
ईश्वर नीरो और चंगेज खां है; भगत सिंह ने क्यों उठाए थे भगवान के अस्तित्व पर सवाल?
संक्षेप: इस लेख में भगतसिंह ने ईश्वर कि उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किए हैं और इस संसार के निर्माण,मनुष्य के जन्म,मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ साथ संसार में मनुष्य की दीनता,उसके शोषण,दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है।
किसी के लिए महान स्वतंत्रता सेनानी, तो किसी के लिए क्रांतिकारी, किसी के लिए प्रेरक व्यक्तित्व और किसी के रोल मॉडल... सरदार भगत सिंह को हर देशवासी बड़े गर्व और सम्मान की नजरों से देखता आया है। जिस उम्र में युवा करियर और आगे के भविष्य के लिए चिंतित रहते हैं,उस उम्र में भगत सिंह हंसते-हंसते इस वतन के लिए फांसी पर चढ़ गए। आजादी की आग ऐसी जलाई कि अंग्रेजों की नींव तक हिला दी। आज उनकी जयंती है। इस खास मौके पर आज आपको भगत सिंह के बारे में कुछ खास बताते हैं। जो भगत सिंह को पढ़ चुके हैं या उनके व्यक्तित्व के बारे में जानते हैं,उन्हें पता होगा कि भगत सिंह का भगवान पर कोई विश्वास नहीं था। भगत सिंह ईश्वर जैसी किसी भी शक्ति को नहीं मानते थे। आप सरल शब्दों में उन्हें नास्तिक कह सकते हैं। भगत सिंह ने तो बकायदा एक किताब लिखी जिसका शीर्षक 'मैं नास्तिक क्यों हूं' रखा। किताब में इस नाम से एक चैप्टर है जिसमें उन्होंने भगवान पर अविश्वास के लिए कई तर्क दिए हैं। यहां तक कि उन्होंने भगवान को चंगेज खां और रोम जलाने वाले नीरो तक से तुलना कर दी या उससे भी खराब बताया। तो आइए आपको बताते हैं कि आखिर भगत सिंह को ईश्वर पर विश्वास क्यों नहीं था...
यह तब की बात है जब शहीद-ए-आजम भगत सिंह जेल में थे। बाद में लेख के रूप में 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार “ द पीपल “ में प्रकाशित हुआ। इस लेख में भगतसिंह ने ईश्वर कि उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किए हैं और इस संसार के निर्माण,मनुष्य के जन्म,मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ साथ संसार में मनुष्य की दीनता,उसके शोषण,दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है। यह भगत सिंह के लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में रहा है।
तो ऐसे शुरू हुई बात
स्वतन्त्रता सेनानी बाबा रणधीर सिंह 1930-31 के बीच लाहौर के सेन्ट्रल जेल में कैद थे। वे एक धार्मिक व्यक्ति थे,जिन्हें यह जान कर बहुत कष्ट हुआ कि भगत सिंह का ईश्वर पर विश्वास नहीं है। वे किसी तरह भगत सिंह की कालकोठरी में पहुंचने में सफल हुए और उन्हें ईश्वर के अस्तित्व पर यकीन दिलाने की कोशिश की। असफल होने पर बाबा ने नाराज होकर कहा,“प्रसिद्धि से तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है और तुम अहंकारी बन गए हो जो कि एक काले पर्दे के तरह तुम्हारे और ईश्वर के बीच खड़ी है। इस टिप्पणी के जवाब में ही भगत सिंह ने 'मैं नास्तिक क्यों हूं' वाला लेख लिखा था।
मैं ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर कुछ जरूरत से ज्यादा आगे जा रहा हूं...
भगत सिंह लिखते हैं कि एक नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। क्या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान,सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता हूं? मेरे कुछ दोस्त शायद ऐसा कहकर मैं उन पर बहुत अधिकार नहीं जमा रहा हूं। मेरे साथ अपने थोड़े से संपर्क में इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिये उत्सुक हैं कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर कुछ जरूरत से ज्यादा आगे जा रहा हूं और मेरे घमंड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्वास के लिये उकसाया है। मैं ऐसी कोई शेखी नहीं बघारता कि मैं मानवीय कमजोरियों से बहुत ऊपर हूं। मैं एक मनुष्य हूं और इससे अधिक कुछ नहीं। कोई भी इससे अधिक होने का दावा नहीं कर सकता। यह कमजोरी मेरे अंदर भी है।

भगत सिंह आगे लिखते हैं कि अहंकार भी मेरे स्वभाव का अंग है। अपने कामरेडो के बीच मुझे निरंकुश कहा जाता था। यहां तक कि मेरे दोस्त बटुकेश्वर कुमार दत्त भी मुझे कभी-कभी ऐसा कहते थे। कई मौकों पर स्वेच्छाचारी कह मेरी निंदा भी की गई। कुछ दोस्तों को शिकायत है और गंभीर रूप से है कि मैं अनचाहे ही अपने विचार उन पर थोपता हूं और अपने प्रस्तावों को मनवा लेता हूं। यह बात कुछ हद तक सही है। इससे मैं इनकार नहीं करता। इसे अहंकार कहा जा सकता है। जहां तक अन्य प्रचलित मतों के मुकाबले हमारे अपने मत का सवाल है। मुझे निश्चय ही अपने मत पर गर्व है,लेकिन यह व्यक्तिगत नहीं है। ऐसा हो सकता है कि यह केवल अपने विश्वास के प्रति न्यायोचित गर्व हो और इसको घमंड नहीं कहा जा सकता। घमण्ड तो स्वयं के प्रति अनुचित गर्व की अधिकता है। क्या यह अनुचित गर्व है जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया? अथवा इस विषय का खूब सावधानी से अध्ययन करने और उस पर खूब विचार करने के बाद मैंने ईश्वर पर अविश्वास किया?
न मैं परमात्मा हूं और न ही कोई अवतार
भगत सिंह आगे लिखते हैं कि यह कैसे हो सकता है कि एक व्यक्ति जो ईश्वर में विश्वास रखता हो सहसा अपने व्यक्तिगत अहंकार के कारण उसमें विश्वास करना बंद कर दे? दो ही रास्ते संभव हैं। या तो मनुष्य अपने आप को ईश्वर का प्रतिद्वन्द्वी समझने लगे या वह स्वयं को ही ईश्वर मानना शुरू कर दे। इन दोनों ही अवस्थाओं में वह सच्चा नास्तिक नहीं बन सकता। पहली अवस्था में तो वह अपने प्रतिद्वन्द्वी के अस्तित्व को नकारता ही नहीं है। दूसरी अवस्था में भी वह एक ऐसी चेतना के अस्तित्व को मानता है,जो पर्दे के पीछे से प्रकृति की सभी गतिविधियों का संचालन करती है। मैं तो उस सर्वशक्तिमान परम आत्मा के अस्तित्व से ही इनकार करता हूं। यह अहंकार नहीं है,जिसने मुझे नास्तिकता के सिद्धांत को ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया। मैं न तो एक प्रतिद्वन्द्वी हूं,न ही एक अवतार और न ही स्वयं परमात्मा। इस अभियोग को अस्वीकार करने के लिये आइए तथ्यों पर गौर करें। मेरे इन दोस्तों के अनुसार दिल्ली बम केस और लाहौर षडयन्त्र केस के दौरान मुझे जो अनावश्यक यश मिला, शायद उस कारण मैं वृथाभिमानी हो गया हूं।
कभी घंटों गायत्री मंत्र का जाप भी करते थे भगत सिंह
मैं नास्तिक हूं किताब में भगत सिंह ने बताया कि मेरा नास्तिकतावाद कोई अभी हाल की उत्पत्ति नहीं है। मैंने तो ईश्वर पर विश्वास करना तब छोड़ दिया था,जब मैं एक अप्रसिद्ध नौजवान था। कम से कम एक कॉलेज का विद्यार्थी तो ऐसे किसी अनुचित अहंकार को नहीं पाल-पोस सकता,जो उसे नास्तिकता की ओर ले जाएं। यद्यपि मैं कुछ अध्यापकों का चहेता था तथा कुछ अन्य को मैं अच्छा नहीं लगता था पर मैं कभी भी बहुत मेहनती अथवा पढ़ाकू विद्यार्थी नहीं रहा। अहंकार जैसी भावना में फंसने का कोई मौका ही न मिल सका। मैं तो एक बहुत लज्जालु स्वभाव का लड़का था,जिसकी भविष्य के बारे में कुछ निराशावादी प्रकृति थी। मेरे बाबा जिनके प्रभाव में मैं बड़ा हुआ एक रूढ़िवादी आर्य समाजी हैं। एक आर्य समाजी और कुछ भी हो,नास्तिक नहीं होता। अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद मैंने डीएवी स्कूल,लाहौर में प्रवेश लिया और पूरे एक साल उसके छात्रावास में रहा। वहां सुबह और शाम की प्रार्थना के अतिरिक्त में घंटों गायत्री मंत्र जपा करता था। उन दिनों मैं पूरा भक्त था। बाद में मैंने अपने पिता के साथ रहना शुरू किया। जहां तक धार्मिक रूढ़िवादिता का प्रश्न है,वह एक उदारवादी व्यक्ति हैं। उन्हीं की शिक्षा से मुझे स्वतंत्रता के ध्येय के लिये अपने जीवन को समर्पित करने की प्रेरणा मिली। किंतु वे नास्तिक नहीं हैं। उनका ईश्वर में दृढ़ विश्वास है। वे मुझे प्रतिदिन पूजा-प्रार्थना के लिये प्रोत्साहित करते रहते थे। इस प्रकार से मेरा पालन-पोषण हुआ।

भगत सिंह ने आगे लिखा कि असहयोग आंदोलन के दिनों में राष्ट्रीय कालेज में प्रवेश लिया। यहां आकर ही मैंने सारी धार्मिक समस्याओं यहां तक कि ईश्वर के अस्तित्व के बारे में उदारतापूर्वक सोचना,विचारना तथा उसकी आलोचना करना शुरू किया पर अभी भी मैं पक्का आस्तिक था। उस समय तक मैं अपने लम्बे बाल रखता था। यद्यपि मुझे कभी-भी सिक्ख या अन्य धर्मों की पौराणिकता और सिद्धान्तों में विश्वास न हो सका था। किन्तु मेरी ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ निष्ठा थी। बाद में मैं क्रान्तिकारी पार्टी से जुड़ा। वहां जिस पहले नेता से मेरा संपर्क हुआ वे तो पक्का विश्वास न होते हुए भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस ही नहीं कर सकते थे। ईश्वर के बारे में मेरे हठ पूर्वक पूछते रहने पर वे कहते, ‘जब इच्छा हो तब पूजा कर लिया करो।’ यह नास्तिकता है,जिसमें साहस का अभाव है। दूसरे नेता जिनके मैं संपर्क में आया पक्के श्रद्धालु आदरणीय कामरेड शचीन्द्र नाथ सान्याल आजकल काकोरी षडयन्त्र केस के सिलसिले में आजीवन कारवास भोग रहे हैं(तब की बात बताते हुए)। उनकी पुस्तक ‘बन्दी जीवन’ ईश्वर की महिमा का जोर-शोर से गान है। उन्होंने उसमें ईश्वर के ऊपर प्रशंसा के पुष्प रहस्यात्मक वेदान्त के कारण बरसाये हैं। 28 जनवरी 1925 को पूरे भारत में जो ‘दि रिवोल्यूशनरी’ (क्रान्तिकारी) पर्चा बांटा गया था,वह उन्हीं के बौद्धिक श्रम का परिणाम है। उसमें सर्वशक्तिमान और उसकी लीला एवं कार्यों की प्रशंसा की गई है।
1926 के अंत तक पूरे नास्तिक हो चुके थे भगत सिंह
भगत सिंह लिखते हैं कि मेरा ईश्वर के प्रति अविश्वास का भाव क्रान्तिकारी दल में भी प्रस्फुटित नहीं हुआ था। काकोरी के सभी चार शहीदों ने अपने अंतिम दिन भजन-प्रार्थना में गुजारे थे। राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ एक रूढ़िवादी आर्य समाजी थे। समाजवाद तथा साम्यवाद में अपने वृहद अध्ययन के बावजूद राजेन लाहड़ी उपनिषद एवं गीता के श्लोकों के उच्चारण की अपनी अभिलाषा को दबा न सके। मैंने उन सब मे सिर्फ एक ही व्यक्ति को देखा जो कभी प्रार्थना नहीं करता था और कहता था,दर्शन शास्त्र मनुष्य की दुर्बलता अथवा ज्ञान के सीमित होने के कारण उत्पन्न होता है। वह भी आजीवन निर्वासन की सजा भोग रहा है। परन्तु उसने भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने की कभी हिम्मत नहीं की। 1926 के अंत तक मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि एक सर्वशक्तिमान परम आत्मा की बात जिसने ब्रह्माण्ड का सृजन,दिग्दर्शन और संचालन किया,एक कोरी बकवास है। मैंने अपने इस अविश्वास को प्रदर्शित किया। मैंने इस विषय पर अपने दोस्तों से बहस की। मैं एक घोषित नास्तिक हो चुका था।
मई 1927 आते-आते भगत सिंह अरेस्ट हो गए। वह लाहौर की जेल में गिरफ्तार कर लाए गए थे। उन्होंने लिखा कि मुझे जेल के अंतिम दिनों में भगवान की अस्तुति,ध्यान करने के लिए कहा गया। मुझे नियम से दोनो समय ईश्वर की स्तुति करने के लिये फुसलाना शुरू किया पर मैंने निश्चिय कर लिया था कि मैं ये नहीं कर सकता। अब मैं एक नास्तिक था। मैं स्वयं के लिये यह बात तय करना चाहता था कि क्या शांति और आनंद के दिनों में ही मैं नास्तिक होने का दंभ भरता हूं या ऐसे कठिन समय में भी मैं उन सिद्धांतों पर अडिग रह सकता हूं। बहुत सोचने के बाद मैंने निश्चय किया कि किसी भी तरह ईश्वर पर विश्वास तथा प्रार्थना मैं नहीं कर सकता। नहीं, मैंने एक क्षण के लिये भी नहीं की। यही असली परीक्षण था और मैं सफल रहा। अब मैं एक पक्का अविश्वासी था और तब से लगातार हूं। इस परीक्षण पर खरा उतरना आसान काम न था।

ईश्वर में विश्वास रखने वाला हिंदू पुनर्जन्म पर राजा होने की आशा कर सकता है। एक मुसलमान या ईसाई स्वर्ग में व्याप्त समृद्धि के आनंद की तथा अपने कष्टों और बलिदान के लिये पुरस्कार की कल्पना कर सकता है। किन्तु मैं क्या आशा करूं? मैं जानता हूं कि जिस क्षण रस्सी का फंदा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख्ता हटेगा,वह पूर्ण विराम होगा,वह अंतिम क्षण होगा। मैं या मेरी आत्मा सब वहीं समाप्त हो जाएगी। आगे कुछ न रहेगा।
भगवान और नीरो में क्या फर्क है?
भगत सिंह ने आगे लिखा कि हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं। यदि आपका विश्वास है कि एक सर्वशक्तिमान,सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी ईश्वर है,जिसने विश्व की रचना की तो कृपा करके मुझे यह बताएं कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों और संतापों से पूर्ण दुनिया,असंख्य दुखों के शाश्वत अनन्त गठबन्धनों से ग्रसित! एक भी व्यक्ति तो पूरी तरह संतृष्ट नही है। कृपया यह न कहें कि यही उसका नियम है। यदि वह किसी नियम से बंधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है। वह भी हमारी ही तरह नियमों का दास है। कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका मनोरंजन है। नीरो ने बस एक रोम जलाया था। उसने बहुत थोड़ी संख्या में लोगों की हत्या की थी। उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया,अपने पूर्ण मनोरंजन के लिए और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं? सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाए जाते हैं। पन्ने उसकी निंदा के वाक्यों से काले पुते हैं, भर्त्सना करते हैं –नीरो एक हृदयहीन,निर्दयी,दुष्ट। एक चंगेज खां ने अपने आनंद के लिए कुछ हजार जानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं। तब किस प्रकार तुम अपने ईश्वर को न्यायोचित ठहराते हो? उस शाश्वत नीरो को जो हर दिन हर घण्टे ओर हर मिनट असंख्य दुख देता रहा और अभी भी दे रहा है। फिर तुम कैसे उसके दुष्कर्मों का पक्ष लेने की सोचते हो,जो चंगेज खां से प्रत्येक क्षण अधिक है? क्या यह सब बाद में इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और गलती करने वालों को दण्ड देने के लिये हो रहा है? ठीक है,ठीक है। तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे,जो हमारे शरीर पर घाव करने का साहस इसलिए करता है कि बाद में मुलायम और आरामदायक मलहम लगायेगा? ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापक कहां तक उचित करते थे कि एक भूखे खूंखार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि,यदि वह उससे जान बचा लेता है,तो उसकी खूब देखभाल की जाएगी? इसलिए मैं पूछता हूं कि उस चेतन परम आत्मा ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों की रचना क्यों की? आनंद लूटने के लिये? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?

सभी धर्मों से पूछे ये सवाल
भगत सिंह ने सवाल किया कि तुम मुसलमानों और ईसाइयों! तुम तो पूर्वजन्म में विश्वास नहीं करते। तुम तो हिंदुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का फल है। मैं तुमसे पूछता हूं कि उस सर्वशक्तिशाली ने शब्द की ओर से विश्व के उत्पत्ति के लिये छः दिन तक क्यों परिश्रम किया? और प्रत्येक दिन वह क्यों कहता है कि सब ठीक है? बुलाओ उसे आज। उसे पिछला इतिहास दिखाओ। उसे आज की परिस्थितियों का अध्ययन करने दो। हम देखेंगे कि क्या वह कहने का साहस करता है कि सब ठीक है। कारावास की काल-कोठरियों से लेकर झोपड़ियों की बस्तियों तक भूख से तड़पते लाखों इंसानों से लेकर उन शोषित मजदूरों से लेकर जो पूंजीवादी पिशाच की तरफ से खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक निरुत्साह से देख रहे हैं तथा उस मानवशक्ति की बर्बादी देख रहे हैंजिसे देखकर कोई भी व्यक्ति,जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है,भय से सिहर उठेगा और अधिक उत्पादन को जरूरतमन्द लोगों में बांटने के बजाय समुद्र में फेंक देना बेहतर समझने से लेकर राजाओं के उन महलों तक जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है। उसको यह सब देखने दो और फिर कहे –सब कुछ ठीक है! क्यों और कहां से? यही मेरा प्रश्न है। तुम चुप हो। ठीक है,तो मैं आगे चलता हूं।
शहीद-ए-आजम ने आगे लिखा कि और तुम हिंदुओं तुम कहते हो कि आज जो कष्ट भोग रहे हैं ये पूर्वजन्म के पापी हैं और आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे,अतः वे सत्ता का आनंद लूट रहे हैं। मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे। उन्होंने ऐसे सिद्धांत गढ़े, जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफी ताकत है। किंतु यदि हम मनुष्यों को अपराधी मान भी लें,तो ईश्वर की ओर से उन्हें दिये गए दण्ड की क्या प्रकृति है? तुम कहते हो वह उन्हें गाय,बिल्ली,पेड़,जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है। तुम ऐसे 84 लाख दण्डों को गिनाते हो। मैं पूछता हूं कि मनुष्य पर इनका सुधारक के रूप में क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो,जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गधा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं? अपने पुराणों से उदाहरण न दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है और फिर क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है। गरीबी एक अभिशाप है। यह एक दण्ड है। मैं पूछता हूं कि दण्ड प्रक्रिया की कहां तक प्रशंसा करें,जो अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे?
भगत सिंह ने आगे सवाल किया कि मैं पूछता हूं तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को क्यों नहीं उस समय रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? यह तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं की लड़ने की उग्रता को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे बचाया? उसने अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने की भावना क्यों नहीं पैदा की? वह क्यों नहीं पूंजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर अपना व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिकार त्याग दें और इस प्रकार केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय,वरन समस्त मानव समाज को पूंजीवादी बेड़ियों से मुक्त करें? आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं। मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूं कि वह लागू करे। परमात्मा को आने दो और वह चीज को सही तरीके से कर दे। अंग्रेजों की हुकूमत यहां इसलिये नहीं है कि ईश्वर चाहता है बल्कि इसलिए कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमको अपने प्रभुत्व में ईश्वर की मदद से नहीं रखे हैं,बल्कि बंदूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे। यह हमारी उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निन्दनीय अपराध –एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचार पूर्ण शोषण सफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहां है ईश्वर? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मजा ले रहा है? एक नीरो,एक चंगेज खां की तरह तो उसका नाश हो!

भगत सिंह ने लिखा कि तुम्हारा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अंधा या लंगड़ा पैदा होता है? क्या यह उसके पूर्वजन्म में किये गए कार्यों का फल नहीं है? जीवविज्ञान वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाल लिया है। अवश्य ही तुम एक और बचकाना प्रश्न पूछ सकते हो। यदि ईश्वर नहीं है,तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे? मेरा उत्तर सूक्ष्म तथा स्पष्ट है। जिस प्रकार वे प्रेतों तथा दुष्ट आत्माओं में विश्वास करने लगे। अंतर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और दर्शन अत्यन्त विकसित। मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे नास्तिक होने की बात बताई तो उसने कहा, ‘अपने अन्तिम दिनों में तुम विश्वास करने लगोगे।’ मैंने कहा, ‘नहीं प्यारे दोस्त ऐसा नहीं होगा। मैं इसे अपने लिए अपमानजनक तथा भ्रष्ट होने की बात समझाता हूं। स्वार्थी कारणों से मैं प्रार्थना नहीं करूंगा।'’ पाठकों और दोस्तों,क्या यह अहंकार है? अगर है तो मैं स्वीकार करता हूं।
('मैं नास्तिक क्यों हूं' किताब चैप्टर से लिया गया)





