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समलैंगिक संबंधों पर बैन का स्वागत और आलोचना दोनों

उच्चतम न्यायालय ने समलैंगिक कार्यकर्ताओं को झटका देते हुए समलैंगिक संबंधों को उम्रकैद तक की सजा वाला जुर्म बनाने वाले दंड प्रावधान की संवैधानिक वैधता को आज बहाल रखा।    न्यायमूर्ति जीएस...

समलैंगिक संबंधों पर बैन का स्वागत और आलोचना दोनों
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 11 Dec 2013 07:41 PM
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उच्चतम न्यायालय ने समलैंगिक कार्यकर्ताओं को झटका देते हुए समलैंगिक संबंधों को उम्रकैद तक की सजा वाला जुर्म बनाने वाले दंड प्रावधान की संवैधानिक वैधता को आज बहाल रखा।
  
न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय की पीठ ने दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा 2009 में दिए गए उस फैसले को दरकिनार कर दिया, जिसमें वयस्कों के बीच पारस्परिक सहमति से बनने वाले समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया था।
  
पीठ ने विभिन्न सामाजिक और धार्मिक संगठनों की उन अपीलों को स्वीकार कर लिया जिनमें उच्च न्यायालय के फैसले को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि समलैंगिक संबंध देश के सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों के खिलाफ हैं। न्यायालय ने हालांकि यह कहते हुए विवादास्पद मुद्दे पर किसी फैसले के लिए गेंद संसद के पाले में डाल दी कि मुद्दे पर चर्चा और निर्णय करना विधायिका पर निर्भर करता है।
  
शीर्ष अदालत के फैसले के साथ ही समलैंगिक संबंधों के खिलाफ दंड प्रावधान प्रभाव में आ गया है। जैसे ही फैसले की घोषणा हुई, अदालत में पहुंचे समलैंगिक कार्यकर्ता निराश नजर आए।

पीठ ने कहा कि भादंसं की धारा 377 को हटाने के लिए संसद अधिकृत है, लेकिन जब तक यह प्रावधान मौजूद है, तब तक न्यायालय इस तरह के यौन संबंधों को वैध नहीं ठहरा सकता। फैसले की घोषणा होने के बाद समलैंगिक कार्यकर्ताओं ने कहा कि वे शीर्ष अदालत के फैसले की समीक्षा की मांग करेंगे।

विभिन्न गैर सरकारी संगठनों की याचिका
योग गुरु बाबा रामदेव के अलावा विभिन्न गैर सरकारी संगठनों की विशेष अनुमति याचिकाओं पर कोर्ट ने अपना महत्वपूर्ण फैसला दिया है। बाबा रामदेव और कुछ धार्मिक व गैर सरकारी संगठनों ने दिल्ली हाईकोर्ट के जुलाई 2009 के फैसले को यह कहते हुए चुनौती दी थी कि हाईकोर्ट का यह फैसला देश की संस्कृति के लिए खतरनाक साबित होगा।

याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि भारत की संस्कृति पाश्चात्य देशों से अलग है और इस तरह के आदेश देश की सांस्कृतिक नींव हिला सकते हैं। उनकी यह भी दलील थी कि समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता नहीं दी जानी चाहिए, क्योंकि ये प्रकृति के खिलाफ भी है।

दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला
उल्लेखनीय है कि दिल्ली हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एपी शाह की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने आपसी सहमति से वयस्कों के बीच बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से हटाने का आदेश दिया था। भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा-377 के तहत सहमति से भी बनाए गए समलैंगिक संबंधों को जुर्म माना गया है।

समलैंगिक निराश
अदालत के बाहर मौजूद कार्यकर्ताओं ने कहा कि इस निर्णय से हमारा जीने का अधिकार छिन गया है। उन्होंने यह भी मांग की कि 1861 के उस कानून को बदला जाए जिसके तहत धारा 377 एक दंडनीय अपराध है। कार्यकर्ताओं ने कहा कि क्या यह अपराध है कि एक बच्चा समलैंगिक पैदा होता है यह तो प्राकृतिक भावना होती है। किसी को इस बात का हक नहीं है कि वह समलैंगिक को दोषी ठहराए।
     
समलैंगिकों के अधिकारों के लिए काम करने वाले पल्लव पाटणकर ने कहा कि हम फिर से अंधकार में चले गए है। मैं इससे बिल्कुल खुश नहीं हूं। हम लड़ेंगे क्योंकि हमारा संघर्ष अभी समाप्त नहीं हुआ है। ऐसा फैसला मानवाधिकार दिवस के अगले दिन सुनाया गया है। मुझे लगता है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ साथ अन्य लोग यह देख रहे हैं कि देश में क्या हो रहा है और हमें इस बारे में सोचने की जरूरत है कि हम कहां जा रहे हैं।

उन्होंने कहा कि गेंद पहले ही केंद्र सरकार के पाले में डाल दी गई थी जिन्होंने इस बारे में चर्चा करने से इनकार कर दिया और इसलिए उन्होंने (नाज फाउंडेशन) न्यायपालिका का मार्ग चुना। मुझे लगता है कि वे निर्णय में देरी कर रहे हैं।
     
मुंबई से यहां आए एक समलैंगिक ने कहा कि अदालत ने मेरे मौलिक अधिकार को चुनौती दी है। मुझे वह बने रहने का अधिकार है जो मैं हूं। समलैंगिक अधिकारों के लिए काम करने वाली एक और कार्यकर्ता शोविनी घोष ने न्यायालय के फैसले पर हैरानी जताते हुए कहा,  हम अपनी रणनीति तैयार करेंगे। यह आंदोलन जारी रहना चाहिए, हम हार नहीं मानेंगे। मैं पहले इस बात को चुनौती देती हूं कि एक धर्मनिरपेक्ष देश में धार्मिक समूह कैसे आज्ञा दे सकते हैं।

सरकार करे कानून में संशोधन
धारा 377 के तहत दो व्यस्कों के बीच समलैंगिक रिश्ते को अपराध माना गया है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने धारा 377 के तहत के समलैंगिक रिश्ते को गैर अपराधिक कृत्य करार दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने महाधिवक्ता से कहा कि अगर सरकार चाहे तो कानून में संशोधन करवा सकती है। न्यायालय ने धारा 377 पर मार्च 2012 में हुई सुनवाई को सुरक्षित रखा था और 21 महीने बाद यह फैसला आया है।

ऐतिहासिक अवसर गंवाया
अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल (एएसज) इंदिरा जयसिंह ने समलैंगिक संबंधों को उच्चतम न्यायालय द्वारा दंडनीय अपराध ठहराए जाने पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए आज कहा कि संवैधानिक मूल्यों को विस्तारित करने का ऐतिहासिक अवसर खो गया है।
  
समलैंगिक कार्यकर्ताओं को अपना समर्थन देते हुए एएसजी ने कहा कि समलैंगिकता के लिए दंडनीय प्रावधान मध्यकालीन सोच का प्रतिबिंब है। उन्होंने सवाल उठाया कि पीठ ने मुद्दे पर फैसला करने के लिए गेंद विधायिका के पाले में क्यों डाली जब बहुत से अन्य मुद्दों और नीतियों की समीक्षा शीर्ष न्यायालय द्वारा की जा रही है।
  
जयसिंह ने कहा कि संवैधानिक मूल्यों को विस्तारित करने का ऐतिहासिक अवसर खो गया है। उन्होंने कहा कि यह आश्चर्यजनक है कि जो न्यायालय बहुत से मुद्दों पर न्यायिक समीक्षा करता है, उसने समलैंगिकता पर फैसले के लिए गेंद संसद के पाले में डाल दी है।

कानून को तत्काल समाप्त करने की वकालत
प्रख्यात वकील और कांग्रेस के प्रवक्ता एवं सांसद अभिषेक मनु सिंघवी ने समलैंगिकता को अपराध मानने वाले कानून को तत्काल समाप्त करने की आज वकालत की। सिंघवी ने उच्चतम न्यायालय के आज का निर्णय सुनाने वाले न्यायाधीशों को बधाई दी, जिन्होंने जन धारणाओं के खिलाफ जाने का साहस दिखाया और उनके इस विचार से भी सहमति जताई कि यह मामला न्यायिक विधान लाने का है। 
    
सिंघवी ने कहा कि मैं एक वकील के नाते आप से इस बारे में बात कर रहा हूं, एक सांसद या कांग्रेस के प्रवक्ता की हैसियत से नहीं, क्योंकि यह मामला राजनीतिक नहीं है। अलबत्ता मैं उन न्यायाधीशों को निजी तौर पर बधाई देना चाहता हूं, जिन्होंने इस मामले में लोकप्रिय धारणाओं और जनमत के खिलाफ जाने का साहस दिखाया।

सिंघवी ने कहा कि मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि यह मामला पूरी तरह विधायिका का है और साथ ही मेरा यह भी पुख्ता मानना है कि समलैंगिकता को अपराध मानने वाले इस प्रावधान को तुरंत समाप्त कर दिया जाना चाहिए।

राजनीतिक दलों की सावधानी भरी प्रतिक्रियाएं  
अक्सर प्रगतिशील रुख अपनाने वाली मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी तक ने इस मुद्दे पर स्पष्ट रुख अख्तियार करने के बजाए इस फैसले की रोशनी में सर्वदलीय बैठक बुलाने में इस पर विचार करने की बात कही। 
     
दूसरी ओर सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर सीधी टिप्पणी करने से बचते हुए कहा कि इस फैसले के अध्ययन करने की जरूरत है। उनका कहना था कि जटिल मामला अप्राकृतिक यौन संबंध को आपराधिक मानने का है, दो वयस्कों की आपसी मर्जी से एक दूसरे के साथ जीने का नहीं। ऐसे में संसद की विधि मामलों की समिति में और सर्वदलीय बैठक में चर्चा होनी चाहिए। 
     
कांग्रेस की सांसद अनु टंडन ने उच्चतम न्यायालय के निर्णय का स्वागत करते हुए कहा कि यह मामला वाकई कानूनी अदालत में नहीं, बल्कि समाज की परिधि का है और इस पर बेशक संसद में ही विचार होना चाहिए। इसी पार्टी के मणिशंकर अय्यर ने सभी का समानता का अधिकार सुनिश्चित किए जाने की वकालत की। उन्होंने कहा कि समलैंगिकों को भी समान अधिकार मिलने चाहिए।

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