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झूठा था मार्को पोलो, सुनी-सुनाई बातों पर लिखी किताब!

इटली के मार्कोपोलो को एशिया पहुंचने वाले पहले यूरोपीय यात्री के रूप में जाना जाता है, लेकिन इतालवी पुरातत्वविदों का नया दावा है कि वह यूरोप के काला सागर के आगे गया ही नही था और उसने अपने सभी संस्मरण...

झूठा था मार्को पोलो, सुनी-सुनाई बातों पर लिखी किताब!
एजेंसीThu, 11 Aug 2011 05:28 PM
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इटली के मार्कोपोलो को एशिया पहुंचने वाले पहले यूरोपीय यात्री के रूप में जाना जाता है, लेकिन इतालवी पुरातत्वविदों का नया दावा है कि वह यूरोप के काला सागर के आगे गया ही नही था और उसने अपने सभी संस्मरण सुनी-सुनाई बातों के आधार पर लिखे थे।

इटली के नेपल्स विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डेनियल पेट्रेला ने जापान में की गई नई पुरातत्व खोज के दौरान यह बात कही। पेट्रेला के नेतृत्व में पुरातत्वविदों के एक दल ने मंगोल शासक कुबलई खान के जहाजी बेड़े के कुछ जहाजों के अवशेषों को जापान के समुद्र में ढूंढ निकाला। इन जहाजों की बनावट को देखकर पुरातत्विवदों को काफी हैरानी हुई क्योंकि ये किसी भी प्रकार से मार्को पोलो के संस्मरणों से मेल नहीं खा रहे थे।

इसके अलावा मार्को पोलो ने कुबलई खान की जापान पर पहली चढ़ाई का विवरण देते हुए बताया था कि उसका जहाजी बेड़ा जापान के तट के निकट दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। जबकि यह घटना जापान की दूसरी चढ़ाई के दौरान हुई थी। पुरातत्वविदों ने आश्चर्य जताया कि कोई भी प्रत्यक्षदर्शी आखिर इतनी बड़ी गलती कैसे कर सकता है।

मार्को पोलो ने चीन और मंगोलिया के जिन इलाकों का वर्णन 13वीं सदी में प्रकाशित अपनी पुस्तक- 'विश्व का विवरण' में किया है उसमें भी उसने मैडेटिरेनियन अथवा मंगोल भाषा के नामों के स्थान पर उनके फारसी तर्जुमे का इस्तेमाल किया है। मार्को पोलो ने अपनी पुस्तक में दावा किया है कि उसने कुबलई खान के दरबार में एक दरबारी की हैसियत से काम भी किया था, लेकिन समकालीन चीन और मंगोलिया के किसी भी प्रमाणिक गंथ में इस बात का उल्लेख नहीं मिलता है।

मार्को पोलो की यात्राओं के ऊपर इतालवी पुरातत्विवदों के इस संदेह ने ब्रिटिश अकादमिक फ्रांसेस वुड के उस दावे को और बल प्रदान कर दिया है, जिसमें उन्होंने कहा था कि मार्को पोलो कभी भी काला सागर के आगे जा ही नहीं पाया, क्योंकि उसने अपनी पुस्तक में चीन के किसी भी पारंपिरक रीति-रिवाज का उल्लेख नहीं किया है।

उल्लेखनीय है कि इतालवी अन्वेषक मार्को पोलो ने वर्ष 1271 से लेकर 1291 के बीच एशिया, फारस चीन और इंडोनेशिया की यात्रा की थी। अपने यात्रा संस्मरणों में उसने सुदूर के इन देशों के जो किस्से सुनाए थे उन्हें पढ़कर यूरोप में उसके नाम की धूम मच गई। वह वर्ष 1292 में भारत के कोरोमंडल तट पर आया था उस समय वहां पांड्य वंश का शासन था।

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