मनमोहन का रीलांच
विश्वासमत के राजनैतिक घमासान में से जो प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह जीत कर आए हैं वे पिछले साढ़े चार साल के डॉ. मनमोहन सिंह से अलग हैं। जब उन्होंने वामपंथियों के विरोध के बावजूद परमाणु समझौते को आगे...
विश्वासमत के राजनैतिक घमासान में से जो प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह जीत कर आए हैं वे पिछले साढ़े चार साल के डॉ. मनमोहन सिंह से अलग हैं। जब उन्होंने वामपंथियों के विरोध के बावजूद परमाणु समझौते को आगे बढ़ाने का फैसला किया, तभी उन्होंने राजनैतिक चुनौती से सीधे मुकाबला करने का रास्ता चुन लिया था। इसके बाद उन्होंने संसद में विश्वासमत प्राप्त करने का तय किया और यह दूसरी चुनौती थी। यह कहा जा सकता है कि जिस तरह से विश्वासमत प्राप्त किया गया उससे मनमोहन सिंह की साफ-सुथरी छवि को धक्का पहुंचा है, लेकिन यह साफ था कि मनमोहन सिंह को तब अपनी उस छवि को तोड़ना यादा जरूरी लग रहा था जो उनके विपक्षियों और वाम सहयोगियों ने बना रखी थी। उन्होंने यह तो सिद्ध कर ही दिया कि वे कमजोर और रक्षात्मक प्रधानमंत्री नहीं हैं। ये आरोप उन्हें कितना चुभ रहे थे यह उनके उस भाषण से जाहिर होता है जो उन्हें बहस के अंत में देना था और जिसे वे शोरगुल और समय की कमी की वजह से नहीं दे पाए। उसमें उन्होंने जसे तीखे व्यंग्यबाण लालकृष्ण आडवाणी और प्रकाश करात पर छोड़े हैं, ऐसी चुभती हुई, लगभग कड़वाहट भरी शैली का इस्तेमाल उन्होंने पहले कभी नहीं किया। इससे यही पता चलता है कि जो कुछ उन्हें सहना सुनना पड़ा है, उसकी वे भरपाई कर रहे हैं। इसका एक लाभ तो उन्हें यह होगा कि उनका दबदबा बढ़ेगा, और उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी और बड़े नौकरशाह उनका यादा सम्मान करेंगे। लेकिन इस नई शक्ित का उपयोग वे व्यापक समाज के हित में कैसा करते हैं, इससे तय होगा कि उनका सम्मान कितना स्थायी होगा इस संदर्भ में उनके भाषण में उल्लेखित नौ बिन्दु महत्वपूर्ण हैं। इनमें उन्होंने वे नौ क्षेत्र गिनवाए हैं जो देश की तरक्की के लिए महत्वपूर्ण हैं। अब वाम दलों का दबाव भी नहीं है तो प्रधानमंत्री को यह सिद्ध करना होगा कि अपने नए आक्रामक तेवर का इस्तेमाल वे इन क्षेत्रों में तरक्की के लिए कर रहे हैं। अगर वे ऐसा कर पाए तो यह उनके विरोधियों को असली जवाब होगा।