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अवैध दवा परीक्षण को लेकर केंद्र, मप्र सरकार की खिंचाई

उच्चतम न्यायालय ने देश में दवाओं के कथित अवैध क्लीनिकल परीक्षण को लेकर चिंता जाहिर करते हुए सोमवार को कहा कि मनुष्यों के साथ गिनी पिग की तरह सलूक करना दुर्भाग्यपूर्ण है।    ...

अवैध दवा परीक्षण को लेकर केंद्र, मप्र सरकार की खिंचाई
एजेंसीMon, 16 Jul 2012 02:27 PM
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उच्चतम न्यायालय ने देश में दवाओं के कथित अवैध क्लीनिकल परीक्षण को लेकर चिंता जाहिर करते हुए सोमवार को कहा कि मनुष्यों के साथ गिनी पिग की तरह सलूक करना दुर्भाग्यपूर्ण है।
   
न्यायमूर्ति आर एम लोढ़ा ने मध्यप्रदेश में और देश के अन्य भागों में बड़े पैमाने पर कथित अवैध दवा परीक्षण किए जाने का आरोप लगाने वाली जनहित याचिकाओं पर जवाब न देने पर लिए केंद्र और मध्यप्रदेश सरकार की खिंचाई की।
   
पीठ ने कहा (सरकार की ओर से) कि जिम्मेदारी की कोई तो भावना होनी चाहिए। जवाब दाखिल करने के लिए सरकार और भारतीय चिकित्सा परिषद को आठ सप्ताह का समय और देते हुए पीठ ने कहा मनुष्यों के साथ गिनी पिग की तरह सलूक किया जा रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
   
पीठ डॉक्टरों के एक समूह और एक गैर सरकारी संगठन द्वारा दायर दो जनहित याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। याचिकाओं में आरोप लगाया गया है कि बच्चों, आदिवासियों और दलितों सहित गरीब लोगों पर अवैध और अनैतिक तरीके से क्लीनिक परीक्षण किये जा रहे हैं और इन लोगों का, बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा तैयार दवाओं और टीकों के परीक्षण करने के लिए गिनी पिग की तरह उपयोग किया जा रहा है।
   
याचिकाकर्ताओं ने न्यायालय से समाज तथा ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क के विशेषज्ञों की एक समिति बनाने का आदेश देने का अनुरोध किया ताकि यह समिति भारत और विदेशों में क्लीनिक परीक्षणों से संबंधित वर्तमान कानूनी प्रावधानों का अध्ययन करे और इस मुद्दे पर दिशानिर्देश तय करने की सिफारिश करे।

मनुष्यों के उपयोग के लिए नई दवा का उत्पादन करने से पहले कंपनी को इन्सानों पर इसके प्रभावों का अध्ययन करने के लिए उसके क्लीनिकल परीक्षण की जरूरत होती है।
   
जनहित याचिकाओं में आरोप लगाया गया है कि बहुराष्ट्रीय फर्मास्युटिकल कंपनियां कानूनों के कार्यान्वयन में शिथिलता की वजह से देश का उपयोग अवैध क्लीनिकल परीक्षणों के लिए कर रही हैं।
   
मध्यप्रदेश के इन्दौर में अवैध दवा परीक्षणों के विभिन्न मामलों का संदर्भ देते हुए याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि परीक्षणों के दौरान कई लोगों की जान चली गई।
   
इसमें कहा गया है कि परीक्षणों के लिए 3,300 से अधिक मरीजों का उपयोग किया गया। इसमें करीब 15 सरकारी डॉक्टर और 10 निजी अस्पतालों के 40 प्राइवेट डॉक्टर लिप्त थे।
   
जनहित याचिका में आरोप लगाया गया है चिकित्सकीय परीक्षण मानसिक रूप से बीमार 233 मरीजों पर और एक दिन से 15 साल की उम्र के 1,833 बच्चों पर भी किए गए। अकेले सरकारी डॉक्टरों को करीब 5.5 करोड़ रुपयों का भुगतान किया गया। वर्ष 2008 में 288 लोगों की मौत हुई, वर्ष 2009 में 637 लोगों की और वर्ष 2010 में 597 लोगों की जान गई।
   
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि क्लीनिकल परीक्षणों में पारदर्शिता का अभाव है, क्योंकि जिन पर परीक्षण किया जाता है उन्हें उनके अधिकारों की जानकारी नहीं है।
   
उन्होंने इन्दौर में ऐसी विभिन्न घटनाओं की ओर संकेत करते हुए कहा कि जिन लोगों पर परीक्षण किए गए, उनमें से ज्यादातर लोग गरीब और निरक्षर थे, जो समाज के हाशिये पर रह रहे समुदायों के थे तथा उन्हें गंभीर दुष्प्रभावों का सामना करना पड़ा।

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