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मोबाइल की धुन.. तालियों का शोर, है दिल्ली में!

दिल्ली के युवा दर्शक भले नाटक न पढ़ते हों मगर सामाजिक मुद्दों के प्रति संवेदनशील होते हैं! ये है दिल्ली की यूथ ऑडियंस के बाबत सलीम आरिफ, अतुल कुलकर्णी और यशपाल शर्मा की राय। शिकायत भी है कि लोग...

मोबाइल की धुन.. तालियों का शोर, है दिल्ली में!
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 13 May 2011 01:29 PM
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दिल्ली के युवा दर्शक भले नाटक न पढ़ते हों मगर सामाजिक मुद्दों के प्रति संवेदनशील होते हैं! ये है दिल्ली की यूथ ऑडियंस के बाबत सलीम आरिफ, अतुल कुलकर्णी और यशपाल शर्मा की राय। शिकायत भी है कि लोग सेलफोन ऑफ नहीं करते! गुलजार फेस्टिवल के तहत ये तीनों हस्तियां शहर में हैं। अरशाना अजमत ने इनसे बात की।

थर्ड बेल के बाद भी बजते हैं मोबाइल

कमानी ऑडिटोरियम में सलीम आरिफ का निर्देशित नाटक खराशें चल रहा है...मंच पर अतुल कुलकर्णी संवाद बोल रहे हैं..एक मोबाइल बजता है! अतुल नाटक रोक देते हैं। छोटे से पॉज के बाद नाटक दोबारा शुरू होता है। फिर मोबाइल बजता है..अतुल फिर नाटक रोकते हैं.. ऐसा चार बार होता है!!

कुछ साल पहले की यह घटना अभिनेता अतुल कुलकर्णी को अभी तक याद है। उनसे दिल्ली की ऑडियंस के बाबत कोई भी सवाल करो वह सबसे पहले यही शिकायत करते हैं कि लोग नाटक के दौरान मोबाइल ऑन रखते हैं। यह शिकायत महज अतुल की नहीं है। खराशें के निर्देशक और वरिष्ठ रंगकर्मी सलीम आरिफ भी यही मानते हैं। सलीम की शिकायत का दायरा थोड़ा गहरा है। वह कहते हैं,‘दिल्ली की ऑडियंस में ऐट्टियूड थोड़ा ज्यादा है। दिल्ली वाले टिकट खरीदकर नाटक देखने की रवायत सलीके से नहीं निभाते। उन्हें पास की दरकार होती है। लोग वक्त से नाटक देखने नहीं आते। इन शिकायतों का यह मतलब कतई नहीं है कि सारे दिल्ली वाले ऐसे हैं। अभिनेता यशपाल शर्मा कहते हैं, ‘अमूमन पचास में से कोई एक आदमी ऐसा करता है मगर उसकी वजह से पूरे शहर के बारे में हमारी राय गलत बनती है।’

कौन कहता है कि युवा नाटक नहीं देखते?

सलीम आरिफ और यशपाल शर्मा दोनों मानते हैं कि दिल्ली में यूथ ऑडियंस की तादाद काफी अच्छी है। युवा ऐसे वक्त में नाटक देख रहे हैं जब मनोरंजन के कई सामान दुनिया में मौजूद हैं। सलीम कहते हैं,‘इंटरनेट, डिस्कोथेक से भरी इस दुनिया में भी नाटक देखने के लिए युवा जुटते हैं, थिएटर के लिए यह बेहद अच्छी बात है।’ यशपाल कहते हैं,‘मैं तो कई ऐसे युवाओं को जानता हूं जो एक दो बार बेमन से नाटक देखने आए मगर आज वह थिएटर की रेगुलर ऑडियंस बन चुके हैं।’

न पढें नाटक पर दुनिया को समझते हैं

सलीम मानते हैं कि पिछले दस साल में दिल्ली में कई तहजीबों की जुगलबंदी बनी है। ये बदलाव थिएटर की ऑडियंस में भी दिख रहा है। वह कहते हैं,‘पहले की यूथ ऑडियंस साहितिक नजरिया रखती थी। हिन्दी के नाटक पढ़ती थी। आज के युवा इस मामले में थोड़े कमजोर हैं। मगर जिंदगी के दूसरे दायरों की जानकारी में वे कतई फीके नहीं हैं।’

वह आस-पास की सामाजिक समस्याओं मसलन आतंकवाद, गरीबी को समझते हैं और इसे लेकर संवेदनशील हैं। अतुल मानते हैं कि भाषा के लिए भी आज की ऑडियंस की पसंद बदली है। वह कहते हैं,‘पहले लोगों को हिंदी और उर्दू के मुश्किल लफ्ज बांधते थे। आज लोग ऐसे नाटक पसंद करते हैं जिसमें रोजमर्रा की जुबान हो। जिसमें हिन्दी के संवादों के बीच में अंग्रेजी के लफ्ज भी आ जाएं।’

सवालों से लबरेज यूथ ऑडिंयंस

दिल्ली वाले बस नाटक देखकर चले नहीं जाते। कई बार वे नाटक देखने के बाद सवाल भी पूछते हैं। सलीम बताते हैं कि अक्सर लोग नाटक खत्म होने के बाद सवाल करते हैं या अपना नजरिया जताते हैं।

ऐसी है दिल्ली की ऑडियंस

मिक्स लैंग्वेज की कायल ऑडियंस
टिकट नहीं खरीदना चाहते
मोबाइल फोन ऑफ नहीं करते
अच्छी परफार्मेस पर तारीफ करते हैं
नाटक के बाद सवाल पूछते हैं

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