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आजमगढ़ की पहचान रही है गंगा-जमुनी तहजीब

चुनावी सियासत में आजमगढ़ पर आतंकवाद का गढ़ होने के आरोप भले लगाए जा रहे हों, पर राहुल सांकृत्यायन, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, शिबली नोमानी, कैफी आजमी और छन्नू लाल मिश्र की इस भूमि पर गंगा जमुनी...

आजमगढ़ की पहचान रही है गंगा-जमुनी तहजीब
एजेंसीMon, 05 May 2014 04:33 PM
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चुनावी सियासत में आजमगढ़ पर आतंकवाद का गढ़ होने के आरोप भले लगाए जा रहे हों, पर राहुल सांकृत्यायन, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, शिबली नोमानी, कैफी आजमी और छन्नू लाल मिश्र की इस भूमि पर गंगा जमुनी तहजीब आज भी बरकरार है।

सुविधाओं के अभाव, पिछड़ेपन और तमाम तरह की परेशानियों के बीच विभिन्न वर्गों के लोग भाइचारे की इस डोर को थामे हुए हैं। भाइचारे की डोर को ऊंचाई पर पहुंचाने की कवायद में हरिहरपुर घराने के कलाकारों ने संगीत को माध्यम बनाया है तो दूसरी ओर सामुदायिक रेडियो वायस आफ आजमगढ़ ने भी इस दिशा में महत्वपूर्ण पहल की है।
 
वायस आफ आजमगढ़ की वरिष्ठ प्रबंधक सीमा भारती श्रीवास्तव ने कहा कि सतही स्तर पर आजमगढ़ की जैसी भी धारणा बनी हो, लेकिन राहुल सांकृत्यायन, हरिऔध, शिबली नोमानी और कैफी आजमी जैसे अजीम तरीम लोगों की इस भूमि पर गंगा जमुनी तहजीब आज भी बरकरार है। वायस आफ आजमगढ़ के माध्यम से हमारी कोशिश लोगों की आवाज बनना है।
 
रेडियो जाकी राहत बानो बनारस से आजमगढ़ नौकरी करने आई हैं। उन्होंने कहा कि हम आजमगढ़ की उन महिलाओं की आवाज बनना चाहते हैं जिनके पति काम की तलाश में बाहर गए हैं। आजमगढ़ में ही हरिहरपुर गांव स्थित है जो संगीत के लिहाज से हरिहरपुर घराने के रूप में विख्यात है। इस घराने से संबद्ध कलाकार संगीत के माध्यम से भाइचारे की डोर को ऊंचाइयों पर पहुंचाने में लगे हैं।
 
संगीतकार कमलेश कुमार मिश्रा ने कहा कि संगीत आजमगढ़ के दिल में बसा है। काफी छोटी उम्र से ही बच्चों संगीत की अपनी पुरानी विरासत को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं। युवक खेतों में काम करते हुए भी इस परंपरा को जीवित रखे हुए हैं। सुविधाओं का अभाव है लेकिन लोग निराश नहीं हुए हैं।
 
सामाजिक कार्यकर्ता हृषिकेश सुलभ ने कहा कि खड़ी बोली के पहले महाकाव्य प्रियप्रवास के रचयिता आयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की जन्मस्थली इस क्षेत्र में उनकी स्मृतियां मिट रही है। उन्होंने कहा कि आजमगढ़ शहर से 17 किलोमीटर दूर हरिऔध के गांव निजामाबाद में उनका घर बदहाली की गाथा बयां कर रहा है। सर्वेश्वर दयाल के शब्दों में कहें तो, इस नदी के किनारे अब कोई मेला नहीं लगता।

सुलभ ने कहा कि यहीं बाबू कुंवर सिंह ने 1857 का स्वतंत्रता संग्राम लड़ा था। 15 दिनों तक आजमगढ़ अंग्रेजों से आजाद रहा। लेकिन बाबू कुंवर सिंह का प्रतीक चिन्ह अब कहीं नजर नहीं आता है। कोई इसकी सुध लेने वाला नहीं है। तमाम नकारात्मक बातें सामने आने के बाद भी लोगों ने उम्मीद नहीं छोड़ी है।
 
आजमगढ़ में बुनकरों की स्थिति काफी खराब है। लोग इस पेशे को छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं। आजमगढ का मुबारकपुर क्षेत्र साड़ियों के लिए प्रसिद्ध रहा हैं लेकिन इससे क्षेत्र में बुनकर समुदाय बदहाल है। शादियों में यहां की साड़ियां परंपरा के तौर पर खरीदी जाती है। लेकिन यह अब अपनी चमक खोता जा रहा है, उद्योग संकट में है और कारीगर अपना पारंपरिक पेशा छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं। चुनाव में वादों की चासनी से अब बुनकर समुदाय उब चुका है।
 
वादों के सैलाब के बीच आजमगढ़ के लोग पुरानी पहचान वापस पाने की आस में है।

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