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स्मृति शेष : लक्ष्मीधर मालवीय पांच दशक जापान में हिंदी साहित्य के दूत बनकर रहे

लक्ष्मीधर मालवीय जापान में हिंदी साहित्य के दूत बनकर पांच दशक तक रहे। उनका नाम विदेशों में रहकर हिंदी की सेवा करने वाले प्रमुख साहित्यकारों में लिया जाता है। उन्होंने क्योटो के पास कामेओका नामक...

स्मृति शेष : लक्ष्मीधर मालवीय पांच दशक जापान में हिंदी साहित्य के दूत बनकर रहे
Amitहिटी,नई दिल्लीFri, 10 May 2019 09:01 PM
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लक्ष्मीधर मालवीय जापान में हिंदी साहित्य के दूत बनकर पांच दशक तक रहे। उनका नाम विदेशों में रहकर हिंदी की सेवा करने वाले प्रमुख साहित्यकारों में लिया जाता है। उन्होंने क्योटो के पास कामेओका नामक पहाड़ी गांव अपना आवास बनाया था। वे 85 वर्ष की अवस्था में भी रोज कई घंटे अध्ययन और लेखन करते थे। 

गहरे मानवीय संवेदना के कथाकार
मालवीय गहरे मानवीय संवेदना के कथाकार थे। युद्ध की विभीषिका के बीच मानवीय त्रासदी उनकी कहानियों का विषय बनीं। बाजारीकरण एवं औद्योगीकरण ने किस तरह मानवीय मूल्यों को हाशिए पर धकेल दिया है, इसका सजीव चित्रण उनकी रचनाओं में दिखाई देता है। उनकी तीन खंडों में सम्पादित देव-ग्रंथावली एक दस्तावेज मानी जाती है।

1966 में जापान पहुंचे
मालवीय का जन्म 1934 में प्रयागराज में हुआ था। वे मालवीय जी के तीसरे बेटे के मुकुंद मालवीय के पुत्र थे। उनकी शिक्षा काशी हिंदू विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हुई। उन्होंने 1960 में राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर अध्यापन शुरू किया। ओसाका विश्वविद्यालय में चयन होने पर 1966 में जापान पहुंचे। यहां 1990 तक विजिटिंग प्रोफेसर रहे। अवकाश प्राप्ति के बाद क्योटो विश्वविद्यालय में सात साल तक तुलनात्मक संस्कृति पढ़ाया। 

लाई हयात आए, कजा ले चली चलें
मालवीय ने 2004 में अपनी आत्मकथात्मक पुस्तक ‘लाई हयात आए’ लिखी। इसके बाद उन्होंने दूसरी पुस्तक ‘कजा ले चली चलें’ भी लिखी। उनकी इच्छा के मुताबिक इसका प्रकाशन उनके मृत्यु के बाद होना है। 

प्रयागराज से लगाव 
अपने कहानी संग्रह हिम उजास की भूमिका में वे लिखते हैं - जब मैं भारत जाता हूं तो मुझे दिल्ली में कनाडियन, श्रीनगर में मैक्सिकन, बंबई में  इतावली समझा जाता है। इलाहाबाद के उस मोहल्ले में, जहां मेरा जन्म हुआ था, घूमने पर मोहल्ले के कुत्ते काटने को दौड़ते हैं लेकिन यह वहां आने वालों का स्वागत करने की परंपरागत ‘वापसी’ प्रणाली है, इसलिए यह बताना आवश्यक है कि मैं वहीं पैदा हुआ था। 

मदन मोहन मालवीय के पौत्र और रचनाकार डॉक्टर लक्ष्मीधर मालवीय का जापान में निधन

सृजन संसार - 
कहानी संग्रह - हिम उजास (1981) शुभेच्छू (1982) फंगस (1985) मक्रचांदनी (1995), स्फटिक (2007) आइसबर्ग (2016)
 उपन्यास - किसी और सुबह (1978),  रेतघड़ी (1981), दायरा (1983)  यह चेहरा क्या तुम्हारा है? ( 1985) 
संपादन - श्रीपति मिश्र ग्रंथावली (1999), देव ग्रंथावली ( 2002), बिहारीदास की सतसई (2008), उमराव कोश (2010), शब्दों का रास (2014)  
संस्मरण - लाई हयात आए (आत्मकथा, 2004 ) कजा ले चली चलें ( मरणोपरांत ) 

अपनी जिंदगी को उत्सव की तरह जीया
लक्ष्मीधर मालवीय की बेटी मधु मालवीय कहती हैं मेरे पिता जिंदादिल इंसान थे। उन्होंने जिंदगी को उत्सव की तरह जीया। उम्र के इस पड़ाव पर वे कंप्यूटर बखूबी चलाते थे। वे अपनी पांडुलिपियां सीधा कंप्यूटर पर ही लिखते थे। 1991 में नौकरी छोड़ने के बाद लेखन में ज्यादा सक्रिय हो गए। जापान में रहते हुए हिंदी के प्रति उनका आग्रह था हमेशा शुद्ध हिंदी बोलते और दूसरों से भी ऐसी उम्मीद रखते थे। जापान में रहते हुए 55 साल की उम्र में उन्होंने 800 सीसी की बाइक खरीदी और उसे चलाने का लाइसेंस प्राप्त किया। 
जब वे राजस्थान विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे थे तब उन्होंने देव ग्रंथावली पर काम करना शुरू किया। मध्यकालीन कवि बिहारी और उमराव पर उनका काम काफी याद किया जाता है। पिछले कई साल से शब्दकोश पर काम कर रहे थे। एक एक शब्द पर शोध में दिन भर लगा देते थे। वे पेंटर इतने शानदार थे कि बस में चलते हुए चार्ट पेपर पर रेखाचित्र बना लेते थे। वे बेहतरीन फोटोग्राफर भी थे। उन्होंने अज्ञेय, फिराक गोरखपुरी, रघुबीर सहाय जैसे साहित्यकारों की तस्वीरें खींची थीं। 
 

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