेआम कह रहे हैं कि वे बीहड़ से निकल कर मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के महल को आग लगा देंगे। दो चीजें जरूर दिखाई देती हैं। एक तो यह, कि ऐसी बहसें अक्सर कोई सत्तारूढ़ दल छेड़ता है, और फिर उसके इर्द-गिर्द प्रतिपक्षी आ जुटते हैं। इसके बाद पूरी बहस आरक्षण मुद्दे को दफना कर सिर्फ हॉं अथवा ना के दो ध्रुवों पर सिमट जाती है। गुर्जरों को अजाजजा वर्ग में जगह मिले, हॉं, कि नहीं? जल्दी से इनमें से एक पर टिक मार्क लगाओ। हमारे टेलीविजन चैनल भी पूरे जोश-खरोश से दर्शकों से एसएमएस पर ‘हॉं’ या ‘ना’, या ‘पता नहीं’ के एक अक्षरीय उत्तर मॅंगवाते हैं, और शाम के बुलेटिन तक उनके आधार पर राष्ट्रीय निष्कर्ष जारी हो जाते हैं। यह पैंतरे चैनलों और सेलुलर सेवाएॅं देने वाली कंपनियों को भले मालामाल कर रहे हों। असली विचारणीय मुद्दों को तलघर में ोज कर वे देश का भारी अहित कर रहे हैं। अगर जनमत हॉं या ना तक और प्रश्न भी इतने तक ही ठिठके रहें, कि कोर्ट के निर्देशों से बचते हुए इस बार नए आरक्षण का गणितीय प्रतिशत कैसे बैठे? महिलाओं का कोटा मान्य प्रतिशत के भीतर हो या उसके अतिरिक्त? तब तो लाखों एसएमएस मॅंगाने पर भी बहस बोधगम्य और सार्थक नहीं बनेगी। तो क्या गुर्जर आरक्षण या उच्चशिक्षा प्रबंधन तथा तकनीकी प्रबंधन संस्थानों में आरक्षण पर अब तक हुई बहसें निर्थक हैं? निश्चय ही जो लोग इन्हें उठा रहे हैं उनके लिए तो वे निर्थक नहीं हैं। लेकिन देश के लिए वे सार्थक तभी होंगी, यदि जनता के मन में पक्का यकीन हो कि अजरुन सिंह, रामदौस, वसुंधरा राजे, या मुलायमसिंह आदि राय तथा राजनीति का चरित्र बदल कर उसको अधिक समतावादी, अधिक लोकतांत्रिक बनाने के इच्छुक हैं। अथवा उपरोक्त नेताओं के प्रतिपक्षी, जो उनके प्रस्तावों को चुनौती दे रहे हैं, वह सिर्फ विपक्षी होने के नाते या अपने राजनैतिक कैरियर को परवान चढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि वृहत्तर राष्ट्रहित में सोचते हैं। चूॅंकि सत्तारूढ़ या विपक्षी नेताओं तथा उनके पिट्ठू बन गए प्रशासन को लेकर ऐसा कोई खास यकीन काश्मीर से कन्याकुमारी तक कहीं भी मौजूद नहीं है, इसलिए यह सारी बहसें बॉंझ हैं। वे एक नूराकुश्ती बन कर शुरू होती हैं, और निर्दोष लोगों के जीवन को छिन्न-भिन्न कर विसर्जित। आर्थिक विषमता व सामाजिक अन्याय कैसे हटें? यह मूल मुद्दा जस का तस बना रहता है। और इसीलिए उच्चशिक्षा में आरक्षण को लेकर हाल में छिड़ी बहसों और आन्दोलनों के सिलसिले को भी लोग भय, शंका और गुस्से से देखते हैं। सच तो यह है कि चुनाव निकट हैं, अत: हमारी अधिकतर राय सरकारें इस बार भी अपने-अपने जातीय सांप्रदायिक वोट बैंकों को फौरी तौर से खुश करने के लिए अपना खजाना सस्ती बिजली, पानी, रिहायशी आवास, रंगीन टीवी और आरक्षण जसे झुनझुनों पर लुटा रही हैं। नतीजा यह, कि उतर प्रदेश, बिहार, और मध्यप्रदेश जसे पिछड़े रायों में ही नहीं, आंध्र, गुजरात जसे समृद्ध रायों में भी शिक्षा का बजट कट रहा है, बुनियादी शिक्षा चरमरा रही है, और विश्वविद्यालयों की दशा भी खस्ता होती जा रही है। केंद्र सरकार यह दावा जरूर कर रही है कि इस बार के बजट में शिक्षा की मद के लिए उसने अभूतपूर्व रूप से ऊंॅचा (35 प्रतिशत अधिक) प्रावधान रखा है। लेकिन उस बजट को ग्यारहवीं पंचसाला योजना की प्राथमिकताओं के उजास में देखने पर यह दावा ढीला लगता है। दरअसल सरकार ने धनराशि बुनियादी शिक्षा नहीं, बल्कि माध्यमिक, उच्चतकनीकी तथा उच्च शिक्षा के लिए ही बढ़ाई है। यानी घोषित सरकारी लक्ष्य अब बुनियादी सर्वशिक्षा अभियान के विस्तार का नहीं है। क्योंकि पूरी तवज्जो उन विश्वस्तरीय मॉडल स्कूलों, आई.आई.टी. तथा आई.आई.एम. की स्थापना को दी जा रही है, जो अधिकतर छात्रों को बेहतर नागरिक या राष्ट्रीय क्षेत्र के लिए कुशल कामगार बनाने की बजाए प्राय: उनको विश्व बाजार की मॉंगों को पूरा करने के लिए ही तैयार करते हैं। प्राथमिक शिक्षा के लिए शिक्षा पर लगाए नए करों या उपकरों से जमा की गई राशि के ही इस्तेमाल पर ही अधिक जोर है। इस वजह से 2005 में कराधान से बने ‘प्रारंभिक शिक्षा कोष’ के पैसे को सर्वशिक्षा अभियान और प्राइमरी स्कूल के बच्चों को दोपहर का भोजन देने के लिए अधिकाधिक (74 प्रतिशत तक) खर्च किया जाने लगा है। जबकि मूल दृष्टि यह थी कि बुनियादी शिक्षा के लिए पहले सरकार द्वारा आवंटित राशि खत्म हो उसके बाद ही इस कोष को हाथ लगाया जाए। पिछले वर्ष माध्यमिक तथा उच्चशिक्षा पर भी उपकर लगाए गए। दो वर्षो में जो (क्रमश: 1736 करोड़ तथा 10 करोड़ की) राशि उनकी मार्फत जुटाई गई, बताया जा रहा है कि वह 3500 नए सरकारी (केन्द्रीय तथा नवोदय) विद्यालय बनाने में खर्च की जाएगी। लेकिन 11वीं योजना इसी के साथ जोड़ रही है, कि यह तमाम स्कूल आगे से सरकार नहीं चलाएगी। वे निजी (कार्पोरेट क्षेत्र, ट्रस्ट, अनुदान तथा जानेमाने निजी शिक्षादाता संस्थानों) और सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी से ही संचालित होंगे। निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र के हितों और दृष्टि में कई जगह सीधा टकराव है। और ऐसे में निजी क्षेत्र अपनी ऊॅंची आर्थिक-सामाजिक हैसियत के चलते यदि इस क्षेत्र में सिर्फ अपनी ही इच्छानुसार अजंडा तय तथा लागू करने का काम हथिया लें तो यह भारी अचरज नहीं, किन्तु दु:ख की बात जरूर होगी। लेकिन जिस वक्त संसाधन तथा पूरी बहस आई.आई.टी., आई.आई.एम. और एम्स में दाखिले के कोटे और वजीफे तय करने पर ही मोड़ दिए गए हों, तो बुनियादी शिक्षा की इन विसंगतियों पर रोने-झींकने का वक्त किसके पास है?ं

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