कोटा के भीतर कोटा: एससी-एसटी पर भी लागू हो क्रीमी लेयर
नई दिल्ली। विशेष संवाददाता सुप्रीम कोर्ट के 7 जजों की संविधान पीठ ने बहुमत...
नई दिल्ली। विशेष संवाददाता
सुप्रीम कोर्ट के 7 जजों की संविधान पीठ ने बहुमत के फैसले से राज्यों को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण का उचित लाभ देने के लिए अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) का उप वर्गीकरण करने की अनुमति दे दी है। इसके साथ ही, शीर्ष अदालत ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की तर्ज पर अनुसूचित जाति और जनजातियों के बीच ‘क्रीमी लेयर के सिद्धांतों को लागू करने की वकालत की है। फिलहाल देश में सिर्फ ओबीसी में ही क्रीमी लेयर की अवधारणा लागू है।
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली संविधान पीठ में शामिल जस्टिस बीआर गवई अपने लिखे फैसले में कहा कि राज्य सरकारों को एससी-एसटी में से भी क्रीमी लेयर की पहचान करने के लिए एक नीति बनानी चाहिए ताकि उनको समुचित कार्रवाई करने आरक्षण के लाभ से बाहर रखा जा सके। उन्होंने कहा कि एससी-एसटी समुदाय के ऐसे व्यक्ति के बच्चे, जो आरक्षण का लाभ ले चुके हैं, को आरक्षण का लाभ नहीं लेने वाले व्यक्ति के बच्चों के बराबर का दर्जा नहीं दिया जा सकता। जस्टिस गवई ने कहा कि ‘जहां तक मेरा विचार है, सिर्फ और सिर्फ यही संविधान के तहत निहित वास्तविक समानता को प्राप्त कर सकता है। हालांकि जस्टिस गवई ने अपने फैसले में यह साफ कर दिया कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों में क्रीमी लेयर की पहचान करने के जो मानदंड अपनाया जाए, वह ओबीसी में क्रीमि लेयर की पहचान के लिए अपनाए जा रहे मानकों से अलग होने चाहिए।
जस्टिस गवई ने अपने फैसले कहा कि चूंकि संविधान पीठ ‘असमानों के समूह के बीच समानता के सवाल पर गौर कर रहा है, ऐसे में क्रीमी लेयर के मुद्दे पर भी विचार करना उचित है। उन्होंने कहा कहा कि ‘सवाल यह उठना चाहिए कि क्या आरक्षण का लाभ देते समय एससी-एसटी समुदायों के भीतर सभी के साथ एक समान व्यवहार, समानता के संवैधानिक उद्देश्य को आगे बढ़ाएगा या उसे विफल करेगा? उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि क्या आईएएस/ आईपीएस या सिविल सेवा अधिकारियों के बच्चे की तुलना अनुसूचित जातियों और जनजातियों के वंचित सदस्य के बच्चे से की जा सकती है, जो गांव में सरकारी में स्कूल पढ़ाई कर रहा है? जस्टिस गवई ने फैसले में लिखा है कि पहली श्रेणी के माता-पिता के बच्चे को मिलने वाली शिक्षा और अन्य सुविधाएं बहुत अधिक होंगी, शायद अतिरिक्त कोचिंग की सुविधाएं भी मिल रही होंगी, घर का माहौल भी समुचित शिक्षा पाने के लिए होगा। जबकि इसके विपरीत, दूसरी श्रेणी के माता-पिता के बच्चे को केवल न्यूनतम शिक्षा ही मिलती होगी और उनके लिए कोचिंग आदि की सुविधाएं भी नहीं होंगी और घर का माहौल भी शिक्षा के अनुकूल नहीं होगा। यहां तक की उनके माता पिता उचित मार्गदर्शन करने की स्थिति में भी नहीं हैं।
जस्टिस गवई ने कहा है कि ‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि ‘असमानता्एं और सामाजिक भेदभाव ग्रामीण क्षेत्रों में अत्यधिक प्रचलित हैं और इसके विपरीत शहरों, खासकर महानगरीय क्षेत्रों में असमानताएं और सामाजिक भेदभाव कम होने लगते हैं। उन्होंने कहा कि मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि सेंट पॉल हाई स्कूल और सेंट स्टीफन कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चे और देश के पिछड़े और दूरदराज स्थित छोटे से गांव में पढ़ने वाले बच्चे को एक ही श्रेणी में रखना, संविधान में मौजूद समानता के सिद्धांत को खत्म कर देगा। उन्होंने आगे कहा है कि एससी-एसटी समुदाय के माता-पिता जो आरक्षण के लाभ के कारण उच्च पद पर पहुंच गए हैं और सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े नहीं रहे हैं, उनके बच्चों और गांवों में शारीरिक श्रम करने वाले माता-पिता के बच्चों को एक ही श्रेणी में रखना, आरक्षण को लेकर संवैधानिक उद्देश्यों को विफल कर देगा। उन्होंने कहा कि संविधान स्वयं एससी-एसटी समुदाय को समाज का सबसे पिछड़ा वर्ग मानता है, इसलिए, इस श्रेणी से संबंधित व्यक्ति के सकारात्मक कार्रवाई से अलग करने के लिए वही मापदंड नहीं हो सकता है जो अन्य वर्गों पर लागू होते हैं। साथ ही कहा कि यदि कोई व्यक्ति आरक्षण का लाभ पाकर चपरासी या शायद सफाईकर्मी का पद प्राप्त कर लेता है, तो वह सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग बना रहेगा। ऐसे में, आरक्षण का लाभ पाकर जीवन में उच्च पदों पर पहुंचने वाले व्यक्ति को पिछड़ा वर्ग नहीं माना जा सकता है।
राज्यों को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण का उचित लाभ देने के लिए अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) का उप वर्गीकरण करने की अनुमति देने वाले फैसले का समर्थन करने वाले संविधान पीठ के छह जजों में 3 अन्य जजों जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पंकज मिथल और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा ने भी जस्टिस गवई के इस विचार का समर्थन किया है।
आरक्षण प्रणाली पर नये सिरे से हो विचार, पहली पीढ़ी तक सीमित हो आरक्षण का लाभ- जस्टिस मिथल
संविधान पीठ में शामिल जस्टिस पंकज मिथल ने जस्टिस गवई के विचारों का समर्थन करते हुए कहा कि ‘आरक्षण केवल पहली पीढ़ी तक ही सीमित होना चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि पहली पीढ़ी का कोई सदस्य आरक्षण के माध्यम से उच्च स्थिति तक पहुंच गया है, तो दूसरी पीढ़ी को आरक्षण पाने का हकदार नहीं होना चाहिए। इसके साथ ही, उन्होंने कहा कि संविधान के तहत तय किए गए आरक्षण की नीति पर नए सिरे से विचार करने जरूरत है। जस्टिस मिथल ने कहा कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग से संबंधित लोगों की मदद करने और उनके उत्थान के लिए आज आरक्षण देने के अन्य तरीकों के खोजने और लागू करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि जब तक कोई नई प्रणाली नहीं अपनाई जाती है, तब तक आरक्षण की मौजूदा प्रणाली, किसी वर्ग, खासकर एससी-एसटी के उप-वर्गीकरण की अनुमति देने की शक्ति को जारी रख सकती है। उन्होंने कहा कि आरक्षण का लाभ लेने के बाद सामान्य श्रेणी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले व्यक्ति को आरक्षण के लाभ से बाहर करने के लिए समय-समय पर समुचित कदम उठाए जाने चाहिए।
क्रीमी लेयर की पहचान राज्य के लिए अनिवार्य होना चाहिए- जस्टिस शर्मा
ओबीसी की तर्ज पर एसएसी-एसटी में भी क्रीम लेयर की अवधारणा को लागू करने के जस्टिस गवई के विचारों से सहमति जताते हुए जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा ने कहा कि ‘एससी-एसटी समुदायों में भी क्रीमी लेयर की पहचान का मुद्दा राज्य के लिए संवैधानिक अनिवार्यता बन जाना चाहिए। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों के संविधान पीठ द्वारा 2018 में जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता मामले में पारित फैसले का हवाला दिया, जिसमें प्रमोशन में आरक्षण के संदर्भ में कहा गया था कि क्रीमी लेयर का बहिष्कार एससी/एसटी पर भी लागू किया जा सकता है।
जस्टिस शर्मा ने कहा कि आरक्षण का पूरा उद्देश्य यह देखना है कि पिछड़े वर्ग के नागरिक आगे बढ़ें ताकि वे भारत के अन्य नागरिकों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर आगे बढ़ सकें। उन्होंने कहा कि यह तब तक संभव नहीं हो पाएगा जब तक कि किसी समुदाय के भीतर का क्रीमी लेयर आरक्षण का लाभ पाकर सार्वजनिक क्षेत्र में सभी प्रतिष्ठित नौकरियों को हथियाकर खुद को बनाए रखे और समुदाय के अन्य वंचित लोग हमेशा की तरह पिछड़ा ही रह जाए।
एससी-एसटी पर भी लागू होता है क्रीमि लेयर:- जस्टिस नाथ
जस्टिस विक्रम नाथ ने कहा कि ‘मैं अपने भाई जस्टिस गवई की इस विचार से सहमत हूं कि क्रीमी लेयर का सिद्धांत अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर भी लागू होता है। उन्होंने कहा कि मैं इस बात से भी सहमत हूं कि सकारात्मक कार्रवाई के उद्देश्य से क्रीमी लेयर की पहचान कर आरक्षण के लाभ से एससी-एसटी को बाहर करने का मानदंड ओबीसी के लिए लागू मानदंडों से अलग हो सकते हैं।
राज्यों को एससी-एसटी का उपवर्गीकरण करने का अधिकार नहीं- जस्टिस त्रिवेदी
जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी ने असहमति वाले अपने फैसले में कहा है कि ‘कार्यकारी और विधायी शक्ति के अभाव में राज्य सरकारों के पास जातियों को उप-वर्गीकृत करने और संपूर्ण अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित लाभों को उप-वर्गीकृत करने की कोई क्षमता नहीं है। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार द्वारा एससी-एसटी के उप-वर्गीकरण को अनुच्छेद 341(2) के तहत राष्ट्रपति की अधिसूचना के साथ छेड़छाड़ के समान होगा। जस्टिस त्रिवेदी ने अपने 85 पन्नों के अलग फैसले में कहा कि केवल संसद ही किसी जाति को एससी सूची में शामिल कर सकती है या बाहर कर सकती है और राज्यों को इसमें फेरबदल करने का अधिकार नहीं है। उन्होंने कहा कि एससी-एसटी एक सजातीय समूह है जिसका उप-वर्गीकरण नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा कि ‘अनुच्छेद 341 के तहत जारी अधिसूचना में ‘एससी के रूप में सूचीबद्ध जातियों, नस्लों या जनजातियों को विभाजित/उप-विभाजित/उप-वर्गीकृत या पुनर्समूहित करके किसी विशेष जाति/जातियों को आरक्षण प्रदान करने या तरजीही उपचार देने के लिए कानून बनाने के लिए राज्यों के पास कोई विधायी क्षमता नहीं है।
इस आधार पर किया एससी-एसटी को किया जा सकता है वर्गीकृत
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने बहुमत के फैसले में कहा कि ‘यदि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियां कानून के उद्देश्यों या पहचाने गए विशिष्ट नुकसान के लिए समान रूप से स्थित नहीं हैं, तो संविधान के अनुच्छेद 15, 16 और 341 (अनुसूचित जातियों को वर्गीकृत करने की राष्ट्रपति की शक्ति) में ऐसा कुछ भी नहीं है जो राज्य को इस समुदाय के उप-वर्गीकरण के सिद्धांत को लागू करने से रोकता हो। उन्होंने फैसले में उस आधार का भी विस्तार से चर्चा किया है, जिसके आधार पर एससी-एसटी को उप वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि एससी-एसटी को वर्गीकृत किया जा सकता है यदि पहला, भेदभाव के लिए एक तर्कसंगत सिद्धांत हो, दूसरा यदि तर्कसंगत सिद्धांत का उप-वर्गीकरण के उद्देश्य से संबंध हो। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने यह स्पष्ट किया कि किसी विशेष जाति को श्रेणी के अंदर अधिक कोटा लाभ देने के लिए एससी-एसटी को उप-वर्गीकृत करने के किसी भी निर्णय की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 16(4) के तहत उप-वर्गीकरण करने की शक्ति के वैध प्रयोग के लिए राज्यों को ‘सेवाओं में उप-श्रेणियों के प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता के संबंध में मात्रात्मक डेटा एकत्र करने की आवश्यकता होती है। साथ ही कहा कि प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता पिछड़ेपन का एक संकेतक है और इस प्रकार, प्रतिनिधित्व निर्धारित करने के लिए एक इकाई के रूप में कैडर का उपयोग करना संकेतक के उद्देश्य को ही बदल देता है। सीजेआई ने बहुमत के फैसले में कहा कि राज्य को यह तय करते समय कि क्या वर्ग का पर्याप्त प्रतिनिधित्व है, मात्रात्मक प्रतिनिधित्व के बजाय प्रभावी प्रतिनिधित्व के आधार पर पर्याप्तता की गणना करनी चाहिए। साथ ही कहा कि संविधान का अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) एक वर्ग के उप-वर्गीकरण की अनुमति देता है जो कानून के उद्देश्य के लिए समान रूप से स्थित नहीं है।
सीजेआई ने उप-वर्गीकरण की वैधता का परीक्षण करते समय न्यायालय को यह निर्धारित करना चाहिए कि क्या वर्ग उद्देश्य के उद्देश्य को पूरा करने के लिए एक समरूप एकीकृत वर्ग है। आरक्षण के मसले पर मंडल आयोग से जुड़े फैसले का उल्लेख करते हुए मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि यह उप-वर्गीकरण के आवेदन को केवल अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) तक सीमित नहीं करता है। फैसले में कहा गया कि संविधान का अनुच्छेद 341 (1) एक मान्य कल्पना नहीं बनाता है और प्रावधान का संचालन एक एकीकृत समरूप एससी वर्ग नहीं बनाता है। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 341 (1) राष्ट्रपति को जातियों, नस्लों या जनजातियों को अधिसूचित करने की शक्ति देता है जिन्हें किसी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के लिए एससी माना जाएगा। साथ ही कहा कि एससी के भीतर उप-वर्गीकरण अनुच्छेद 341 (1) का उल्लंघन नहीं करता है और 341(2) के अनुसार, जातियां अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल या बहिष्कृत नहीं हैं। जस्टिस मनोज मिश्रा के लिए भी मुख्य न्यायाधीश ने फैसला लिखा।
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