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वॉल स्ट्रीट का ब्लैकहोल और पिछला हफ्ता

दस दिन। सिर्फ दस दिन के भीतर दुनिया की सबसे बड़ी बीमा कंपनी और दो सबसे बड़े बैंक दुनिया के सबसे बड़े पूँजीवादी देश की अर्थव्यवस्था में उपजे ब्लैक-होल में समा गए, और अर्थशास्त्री, सरकार तथा उद्योग जगत...

 वॉल स्ट्रीट का ब्लैकहोल और पिछला हफ्ता
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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दस दिन। सिर्फ दस दिन के भीतर दुनिया की सबसे बड़ी बीमा कंपनी और दो सबसे बड़े बैंक दुनिया के सबसे बड़े पूँजीवादी देश की अर्थव्यवस्था में उपजे ब्लैक-होल में समा गए, और अर्थशास्त्री, सरकार तथा उद्योग जगत ठगे से रह गए। जब भी कोई बड़ी दुर्घटना घटती है, तो ज्ञानी लोग उसकी तात्कालिक वजहों पर टिकने की बजाए उसकी गहरी जड़ें टटोलते हैं। घटना कहाँ घटी और कैसे? यह तो कोई बेवकूफ भी बता सकता है। जानने योग्य यह है, कि इतने प्रसिद्ध और ताकतवर बाजारों में ठीक राष्ट्रपति चुनाव से पहले इतने संस्थान कैसे दिवालिएपन के ब्लैकहोल तक जा पहुँचे? उनमें अब तक आते रहे डॉलर कितने समय में कैसे और कहाँ से जमा किए गए? नियामक संस्थाओं को इसकी भनक कैसे नहीं लग सकी? कहाँ पर किसके हित, किससे टकरा रहे थे? देश की कौन-सी सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक धुरियों ने ऐसे सिलसिलेवार ध्वंस के क्षणों में दगा दिया और कौन अब उन्हें तिनके की ओट दे रही हैं? इन सवालों के जो जवाब मिल रहे हैं, उनकी मार्फत आप इस निष्कर्ष पर जल्द जा पहुँचेंगे, कि अमेरिकी अर्थजगत में जसी अंदरूनी खोखली स्थितियाँ बन गई थीं, उनके चलते ऐसे हादसों का किसी न किसी दिन होना अनिवार्य था। अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद की ही तरह बाजार, खासकर अन्तरराष्ट्रीय बाजार, भी रातों-रात कुकुरमुत्ते की तरह नहीं उग आते। वे कई सरकारों और समाजों की समवेत और अलग-अलग ठोकापीटी से स्वरूप पाते और विकास करते हैं। अपने उद्भव और विकास के दौरान उनके प्रवाह को नियंत्रण में रखने के लिए सरकारों तथा उद्यमियों द्वारा कुछ ठोस घरलू और अंतरराष्ट्रीय कानून और मर्यादाएँ गढ़ी जाती हैं। मसलन 1में अमेरिका एक ऐतिहासिक मार्केट क्रैश के बाद जब भारी मंदी (दि ग्रेट डिप्रेशन) से जूझ रहा था, तो बैंकिंग व्यवस्था को चुस्त और जवाबदेह बनाने के लिए एक खास (ग्लास-स्टीगल) कानून बनाया गया, जिसने बैंकों के रिटेल, निवेश तथा मर्चेट बैंकिंग जसे विभिन्न कामों की व्याख्या करके हर किस्म के व्यापार के गिर्द एक लक्ष्मण रखा (फायरवॉल) रची। उद्देश्य यह था कि जनता कमाई फूँकने की बजाए उसे बचाए और बचत बैंक में रखाने वाले उपभोक्ता, शेयरधारक और बैंक प्रशासन के बीच लगातार एक जवाबदेह पारदर्शिता बनी रहे। ’80 के दशक तक इस कानून की मर्यादा कायम थी, नतीजतन जनता में बचत को लेकर उत्साह बढ़ा और बड़े बैंकों की साख उस बचत को अच्छे ब्याज से लगातार बढ़ाने के कारण मजबूत होती गई। होते-होते वॉलस्ट्रीट का बैंकिंग व्यवसाय पश्चिमी बाजारों में पारंपरिक उसूलों के प्रति निष्ठा और कानून की परंपराओं को लेकर अडिग रहने का पर्याय बन गया। किंतु ’80 के दशक में अमेरिका में रगन तथा (इंग्लैण्ड में) थैचर के कार्यकाल में दरारं पड़नी शुरू हो गईं। अब खूब कमाओ, खूब खरीदो का दर्शन उसूलों की अनुपालना की बजाए मुनाफा कमाने की नीयत से उपक्रमियों तथा राजनेताओं ने पेश किया और बैंकिंग में भी वह हावी होता गया। हाल के वर्षो में बैंकों में कामकाजी पारदर्शिता तो लगभग लुप्त हो गईं। मान लिया गया कि बैंकरों के पास ही बाजार का तमाम ज्ञान सीमित है। बैंकों ने इस दौरान शेयर धारकों को मोटा मुनाफा देकर खुश तथा खामोश रखा और औकात न होते हुए भी बढ़िया मकान खरीदने के इच्छुक नए निवेशकों को सस्ते र्का दे -देकर बैंकों ने भारी जोखम उठाना और नियमों की अनदेखी जारी रखी, और एशियाई संस्थानों से तक पूँजी उधार लेकर अनिश्चित शेयर मार्केट में उतर आए। मुफ्त की मय पीने वालों की इस फाकामस्ती ने जब एक दिन रंग पकड़ा तो पूरी बैंकिंग व्यवस्था को साँप सूंघ गया और एक-एक कर वॉल स्ट्रीट के ये ख्यातनामा बैंक तथा बीमा संस्थान ढहने लगे। यूँ तो पूँजी के क्षेत्र में अस्थिरता के दौर आते रहते हैं, क्योंकि जसा कि मशहूर अर्थशास्त्री हायमन मिंस्की ने कहा था, अस्थिरता पूँजी का मूल स्वभाव है, उसकी विकृति नहीं। (लक्ष्मी को अपने यहाँ भी चंचला यूँ ही नहीं कहा जाता)। अत: पूँजीवाद की तहत भी यह जरूरी है कि हर स्वस्थ वित्तीय संस्थान पूँजी की चंचल वृत्ति पर सावधान नजर रखे और व्यावसायिक नियम-कायदों की हदबंदी से उस पर नकेल साधे। बाजार कोई जीवित और स्वत:चालित इकाई नहीं होते हैं। उन्हें राज्यव्यवस्था और संस्थानों को चलाने वाले मनुष्य ही चलाते और मारते रहे हैं। यह वैसे ही है, जसे एक आदर्श राज्य स्वयंभू नहीं होता, उसके पीछे एक कुशल नेता और उसके सहयोगी होते हैं, जो कानून-व्यवस्था के बेहतरीन सिद्धांतों से व्यवस्था को हाँकते हैं। और जब राज्य का पतन हो, तो भी उसके पीछे अकुशल-भ्रष्ट और गैरािम्मेदार लोग ही होते हैं। लिहाजा वॉल-स्ट्रीट के धराशायी होने पर अपने यहाँ न तो खुशी मनाने जसा कुछ है, न छाती कूट स्यापा करने जसा। अमेरिकी एकछत्रता के कुछेक प्रताड़क जरूर एक टाँग पर कूद-कूद कर कह रहे हैं, कि वे जानते थे यही होना था एक न एक दिन! लेकिन न तो अमेरिका की मूल व्यवस्था नकारवादी थी (वर्ना वह इतनी तरक्की कैसे करता) और खुद किसी भगवा या लाल झंडे तले एकछत्रता की कामना और उसके आलोचकों ने भी न की हो, ऐसा भी नहीं! सच तो यह है कि नाटो या राष्ट्रसंघ की बजाए अंतरराष्ट्रीय पूँजी वादी बाजारों ने ही विश्व का इस सदी में बड़ी सहाता से एकीकरण किया। झूठ क्यों बोलें, अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था ने ही एशिया का अरसे से सोया पुरुषार्थ भी जगाया है। और हमार देसी उपक्रमियों को अपनी असली क्षमता और विदेशी निवेशकों को देसी बाजारों की व्यापकता और ताकत से रू-ब-रू इसी अंतर्राष्ट्रीय पूँजी बाजार ने किया है। एशिया के आर्थिक फलक पर सिर्फ दो दशकों में इसने जितनी उथल-पुथल की है शायद गुजर पाँच सौ सालों में नहीं हुई थी। अत: अगर पूँजीवादी निजाम स्वस्थ तरीके से चले और देश को समृद्धि से मढ़ सके तो एशिया में चीन से भारत तक किसी को पूँजीवाद अस्वीकार्य नहीं है। किताबी साम्यवाद तो दो दशकों में प. बंगाल के परिसर में भी न्यायसंगत समाजवाद नहीं ला सका। और समाजवाद भी उत्तर प्रदेश, बिहार को सोने की चिड़िया कहाँ बना सका? इसके विपरीत पूँजीवाद ने दक्षिण के राज्यों में दलित-पिछड़ों के सक्षम नेतृत्व की अगुआई में वहाँ अकल्पनीय समता और तरक्की के मौके पैदा कर दिए हैं, जिससे पिछड़े ही नहीं, अगड़े तथा स्त्रियाँ सब लाभान्वित हुए हैं। कुछ ऐसे लोग, जो आज अचानक सड़क पर आ खड़े हुए हैं, जरूर मुँह बिचका कर कह सकते हैं कि पूँजीवादी विकास के चरम क्षणों में उन्हें दिखाए तमाम आर्थिक सब्जबागों के बावजूद अंतत: नौका में लता-पत्र ही निकले। पर मोटी तनख्वाह भत्तों से उन्हें कृतकृत्य करने वाले इन बैंकों की कार्यप्रणाली से जुड़ा वह झूठ कहीं उन्होंने भी तो बिना प्रश्न पूछे जिया था। सत्यनारायण कथा की कलावती कन्या के परिवार की तरह उनका ही झूठ अब उन पर ’बूमरैंग हुआ है। वादाखिलाफी उन्होंने की थी। पूंजीवाद ने उन्हें इसका यथायोग्य दंड ही दिया।ं

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