कचरे का करिश्मा
कितने मनोयोग और लगन से घर को कूड़ेदान के समकक्ष बनाया है पत्नी ने। दरअसल वह और नगर निगम दोनों बधाई के पात्र हैं। निगम ने पूर शहर में यही करतब कर दिखाया है। सड़कों को इांीनियरों ने संवारा है ढेर सार...
कितने मनोयोग और लगन से घर को कूड़ेदान के समकक्ष बनाया है पत्नी ने। दरअसल वह और नगर निगम दोनों बधाई के पात्र हैं। निगम ने पूर शहर में यही करतब कर दिखाया है। सड़कों को इांीनियरों ने संवारा है ढेर सार गड्ढों से और निगम ने नालियों को गंदगी से। नतीजतन, घर से हम नल के पानी से नहाकर निकलते हैं और गटर-ाल में तैरकर दफ्तर पहुंचते हैं। बरसात में अपनी ‘रूटीन’ है। गनीमत है। इधर लोग इश्क-विश्क जसी फिाूलियत में कम पड़ते हैं। जाने पहले क्या बीतती होगी प्रेमी-प्रेमिकाओं पर। एक हम हैं कि इस नाली के नाले से परशान हैं। बकौल शायर उनको तो आग के दरिया से तैर कर जाना होता था प्यार के सफर में। एक की, दूसरे बहादुरों से हमदर्दी स्वाभाविक है। इतनी बरसातों को भुगतकर भी अपन आज तक सही-सलामत हैं। इश्क के आधुनिक शिकार तो अक्सर जलते-झुलसते रहते हैं। हमें ताज्जुब है। कैसे गुजर करते होंगे, यह जले-भुने लोग। हाल में एक नए कवि के दर्शन हुए तो अचानक अपने पल्ले पड़ा। प्यार के झुलसे नई कविता पर हाथ आजमाते हैं, वर्ना आलोचना पर। कुछ ऐसे भी हैं जो सामान्य से ज्यादा झुलसे हैं। वह अपनी अबूझ कविता और आत्म-मुग्ध आलोचना दोनों से, साहित्य की सतत-समृद्धि में जुटे हैं। कोई और माने न माने, यह तो मानते हैं कि श्रेष्ठ साहित्य बपौती है इनकी। बाकी लेखन हेय है, निकृष्ट है। घटिया है। कूड़ा है। जब से हमने खबर पढ़ी है कि कचरे से पेट्रोल बनने की संभावना है, ऐसे कवियों-आलोचकों से हमें सहानुभूति हो चली है। मुहब्बत के इन बदकिस्मत लोगों का मानसिक कूड़ा तो पेट्रोल लायक भी नहीं है। साथ ही अब हमें भारत के उज्ज्वल भविष्य का पूरा यकीन है। देश पेट्रोल का धड़ाधड़ निर्यात करगा। हम अपने वर्तमान कूड़ा निवास को तेल का नलकूप बनाएंगे। महंगाई की मजबूरी में हमने स्कूटर बेचा है। अब लेंगे तो हम सिर्फ एक बड़की गाड़ी लेंगे। यह अपनी रिफाइनरी के कचरा-तेल से चलेगी। कचरा तेल की दौलत से बना अपना घर शेखों के महल से टक्कर लेगा। हमें डर है कि इस नए आविष्कार के आते ही कहीं मुल्क में कूड़े का अकाल न पड़ जाए। अर्थशास्त्र का एक जालिम नियम है। डिमांड की बेतहाशा वृद्धि से सप्लाई की कमी लाजिमी है। आशा की एक धुंधली-सी किरण है बस। क्या पता, तब तक मानसिक कचरे के उपलब्ध असीमित बौद्धिक भंडार से ईंधन बनाने की जुगत-ाुगाड़ कोई माई का लाल भिड़ा ही ले। हर हिन्दुस्तानी की तरह हमें विश्वास है कि जीवन जुगाड़ है।