फोटो गैलरी

Hindi News पुलिस का पक्ष

पुलिस का पक्ष

पिछले दिनों भारत में आतंकवाद से संबंधित घटनाक्रम में खासतौर पर ध्यान देने लायक बात यह है कि बाटला हाउस और मालेगांव-सूरत दोनों मामलों में पुलिस की निष्पक्षता पर उंगली उठाई गई। ऐसे संवेदनशील और सनसनीखे...

 पुलिस का पक्ष
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
ऐप पर पढ़ें

पिछले दिनों भारत में आतंकवाद से संबंधित घटनाक्रम में खासतौर पर ध्यान देने लायक बात यह है कि बाटला हाउस और मालेगांव-सूरत दोनों मामलों में पुलिस की निष्पक्षता पर उंगली उठाई गई। ऐसे संवेदनशील और सनसनीखे मामलों में तरह-तरह के षड्यंत्रों की अफवाहें उठना स्वाभाविक है, लेकिन यह भी सच है कि पुलिस की कार्यप्रणाली ऐसी भी नहीं है कि लोग उन पर विश्वास करें। यह चिंताजनक इसलिए भी है कि पुलिस ने कई मामले पेशेवर कुशलता और असाधारण साहस के साथ सुलझाए हैं और कई बार पुलिसकर्मियों को अपराधियों के हाथों जान भी गंवानी पड़ी है, जसे कि बाटला हाउस मामले में। ऐसे विवादों से यह भी पता चलता है कि पुलिस की विश्वसनीयता को बढ़ाना सांप्रदायिकता और आतंकवाद के खिलाफ एक महत्वपूर्ण हथियार बन सकता है, क्योंकि ऐसे में पुलिस पर राजनैतिक दुर्भावना या दबाव में काम करने का आरोप लगाकर बच निकलना आसान नहीं होगा। इसलिए पुलिस महानिदेशकों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री का यह कहना प्रासंगिक है कि पुलिस के समक्ष एक बड़ी चुनौती खासतौर पर अल्पसंख्यकों और कमजोर तबकों में विश्वसनीयता और विश्वसनीयता की छवि बनाए रखने की है। प्रधानमंत्री की बात कुछ हद तक सही है, लेकिन चुनौती पुलिस के सामने नहीं, दरअसल राजनेताओं और प्रशासकों के सामने है कि वे पुलिस को उन्नीसवीं सदी के तौर-तरीकों से बाहर निकालें, वरना पुलिस की कार्यकुशलता और निष्पक्षता हर वक्त संदेहास्पद बनी रहेगी। लगातार एक के बाद एक केन्द्रीय और राज्य सरकारों ने पुलिस सुधारों के लिए बने कितने ही आयोगों की सिफारिशों को धूल खाने को छोड़ दिया है, यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के कहने के बाद भी इस दिशा में कोई तरक्की देखने को नहीं मिली। असली दिक्कत यही है कि सरकारों को भी दबाव में झुक जाने वाली और अपनी पक्षधर पुलिस रास आती है। सवाल पुलिस के हृदय परिवर्तन का नहीं है, पुलिस तंत्र में ऐसे सुधार करने का है, जिनसे पुलिस के अफसर से लेकर सिपाही तक पेशेवर कौशल और ईमानदारी से अपना काम कर सकें। बढ़ते हुए आतंकवाद और संगठित अपराध ने यह दिखा दिया है कि राजनैतिक अदूरदर्शिता का नतीजा सिर्फ पुलिस का अविश्वसनीय होना नहीं, हमार देश के समूचे तंत्र पर इसका असर नजर आ रहा है। अगर देश के प्रधानमंत्री भी पुलिस में सुधार की मांग ही करते रहें तो फिर सवाल यही है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधने देश किसके पास जाए?

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें