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छोटी सी व्यवस्था से बड़ी क्रांति

हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले में बिशनगढ़ गांव की निवासी रेखा एक भूमिहीन मजदूर है। उसका घर ईंटों से बेतरतीब ढंग से बना है और उन पर प्लास्टर तक नहीं है। घर के आसपास आलू और गेहूं के खेत हैं। बारिश होती...

 छोटी सी व्यवस्था से बड़ी क्रांति
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले में बिशनगढ़ गांव की निवासी रेखा एक भूमिहीन मजदूर है। उसका घर ईंटों से बेतरतीब ढंग से बना है और उन पर प्लास्टर तक नहीं है। घर के आसपास आलू और गेहूं के खेत हैं। बारिश होती है तो उसके घर के छप्पर से पानी टपकता है। वह अपने पति के साथ रहती है, जो उसकी तरह ही खेतिहर मजदूर है। उसके तीन बच्चे- एक लड़की और दो लड़के साथ रहते हैं। वे दोनों काम पर जाते हैं तो प्रतिदिन लगभग 150 रु. कमाते हैं। लेकिन, रेखा की तुलना में उसके पति को दुगुनी मजदूरी मिलती है। रेखा के लिए गर्व की बात घर के उसके छोटे से प्लॉट के कोने में बना टॉयलेट है। टॉयलेट का दरवाजा बनाने के लिए उसके पास पैसा नहीं है। वह दरवाजे पर जूट के बोर का परदा डालकर काम चलाती है। घर पर निरंतर जल सप्लाई का इंतजाम है। इसलिए, यह टॉयलेट साफ रहता है और दुर्गन्ध नहीं फैलती। इसकी डिााइन साधारण और रखरखाव में आसान है। यह टॉयलेट के लिए एक सोक पिट (गड्ढा) है, जिसके बार में हमें बताया गया कि यह भूमिगत जल को प्रदूषित नहीं करता। बिशनगढ़ में हुई यह टॉयलेट क्रांति चर्चा का एक केंद्र बिंदु बन चुकी है। भारत और दुनिया के कई कोनों से लोग इसे देखने आते हैं। हर टॉयलेट पर लगभग 1200 रु. की लागत आती है। रखा जसे गरीब लोगों को सबसिडी मिलती है। अन्य लोग अपने सामथ्र्य के अनुसार भुगतान करते हैं और शेष राशि स्थानीय युवा सांसद नवीन जिंदल का एक स्वयंसेवी संगठन देता है, जिनके चित्र इस जिले के कोने-कोने में नजर आते हैं। बिशनगढ़ ने निर्मल ग्राम पुरस्कार प्राप्त किया है। केंद्र सरकार द्वारा शुरू किया गया यह पुरस्कार उन गांवों को दिया जाता है, जो खुले में शौच जाने की समस्या से मुक्त हो चुके हैं। यह उन हाारों गांवों में से एक हैं, जो इस पुरस्कार की पात्रता पूरी कर रहे हैं। अल सुबह में गांव की निगरानी समिति की महिलाएं टॉर्च, लाठियां और सीटी लेकर आसपास के इलाकों में जाती हैं। यदि खुले में शौच करते हुए कोई व्यक्ित नजर आता है तो वे सीटी बजाती हैं और उसकी तरफ टॉर्च की रोशनी डालती है। उनका मानना है कि इससे वह व्यक्ित लज्जा महसूस करता है और दुबारा ऐसा नहीं करगा। कोई संदेह नहीं कि इस टॉयलेट क्रांति ने महिलाओं के साथ-साथ बुजुर्ग लोगों और बच्चों को भारी राहत प्रदान की है। अब उन्हें रात के अंधेर में निकटवर्ती खुली जगहों पर शौच के लिए जाने का कष्ट नहीं उठाना पड़ता। पहले खासकर, महिलाओं को भोर से पहले या रात के समय का इंतजार करना पड़ता था। टॉयलेट न होने से उनके सम्मान पर चोट पहुंचती थी और एकांत में खुले स्थान पर यौन-उत्पीड़न का खतरा रहता था। इसका उनके स्वास्थ्य पर सीधा असर पड़ता था। अब यह समस्या नहीं रही। फिर भी, कुछ सवाल अभी भी बरकरार हैं। क्या बगैर निगरानी के यह सिलसिला सतत चल सकता है? क्या लोग अपनी आदतें आसानी से छोड़ देंगे, खासकर वे पुरुष, जो खुले में शौच जाने में शर्मिन्दगी महसूस नहीं करते। क्या टॉयलेट निर्माण का अभियान बिना सबसिडी के चल सकता है? क्या यह उन गांवों में मुमकिन है, जहां जल सप्लाई की स्थिति खराब है? और, जहां बिजली नहीं है? यूं कुरुक्षेत्र जिले के 418 गांवों में से 412 में बिजली है। क्या यह अभियान उन गांवों में चल सकेगा, जहां जाति व संप्रदाय के आधार पर लोग बंटे हुए हैं और आपसी सहयोग के इच्छुक नहीं रहते? बिशनगढ़ की बहुसंख्यक आबादी न सिर्फ एक जाति की है, बल्कि उनका गोत्र भी एक है। महिला सरपंच भी उसी जाति और गोत्र की है। इसलिए, सब लोगों के लिए मिल-ाुलकर कार्य करना आसान बना। मैंने जिन महिलाओं से बातचीत की, उन्होंने बताया कि यदि गांव में कई जातियों के लोग रह रहे होते तो स्थिति भिन्न होती। फिर भी, आशा की जा सकती है कि यह महिलाओं की स्थिति में सुधार का पहला महत्वपूर्ण कदम है। इस टॉयलेट क्रांति के समर्थन में महिलाएं एकाुट दिखती हैं। लेकिन, हरियाणा और कुरूक्षेत्र में लिंग-अनुपात लड़कों की तरफ झुका हुआ है। भले ही कुछ महिलाएं जोर देकर कहें कि दहेा समस्या कम हुई है, पर यह खत्म नहीं हुई है। रखा के कॉलेज में पढ़ने वाली 18 वर्षीय बेटी बबीता की बातों पर यकीन करं तो यह समस्या बढ़ी है। बबीता ने उदास स्वर में कहा- ‘लोग दस लाख रु. तक का दहेा देते हैं।’ वह आगे कहती है- शादी तो करनी ही है। तो फिर विकल्प क्या है? बबीता भाग्यशाली है कि वह पढ़ पाई है। वर्ना इस देश के सरकारी स्कूलों में किशोर लड़कियां पढ़ाई बीच में ही छोड़ देती हैं या स्कूल नहीं जातीं क्योंकि वहां कोई टॉयलेट नहीं है। जब उनको मासिक धर्म होता है तो उस कारण वे स्कूल नहीं जातीं। अतिरिक्त जिला कलेक्टर सुमेधा कटारिया बताती हैं कि कुरुक्षेत्र जिले के सभी स्कूलों में टॉयलेट्स हैं। जिले में सेनिटेशन (स्वच्छता) आंदोलन के पीछे सुमेधा भी एक ताकत रही है। शहरी सेनिटेशन एक ज्यादा बड़ी चुनौती है और इसका गहरा ताल्लुक करोड़ों शहरी गरीब लोगों की निरंतर आवासीय समस्या के साथ है। सामुदायिक टॉयलेट्स का निर्माण किया जा सकता है, पर जब तक शहरों में आवासीय संकट हल नहीं किया जाएगा, तब तक सेनिटेशन का मसला असरदार ढंग से नहीं निपट पाएगा। गांवों की तुलना में शहरों में खासकर महिलाओं के लिए टॉयलेट्स न होना कहीं अधिक त्रासद अनुभव होता है क्योंकि वहां व्यावहारिक रूप से कोई एकांत स्थान नहीं होते। नई दिल्ली में हाल ही में सैकोसन-3 (सेनिटेशन पर दक्षिण एशियाई सम्मेलन) आयोजित हुआ, जिसमें कुछ अधुनातन परियोजनाओं के बार में बताया गया। दिल्ली के राष्ट्रीय मीडिया ने इसे नजरअंदाज किया। ऐसी ही एक परियोजना के तहत ग्रामीण स्वयं सहायता समूह नई टेक्नोलॉजी का उपयोग कर कम लागत के सेनिटेरी नैपकिन्स बना रहे हैं। ऐसा कई राज्यों में किया जा रहा है और तमिलनाडु के कम से कम एक स्थान पर किशोर लड़कियों की स्कूल-हाजिरी में नाटकीय रूप से बढ़ोतरी हुई है। टॉयलेट्स, सेनिटेशन, सेनिटरी नैपकिन्स, खुले में शौच जाना- ये ऐसी चीजें हैं, जिनके बार में हम बातचीत करना पसंद नहीं करते। पर, यह एक ऐसा बुनियादी मसला है, जो हमारी जिंदगी से सीधे जुड़ा हुआ है- खासकर यदि हम गरीब और महिलाएं हैं। भारत की आधी आबादी खुले में शौच जाती है। सरकार को आशा है कि ये 60 करोड़ लोग 2012 तक टॉयलेट्स का इस्तेमाल शुरू कर देंगे। मतलब यह है कि सिर्फ चार सालों में लाखों-करोड़ों टॉयलेट्स का निर्माण करना होगा। लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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