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जयंती विशेषः 'डॉटर्स डे' पर पढ़ें राष्ट्रकवि 'दिनकर' की लोकप्रिय कविता 'बालिका से वधू'

कवि रामधारी सिंह 'दिनकर' को भारत का राष्ट्रकवि कहा जाता है। जिनका जन्म 23 सितंबर 1908 को वर्तमान बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया ग्राम में हुआ था। राष्ट्रकवि दिनकर को आधुनिक युग का श्रेष्ठ...

जयंती विशेषः 'डॉटर्स डे' पर पढ़ें राष्ट्रकवि 'दिनकर' की लोकप्रिय कविता 'बालिका से वधू'
लाइव हिन्दुस्तान,नई दिल्लीSun, 23 Sep 2018 10:00 AM
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कवि रामधारी सिंह 'दिनकर' को भारत का राष्ट्रकवि कहा जाता है। जिनका जन्म 23 सितंबर 1908 को वर्तमान बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया ग्राम में हुआ था। राष्ट्रकवि दिनकर को आधुनिक युग का श्रेष्ठ 'वीर रस' कवि माना जाता है। उन्हें पद्म भूषण, हिंदी साहित्य अकादमी जैसे बड़े पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं।

दिनकर ने राष्ट्र प्रेम और क्रांति से जुड़ी कई लोकप्रिय रचनाएं लिखीं, जिनमें उनकी रश्मिरथी, उर्वशी, कुरुक्षेत्र, संस्कृति के चार अध्याय, परशुराम की प्रतीक्षा, हुंकार आदि बहुत लोकप्रिय हुए। आज के दिन ही डॉटर्स डे भी है और दिनकर ने बेटी पर एक काफी लोकप्रिय कवि लिखी है, जिसका शीर्षक 'बेटी से वधू' है।

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माथे में सेंदूर पर छोटी
दो बिंदी चमचम-सी, 
पपनी पर आंसू की बूंदें 
मोती-सी, शबनम-सी। 
लदी हुई कलियों में मादक
टहनी एक नरम-सी,
यौवन की विनती-सी भोली,
गुमसुम खड़ी शरम-सी।
पीला चीर, कोर में जिसके 
चकमक गोटा-जाली, 
चली पिया के गांव उमर के 
सोलह फूलों वाली। 
पी चुपके आनंद, उदासी
भरे सजल चितवन में,
आंसू में भींगी माया
चुपचाप खड़ी आंगन में।
आंखों में दे आंख हेरती 
हैं उसको जब सखियां, 
मुस्की आ जाती मुख पर,
हंस देती रोती अंखियां। 
पर, समेट लेती शरमाकर
बिखरी-सी मुस्कान,
मिट्टी उकसाने लगती है
अपराधिनी-समान।
भींग रहा मीठी उमंग से 
दिल का कोना-कोना, 
भीतर-भीतर हंसी देख लो,
बाहर-बाहर रोना। 
तू वह, जो झुरमुट पर आयी
हंसती कनक-कली-सी,
तू वह, जो फूटी शराब की
निर्झरिणी पतली-सी।
तू वह, रचकर जिसे प्रकृति 
ने अपना किया सिंगार, 
तू वह जो धूसर में आयी 
सुबज रंग की धार। 
मां की ढीठ दुलार! पिता की
ओ लजवंती भोली,
ले जायेगी हिय की मणि को
अभी पिया की डोली।

प्रतीकात्मक तस्वीर (साभारः sarita)
कहो, कौन होगी इस घर की 
तब शीतल उजियारी? 
किसे देख हंस-हंस कर 
फूलेगी सरसों की क्यारी? 
वृक्ष रीझ कर किसे करेंगे
पहला फल अर्पण-सा?
झुकते किसको देख पोखरा
चमकेगा दर्पण-सा?
किसके बाल ओज भर देंगे 
खुलकर मंद पवन में? 
पड़ जायेगी जान देखकर 
किसको चंद्र-किरन में? 
महं-महं कर मंजरी गले से
मिल किसको चूमेगी?
कौन खेत में खड़ी फ़सल
की देवी-सी झूमेगी?
बनी फिरेगी कौन बोलती 
प्रतिमा हरियाली की? 
कौन रूह होगी इस धरती 
फल-फूलों वाली की? 
हंसकर हृदय पहन लेता जब
कठिन प्रेम-ज़ंजीर,
खुलकर तब बजते न सुहागिन,
पांवों के मंजीर।
घड़ी गिनी जाती तब निशिदिन 
उंगली की पोरों पर, 
प्रिय की याद झूलती है 
सांसों के हिंडोरों पर। 
पलती है दिल का रस पीकर
सबसे प्यारी पीर,
बनती है बिगड़ती रहती
पुतली में तस्वीर।
पड़ जाता चस्का जब मोहक 
प्रेम-सुधा पीने का, 
सारा स्वाद बदल जाता है 
दुनिया में जीने का। 
मंगलमय हो पंथ सुहागिन,
यह मेरा वरदान;
हरसिंगार की टहनी-से
फूलें तेरे अरमान।
जगे हृदय को शीतल करने-
वाली मीठी पीर, 
निज को डुबो सके निज में, 
मन हो इतना गंभीर। 
छाया करती रहे सदा
तुझको सुहाग की छांह,
सुख-दुख में ग्रीवा के नीचे
रहे पिया की बांह।
पल-पल मंगल-लग्न, ज़िंदगी 
के दिन-दिन त्यौहार, 
उर का प्रेम फूटकर हो 
आंचल में उजली धार।

साभारः कविता कोश

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