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मीडिया साखदार भी हो और धारदार भी

पिछले इकसठ साल और कुछ महीनों की आाादी के दौरान भारत और पाकिस्तान के बीच तल्खी और बदमागी बढ़ाने वाली तमाम घटनाएं मिलेंगी। आतंकी हमलों, घुसपैठों और विस्फोटों का लम्बा सिलसिला है। इसके बरक्स हॉकी और...

 मीडिया साखदार भी हो और धारदार भी
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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पिछले इकसठ साल और कुछ महीनों की आाादी के दौरान भारत और पाकिस्तान के बीच तल्खी और बदमागी बढ़ाने वाली तमाम घटनाएं मिलेंगी। आतंकी हमलों, घुसपैठों और विस्फोटों का लम्बा सिलसिला है। इसके बरक्स हॉकी और क्रिकेट मैचों, फिल्मों और रिसालों के मार्फत एक-दूसरे से संवाद बनाए रखने का जवाब भी नहीं है। पिछली 26 नवम्बर को मुम्बई में हुए आतंकी हमले के बाद दोनों देशों के लोगों को कुछ निराली बातें देखने को मिलीं। पहली बात थी 48 घंटे से ज्यादा चला मीडिया पर टेरर और एंटी टेरर ऑपरेशन। इसके समानांतर जुनूनी राष्ट्रवाद, नाराागी और बदला लेने की कसमें। सरहद के दोनों ओर अंध-राष्ट्रवाद और नफरत की आंधियाँ फिर से चलने लगीं। इस आग को मीडिया हवा दे रहा था। क्रिकेट और हॉकी के दौर रद्द हुए। मुम्बई में पाकिस्तानी कॉमेडी कलाकारों के साथ बदसलूकी हुई। आतंकी नीति-रणनीति से लेकर छोटी-छोटी बातों के बड़े-बड़े विवरण मीडिया में आने लगे। उसी वक्त सरकारी खेमे से बात उठी कि मीडिया कवरा से आतंकियों को मदद मिली। मीडिया ने मर्यादा रखा पार कर दी। उस पर नियंत्रण होना चाहिए। तभी पाकिस्तान के एक टीवी चैनल ने स्टिंग ऑपरशन के जरिए मुम्बई में पकड़े गए आतंकी के घर की खबर दे दी। हमें यह खबर अच्छी लगी, पर सामान्य व्यक्ित इस फुटेा को देखने के बाद इसके बार में भूल गया।ड्ढr ड्ढr आाादी के बाद से अब तक दक्षिण एशिया की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से इसे भी मानना चाहिए। मीडिया की ताकत, सीमाएं और उसकी स्वतंत्रता के बार में सोचते-विचारते वक्त सिर्फ इस एक स्टिंग ऑपरशन को सबके ऊपर रखना चाहिए। इस टीवी प्रसारण ने हमें दो बातें बताईं। समूचा पाकिस्तान वैसा मूढ़-कट्टरपंथी और अंधा नहीं है, जसा हम समझ रहे हैं और दूसर सूचना और अभिव्यक्ित के किसी भी माध्यम की मर्यादाओं और सीमा रखाओं का मसला बेहद जटिल है। उसकी आाादी के विद्रूप भले ही हमें नापसंद हों। उस पर बंदिश लगाने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। उसका जिम्मेदार, मर्यादित और विश्वसनीय होना जरूरी है। यह विश्वसनीयता उसके भीतर से आनी चाहिए। और यह भी कि यह आाादी मीडिया नामक संस्था की नहीं जनता की व्यापक आाादी का हिस्सा है। जनता को जानने, विचारने और कुछ कहने के लिए मंच चाहिए। यह मंच जितना निर्विघ्न, निडर और निष्पक्ष होगा, हमारी आाादी उतनी ही पक्की होगी। पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हस्तक्षेप के बाद सरकार ने टीवी चैनलों पर पाबंदी लगाने की योजना को टाल दिया। सरकार के कुछ जूनियर मंत्री और ब्यूरोक्रेट सूचना और अभिव्यक्ित के अधिकार के अर्थ को समझे बगैर जिस तरह की बंदिशों की कल्पना कर रहे थे, वे बेहद खतरनाक थीं। टीवी चैनलों के प्रसारण से कई बार उनकी आाादी का नकारात्मक रूप उभर आता है। इस बात से चैनलों के सांीदा पत्रकार वाकिफ भी हैं। उन्होंने न्यूा ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन बनाकर अपने नियमन के रास्ते पर चलना शुरू भी कर दिया है। मीडिया के रूप में टीवी नया माध्यम है, पर अभिव्यक्ित और जानकारी पाने के जनता के अधिकार का इतिहास कई सौ साल पुराना है। माध्यम के अर्थ में टीवी और इंटरनेट एकदम नए हैं। उन्हें विश्वसनीय और जिम्मेदार बनाने की जिम्मेदारी जनता की है। इस रवरी को सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के तेरह साल पूर होंगे, जिसके बाद हमार देश में इलेक्ट्ऱॉनिक मीडिया क्रांति के द्वार खुले थे। भारत सरकार और क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बंगाल के मुकदमे में अदालत ने व्यवस्था दी कि हवा में ध्वनि तरंगें और आवृत्तियाँ सार्वजनिक सम्पत्ति हैं। उनका नियमन इस तरह होना चाहिए कि जनता के अधिकारों का हनन न हो और सूचना तथा विचार पर किसी का एकाधिकार न हो। उसके नियमन की जिम्मेदारी सरकार की है, पर इस जिम्मेदारी को पूरा करते वक्त सरकार को तमाम सावधानियाँ बरतनी चाहिएं। केबल टेलीविान रग्युलेशन एक्ट 1े तहत इस कारोबार के नियमन के अलावा समाज पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को रोकने की व्यवस्था भी है। यह व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद 1े तहत किसी भी संस्था पर है यानी देश की सुरक्षा, विदेशी मैत्री, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता-भद्रता, अदालतों की मर्यादा, मानहानि, अपराधों को उकसावा और राष्ट्रीय सम्प्रभुता का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। मीडिया की तकनीक बदलने के साथ पूर समाज में बदलाव आ रहा है। मुम्बई पर जसा आतंकी हमला हुआ, उसकी कल्पना दो दशक पहले हम नहीं करते थे। ऐसे में मीडिया सबसे पहले जसा उसे समझ में आता है, वैसे कवर करता है। एक अनुभव अगली बार आत्म-संयम का नियामक बनता है। आतंक के अलावा हाल के वषों में हमने धार्मिक और जातीय टकराव देखे, कारोबारी गतिविधियों को बढ़ते देखा। खेल की बढ़ती कवरा देखी और मनोरांन के नए आयाम देखे। हर जगह विचारने के अवसर हैं। पूरा समाज सांस्कृतिक पतन के गड्ढे में गिरगा या स्वस्थ होकर उबरगा यह समाज की इच्छा है। अलबत्ता इस इच्छा को बनाने या बिगाड़ने में मीडिया की भूमिका है। यह दिखाई पड़ता है कि दामपंथी से वामपंथी तक मीडिया के असर के कायल हैं और वे इसका पूरा फायदा लेना चाहते हैं। मीडिया संचालक हालांकि बातचीत में खुद को ईश्वर का अवतार नहीं मानते, पर व्यवहार में वैसा बनने का प्रयास जरूर करते हैं। मीडिया कारोबार भी है, इसलिए टीआरपी महत्वपूर्ण है, पर बड़े परिप्रेक्ष्य में सूचना और विचार महत्वपूर्ण हैं। मीडिया को भी समझना चाहिए कि उसे भूत-प्रेत नहीं जनता की ताकत बचाएगी। पूर मीडिया में न्यूा कवरा की भयावह उपेक्षा है। रचनाशीलता बची ही नहीं है। न्यूा प्रोडय़ूसर खबरों से खेलते हैं, जो जितना ज्यादा खेले उतना सफल है। लेखक हिन्दुस्तान दिल्ली संस्करण के वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं

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