बूढ़ी आंखों में आज भी कैद आजादी की पहली सुबह
ग्रेटर नोएडा, वरिष्ठ संवाददाता 15 अगस्त 1947, यानी स्वतंत्रता दिवस। यह तारीख सुनकर आज

ग्रेटर नोएडा, वरिष्ठ संवाददाता। 15 अगस्त 1947, यानी स्वतंत्रता दिवस। यह तारीख सुनकर आज भी जिले के बुजुर्गों की बूढ़ी आंखें चकमने लगती है। इनकी दिल-ओ-दिमाग और आंखों में आजादी की पहली सुबह आज भी कैद है। जिले के बुजुर्ग बताते हैं कि देश के आजाद होने की घोषणा होते ही गांवों से लेकर शहर तक में जश्न का माहौल था। लोग मिठाई बांटकर खुशी का इजहार कर रहे थे। रात में ही ढोल-नगाड़े बजने लगे थे। आजादी मिलने पर महिला, बुजुर्ग और बच्चे खुशी से झूम उठे थे। गांव में पूरे दिन मना था जश्न चौड़ा निवासी रविंद्र सिंह बताते हैं कि आजादी के लिए हमारे देश के वीर सपूतों ने कितने बलिदान दिए, ये बातें घर के बड़े-बुजुर्गों से सुनता रहता था।
उन्होंने बताया कि पिता जी ने बताया था कि 15 अगस्त 1947 की सुबह दिल्ली के लाल किला पर तिरंगा फहराने की सूचना मिलते ही क्षेत्र में खुशी की लहर दौड़ गई। स्वतंत्रता सेनानी व समाजसेवियों के नेतृत्व में छात्र-छात्राओं ने तिरंगा यात्रा निकाली। पूरा शहर भारत माता की जय के नारों से गूंज उठा था। जगह-जगह मिठाइयां बांटीं जा रही थीं। पिता जी रामचंद्र विकल के बारे में बताते थे, उनका जन्म दादरी तहसील क्षेत्र के बसंतपुर नया गांव में 8 नवंबर 1916 को हुआ था। उन्होंने गुलाम भारत में जन्म लिया, लेकिन जैसे-जैसे वह बढ़े हुए उनमें देशप्रेम की भावना बढ़ती चली गई। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में प्रतिभाग किया। वह छोटी उम्र में ही क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो गए थे। उनसे अंग्रेज अफसर भी काफी खफा थे। जब देश आजाद हुआ वह मात्र 21 वर्ष के थे और बरौला के प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक बन गए थे। शिक्षण कार्य के साथ वे सक्रिय क्रांतिकारी भी रहे। 1947 में देश आजाद हुआ तो उन्होंने ही सबसे पहले तिरंगा हाथ में उठाकर बिसरख थाने की छत पर लहराया। शरणार्थियों की मदद को बढ़े थे हाथ दादरी के समाजसेवी डॉ. आनंद आर्य बताते हैं कि 1947 में देश बंटवारे के चलते पाकिस्तान से बड़ी संख्या में हिंदू शरणार्थी दादरी पहुंचे, जिनकी दुर्दशा देखकर स्थानीय जनता ने द्रवित होकर उनकी सहायता की। दादरी मेन बाजार स्थित अग्रवाल धर्मशाला उनकी प्रथम शरणस्थली रही। जहां स्थित कुआं पर उनका स्नान ध्यान होता था। महिलाओं की दयनीय स्थिति के चलते आसपास के गांवों से पहुंचीं महिलाओं ने उनको वस्त्र दिए। पुरुषों ने मेहनत मजदूरी के साथ छोटी पूंजी से अपने व्यवसाय शुरू किए। उस दौर में दादरी में कोई सब्जी मंडी नहीं थी। पाकिस्तान से आए इन लोगों ने धर्मशाला के इर्द-गिर्द सब्जी बेचना शुरू किया। बाद में दादरी स्थित मेवों के चौपाल के पास सरकारी सहायता से इनको छोटे-छोटे आवास दिए गए। समय गुजरा, इनमें से कई लोगों ने सड़क पर कपड़े भी बेचने शुरू कर दिए। बाद में दादरी रेलवे रोड पर इनका सब्जी, कपड़े ,परचून जैसे व्यवसाय फल फूलने लगे।
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