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मैरिटल रेप का मामला पहुंचा सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली हाईकोर्ट के खंडित फैसले को दी गई चुनौती

दिल्ली हाईकोर्ट की दो जजों की बेंच ने मैरिटल रेप का अपराधीकरण करने से संबंधित एक मुद्दे पर विभाजित फैसला सुनाया था। जस्टिस राजीव शकधर ने अपराधीकरण के पक्ष में फैसला सुनाया, जबकि जस्टिस हरि शंकर न

मैरिटल रेप का मामला पहुंचा सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली हाईकोर्ट के खंडित फैसले को दी गई चुनौती
नई दिल्ली | एएनआईTue, 17 May 2022 11:01 AM

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मैरिटल रेप (Marital Rape) को अपराध घोषित करने के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के विभाजित फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई है। दरअसल, हाईकोर्ट के दो जजों की बेंच ने बीते सप्ताह 11 मई को मैरिटल रेप को अपराध घोषित करने के मामले में खंडित फैसला सुनाया था। जस्टिस राजीव शकधर ने अपराधीकरण के पक्ष में फैसला सुनाया, जबकि जस्टिस हरि शंकर ने इससे असहमति जताई थी।

जानकारी के अनुसार, हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश ने इस प्रावधान को समाप्त करने का समर्थन किया, जबकि दूसरे न्यायाधीश ने कहा कि यह असंवैधानिक नहीं है। बेंच ने पक्षकारों को सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने की छूट दी थी। बेंच की अगुवाई कर रहे जस्टिस राजीव शकधर ने मैरिटल रेप के अपवाद को समाप्त करने का समर्थन किया, जबकि जस्टिस सी. हरिशंकर ने कहा कि भारतीय दंड संहिता के तहत प्रदत्त यह अपवाद असंवैधानिक नहीं हैं और संबंधित अंतर सरलता से समझ में आने वाला है।

याचिकाकर्ताओं ने आईपीसी की धारा 375 (बलात्कार) के तहत मैरिटल रेप के अपवाद की संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी थी कि यह अपवाद उन विवाहित महिलाओं के साथ भेदभाव करता है, जिनका उनके पतियों द्वारा यौन उत्पीड़न किया जाता है। इस अपवाद के अनुसार, यदि पत्नी नाबालिग नहीं है, तो उसके पति का उसके साथ यौन संबंध बनाना या यौन कृत्य करना बलात्कार की श्रेणी में नहीं आता। 

जस्टिस शकधर ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा था कि जहां तक मेरी बात है, तो विवादित प्रावधान--धारा 375 का अपवाद दो-- संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता), 15 (धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध), 19 (1) (ए) (वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार) और 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन हैं और इसलिए इन्हें समाप्त किया जाता है। जस्टिस शकधर ने कहा था कि उनकी घोषणा निर्णय सुनाए जाने की तारीख से प्रभावी होगी।

वहीं, जस्टिस हरिशंकर ने कहा था कि मैं अपने विद्वान भाई से सहमत नहीं हो पा रहा हूं। उन्होंने कहा कि ये प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14, 19 (1) (ए) और 21 का उल्लंघन नहीं करते। उन्होंने कहा कि अदालतें लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित विधायिका के दृष्टिकोण के स्थान पर अपने व्यक्तिपरक निर्णय को प्रतिस्थापित नहीं कर सकतीं और यह अपवाद आसानी से समझ में आने वाले संबंधित अंतर पर आधारित है। उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ताओं द्वारा इन प्रावधानों को दी गई चुनौती को बरकरार नहीं रखा जा सकता।

अदालत का फैसला गैर सरकारी संगठनों आरआईटी फाउंडेशन, ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वीमेन्स एसोसिएशन, एक पुरुष और एक महिला द्वारा दायर जनहित याचिकाओं पर आया था, जिसमें बलात्कार कानून के तहत पतियों को अपवाद माने जाने को खत्म करने का अनुरोध किया गया था।

केंद्र ने 2017 के अपने हलफनामे में दलीलों का विरोध करते हुए कहा था कि मैरिटल रेप को आपराधिक श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है क्योंकि यह एक ऐसी घटना बन सकती है जो विवाह की संस्था को अस्थिर कर सकती है और पतियों को परेशान करने का एक आसान साधन बन सकती है। हालांकि, केंद्र ने जनवरी में अदालत से कहा था कि वह याचिकाओं पर अपने पहले के रुख पर फिर से विचार कर रहा है क्योंकि उसे कई साल पहले दायर हलफनामे में रिकॉर्ड में लाया गया था।

केंद्र ने इस मामले में अपना रुख स्पष्ट करने के लिए अदालत से फरवरी में और समय देने का आग्रह किया था, जिसे बेंच ने इस आधार पर खारिज कर दिया था कि मौजूदा मामले को अंतहीन रूप से स्थगित करना संभव नहीं है।

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