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उनकी हिन्दी बनाम हमारी हिन्दी

या आपको भी कभी इस पर विस्मय हुआ है, कि टेलीविजन के लिए सरकार की पारिभाषिक शब्दावली में ईााद किये गये लफ ‘दूरदर्शन’ को आम जनता के बीच आज सिर्फ सरकारी चैनलों के लिए ही क्यों इस्तेमाल किया जाता है? और...

 उनकी हिन्दी बनाम हमारी हिन्दी
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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या आपको भी कभी इस पर विस्मय हुआ है, कि टेलीविजन के लिए सरकार की पारिभाषिक शब्दावली में ईााद किये गये लफ ‘दूरदर्शन’ को आम जनता के बीच आज सिर्फ सरकारी चैनलों के लिए ही क्यों इस्तेमाल किया जाता है? और पचास फीसदी लोग उसे आज दूरदर्शन की बजाए उसके अंग्रेजी के संक्षिप्त रूप में ‘डी.डी.’ के नाम से ही क्यों जानते हैं? शेष निजी चैनलों में से भी आधे नाम हिंदी के हैं तो आधे अंग्रेजी से निकले हैं। कभी अगर सरकारी तथा गैरसरकारी हिन्दी के बीच छॉंटना ही पड़ा, तो लोगबाग सरकारी हिन्दी का प्रयोग सिर्फ सरकारी दफ्तरों के साथ प्रशासकीय किस्म के पत्राचार के लिए ही इस्तेमाल करते हैं और बाकी सारा निपटान बोलचाल की उस हिन्दी में किया जाता है, जिसमें तमाम किस्म की भाषाओं के शब्द दिन-रात आकर दूध में चीनी की सहाता से घुलते रहे हैं। जाहिर है जो सहा लगेगा, वही बोला जाएगा। और जो बोला जाएगा, वही चलेगा। भाषा की परंपरा यह कहने से नहीं बनती कि परंपरा होनी चाहिए। न हमारी परंपरा में भाषायी बदलाव संदिग्ध हैं। भारत में भाषा का पहला शास्त्र (यास्क का निरुक्त) शब्द और अर्थ के रिश्ते की खोज से ही उपजा था। यास्क ने परंपरावादी व्याकरणाचार्यो से पूछा था कि वाक्य क्रियाप्रधान है या संज्ञाप्रधान इसकी चिंता छोड़ो। पहले सोचो कि हम जिस भाषा का प्रयोग करते हैं, उसे कितने लोग समझते हैं? हिन्दी के समकालीन साहित्य से हिन्दी-पट्टी का युवा क्यों कटता गया है? इसका जवाब यास्क के प्रश्न में छुपा है। जिस संस्कृतनिष्ठ राजभाषा का इस्तेमाल सरकारी हलकों में हो रहा है उसे रोमर्रा के काम में हिन्दी भाषी भी कितना समझते-इस्तेमाल करते हैं? हाल में दिल्ली में एक बड़े सरकारी बैंक की बड़ी शाखा में लेखिका ने अंग्रेजी में एक सुन्दर हिदायत लिखी देखी, जिसका सार था, कि अगर आप हमार काम-काज से सन्तुष्ट हैं, तो दूसरों को बताएं, और असन्तुष्ट हों तो हमें।़ वहॉं बैठने वाले मृदुभाषी और कार्यकुशल अधिकारी से वर्षो का परिचय है। उन्होंने वह हिदायत पढ़ते देखकर पूछा—‘इस मुहिम में आगे हम और क्या करं?’ ‘इसे आमफहम हिन्दी में भी लगवा सकेंगे क्या?’ पूछने पर उनका सलज्ज जवाब था, ‘मै’म तब तो शायद इसका अनुवाद कहीं बाहर से कराना पड़ेगा।’ भाषा अपने आप में एक अनूठी चीज है। अपने आप में उसकी कोई सत्ता नहीं होती। उसकी सत्ता इससे बनती है, कि उसकी मार्फत कितने लोग एक या अनेक लोगों से जुड़ते हैं। जब-ाब एक नया शब्द भाषा में आता है, अपनी संस्कृति और अर्थ का इतिहास लाता है। उसका भाषा की धार से मिलना दो एटमों के मिलने की तरह भाषा में नए अर्थ की ऊरा पैदा करता है, और तब भाषा क्रमश: अधिक सत्तावान और व्यापक बनने लगती है। इसलिए शब्दों की मार्फत पाठक तक जाने के लिए परंपरा से डर बिना यास्क की तरह हमको भी लीक छोड़ कर हिन्दी भाषा पर चिंतन करना होगा। आज के आत्मविश्वासी भारत में हिन्दी साम्राज्यवादिता का पुराना हौव्वा मिट चला है, और हिन्दी वालों की नाम पट्टिकाओं पर तमिलनाडु या कर्नाटक में डामर नहीं पोता जा रहा है। यह काम महाराष्ट्र में हो रहा है तो इसलिए कि वहॉं इस वक्त चंद जनाधार खोते नेता- अभिनेता पब्लिसिटी पाने को आतुर हैं। माचिस उन्हें जाने-अजाने बॉलीवुड के नव-समाजवादियों ने थमाई है जो लोहिया से दूर निकल चुके हैं। बिना श्रम किए हिन्दी की कीमती विरासत मॉं की पुरानी पोथी-पत्रों और ठाकुर जी की डोलची की तरह उन्हें लोहिया जी से बस यूॅं ही मिली हुई है। यह बात निस्संकोच कही जा सकती है कि जिस ईमानदारी से बंगाल में बांग्ला या तमिलनाडु में तमिल में काम होता है, उस ईमानदारी से आज के वक्त में समाजवादी सरकारों ने हिन्दी के लिए कुछ काम नहीं किया। उनकी सत्ता की मदद पाकर पनपे हिन्दी ‘सेवक’ भी शिकायत करने में ही माहिर हैं। हिन्दी के लिए मेहनत करने, नए शब्द गढ़ने, पारिभाषिक मुहावर खोजने से उन्हें परहेा है। 14 सितंबर को उसकी शोभायात्रा निकालना और हिन्दी के सरकारी साहित्यकार-पत्रकारों को शॉल नारियल भेंट करके फोटो खिंचवाना उनके तईं पर्याप्त है। और इन तमाम गॉंधीवादियों, समाजवादियों, सवरेदयियों और भाजपाइयों के बेटा-बेटी भी अब लगातार अंग्रेजी माध्यम स्कूलों-कालेजों से पढ़ कर भूमंडलीकृत बाजार से जुड़ रहे हैं। लिहाजा ठाकर द्वय और बच्चन परिवार की झॉंय-झॉंय भी दो बेमतलब भाषाई उन्मादों की राजनैतिक नूराकुश्ती है। चंद राजनैतिक बिसातें भले इस तरह बिछाई या हटाई जा सकें, हिंदी प्रेम इनसे नहीं बढ़ेगा। हिन्दी के साथ आज जनता में एक अंतरंग और जीवंत भागीदारी हिन्दी के उन व्यावसायिक अखबारों, हिंदी फिल्मों, हिंदी टेलीविजन कार्यक्रमों और उनके ही सह-उत्पाद, विज्ञापन जगत की मार्फत बन रही है जो भाषा में आ रहे बदलाव को स्वीकार कर उससे खेल रहे हैं। और इसी वजह से एक अरसे बाद हिन्दी समृद्ध, सफल और चर्चित है। गुरु-शिष्य की परंपरा के अनुसार गुरु से जो मिला है, उसमें अपनी ओर से कुछ जोड़ने पर ही ऋणमुक्ित मिलती है। अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी के खिलाफ परंपरा का फरसा लिए हाशिए पर खड़े परशुरामों को कभी-कभार आत्मग्रस्तता की कालकोठरी से बाहर आकर पूछना चाहिए, कि अपने पूर्ववर्तियों से उन्होंने परंपरा द्वारा जो पाया था, उस पर क्या उन्होंने दस फीसदी ब्याज भी जोड़ कर आगे की पीढ़ी को दिया है? सिर्फ अनुवाद करवा के, या सरकारी मदद से (असंपादित) पाण्डुलिपियों के म्यूजियम स्थापित कराके और हिन्दी के पुराने साहित्यकारों की जन्मशती या अक्सर (ौसे-तैसे सम्पादित) ग्रंथावलियों के विमोचन पर समारोह आयोजित करके हम हिन्दी वाले मातृभाषा के ऋण से उऋण नहीं हो सकते। ज्यों-यों शहर फैले हैं हाारों गॉंव अपनी संस्कृति लिए दिए, भाषा की सुरसरि में समा गए हैं। और अब हिन्दी टेंशन, पेंशन, राशन-कार्ड, एस.सी एस.टी., ओ.बी.सी., एन.जी.ओ., बी.पी.एल., रिार्वेशन, स्ट्रोक, हार्ट-अटैक, ब्लड-प्रेशर, डायबिटीा सरीखी नेमतों तथा अलामतों से जुड़े विदेशी शब्दों की तमाम उर्वर मिट्टी भी देश में फैला रही है। पुराने पवित्रतावादी इस सब से कुढ़ते हैं तो कुढ़ें, लेकिन आम आदमी उनसे कहीं अग्रगामी है। उसने कम्प्यूटर शब्द स्वीकार कर लिया, ‘संगणक’ को पर हटा दिया। माउस, क्िलक, की-बोर्ड, ब्लॉग इन सबको भी उसने (सरकारी परिभाषाओं की मौजूदगी के बावजूद) सीधे इसी रूप में उठा लिया। स्पष्ट है, लोकतंत्र में जनता के बीच भाषायी छुआछूत नहीं चलेगा। एंजिन या हॉस्पिटल शुद्धतावादियों के विलाप के बावजूद जनता की जुबान पर इांन या हस्पताल बनेंगे, वाष्पचालित यान या चिकित्सालय नहीं। और उग्रवादियों के लगाए प्रतिबंधों के बावजूद भारत ही नहीं, पूर एशिया में हिन्दी फिल्मों या सीरियलों को भी लोगों, (खासकर आप्रवासियों) की पहली पसंद बनने से नहीं रोका जा सकेगा। उन्नीसवीं सदी के जॉन शेक्सपीयर सरीखे अंग्रेज, जो अपने अफसरों को हिन्दी पढ़ाया भर करते थे, उस वक्त के जहाजरानी, वनस्पति शास्त्र और खेती से जुड़े हिन्दी शब्दों के तमाम कोष बना गए। शुद्ध हिन्दी के हिमायती परशुराम बीसवीं सदी में इस्तेमाल होते रहे पारिभाषिक शब्दों का वैसा व्यवस्थित एक कोष ही सामने लाएं। जसे गंजा होने से कोई सरदार पटेल नहीं बन जाता। वैसे ही धोती पहन कर स्वदेशी जपने से कोई गॉंधी नहीं बनता। —‘का भाषा का संस्कृत, प्रेम चाहिए सॉंच।़’’ं

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