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बारिश और बाढ़

बारिश हुई तो बाढ़ ही आनी है। जसे वायरल के बाद कमजोरी। जसे चौराहे पर दादागीरी। जसे गेहूं के साथ घुन, जसे रात के बाद दिन। जसे पे-कमीशन के साथ धोखा। जसे गरीब की दावत- चोखा। जसे कम्प्यूटर के साथ ‘माउस’।...

 बारिश और बाढ़
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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बारिश हुई तो बाढ़ ही आनी है। जसे वायरल के बाद कमजोरी। जसे चौराहे पर दादागीरी। जसे गेहूं के साथ घुन, जसे रात के बाद दिन। जसे पे-कमीशन के साथ धोखा। जसे गरीब की दावत- चोखा। जसे कम्प्यूटर के साथ ‘माउस’। जसे पैसे के साथ ‘हाउस’। जाने क्यों लोग इस आकाशीय अनिवार्यता पर ताज्जुब करते हैं। इसका भैया! कोई इलाज है क्या? बारिश नहीं आई तो सूखा पड़ेगा। विकल्प है, ऊपर वाले के पास। चाहे बाढ़ दे दे, चाहे सूखा। इन कुदरती विपदाओं पर लोग इतना हो-हल्ला क्यों मचाते हैं? बेकार में हॉर्न बजाना कार वालों का स्वभाव है, व्यर्थ में हल्ला मचाना बेकारों का। सरकार और उसके कल-पुर्जे ज्योतिषी तो हैं नहीं कि पूर्वानुमान लगा लें कि बाढ़ पधारने वाली है कि सूखा। वे कर्मठ हैं। कार्यकुशल हैं। वाकिफ हैं कि बाढ़ हो या सूखा, मलाई उन्हीं की है। हर हाल में कमाई है। वे रात-दिन एक करते हैं, हालात से निबटने में। विरोधी और अखबार बाज नहीं आते हैं, सरकार को कोसने से। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री जानते हैं कि जमीन खतरनाक है, लिहाजा हवाई सव्रेक्षण करते हैं। सरकारी कारिन्दे कहते हैं कि जनता में राहत है, इसीलिए चुप है। जब जान पर बन आए तो जुबान अक्सर खामोश हो जाती है। नेताओं के हवाई-हमले के फायदे हैं। दुख-दर्द की चीख चिल्लाहट उन्हें सुनाई नहीं पड़ती है। जनसेवा का जबानी जमा-खर्च अलग हो जाता है। न पैर भीगते हैं, न कपड़े। दाग लगने का तो सवाल ही नहीं है। नेता संवदेनशीलता की मिसाल बनता है। उसने हालात आसमान से देखे, और तत्काल राहत की रकम घोषित कर दी। यों आनन-फानन निर्णय लेने वाले लोग अब बचे ही कहां हैं? राहत की राशि में नेता, अफसर, सप्लायर सबके प्राण अटके हैं। जनता को मुगालता है कि बाढ़ पर हवाई-हमला, बयान, रकम का ऐलान- उसके कल्याण के लिए है। अफसर आश्वस्त है कि थोड़े दिनों में उसका तबादला मुल्तवी है। बाकी, जिसे कहे नेता, उसे मिले ठेका। टीवी, अखबारों ने सबका सुख-चैन हर रखा है। ‘घटिया राहत से बाढ़ के कोढ़ में खाज’, ‘सप्लाई की धांधली में कमीशन की अनाप शनाप कमाई’, जसी सुर्खियों से अखबार रंगे हैं सार। टीवी के पर्दे पर, कहीं भूखे-नंगों की जमात है, कहीं डूबे घरों की। अफसर सस्पैण्ड हैं, और सदमे में हैं। सौ-सौ चूहे खाकर बिल्ली हा को जा सकती है, और नेता भी, तो फिर अफसर क्यों नहीं? इसमें शिकायत की क्या बात है? सब अपना-अपना स्वाभाविक भोजन करते हैं। बिल्ली चूहे खाती है, हाथी पत्ते-पत्ती, और अफसर-नेता, नोट। इसमें गलत क्या है?

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