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पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा का वह मंदिर, जहां जाएंगे भारत समेत कई देशों के हिंदू; जानें क्या है इतिहास

पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के करक जिले में स्थित ऐतिहासिक मंदिर के दर्शन के लिए भारत समेत कई देशों से हिंदू श्रद्धालु इस सप्ताह जाने वाले हैं। अमेरिका, संयुक्त अरब अमीरात और भारत से कुल 250...

पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा का वह मंदिर, जहां जाएंगे भारत समेत कई देशों के हिंदू; जानें क्या है इतिहास
लाइव हिन्दुस्तान ,नई दिल्लीSat, 01 Jan 2022 09:52 AM
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पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के करक जिले में स्थित ऐतिहासिक मंदिर के दर्शन के लिए भारत समेत कई देशों से हिंदू श्रद्धालु इस सप्ताह जाने वाले हैं। अमेरिका, संयुक्त अरब अमीरात और भारत से कुल 250 श्रद्धालु पहुंचेंगे। इनमें से अकेले भारत के 160 यात्रियों का जत्था रवाना हो रहा है। करक जिले के टेरी गांव में बने इस ऐतिहासिक मंदिर पर कट्टरपंथियों ने हमला कर दिया था और बड़ा नुकसान पहुंचाया था। इसके बाद पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर इसका पुनर्निर्माण हुआ है और अब इसे श्रद्धालुओं के लिए खोला गया है। यह मंदिर परमहंस जी महाराज की समाधि के लिए भी विख्यात है। आइए जानते हैं, इस मंदिर और परमहंस जी महाराज के बारे में...

स्वामी परमहंस जी महाराज का जन्म बिहार के छपरा जिले में 1846 को हुआ था। ब्राह्मण परिवार में जन्मे परमहंस की मां का निधन उनके बालपन में ही हो गया था। उनके पिता तुलसीराम पाठक पुरोहित थे और उनके एक यजमान लाला नरहरि प्रसाद अपने बेटे को खो चुके थे। ऐसे में उन्होंने मां के प्यार से वंचित हुए यादराम की परवरिश का जिम्मा लेने की बात कही। स्वामी परमहंस का वास्तविक नाम यादराम ही थी। मां को खोने के बाद कायस्थ परिवार में पले-बढ़े यादराम ने 11 साल की आयु में ही अपने धर्म पिता लाला नरहरि प्रसाद को भी खो दिया। 

रामयाद को बचपन से ही अध्यात्म में रुचि थी और वह अकसर सत्संगों में हिस्सा लेते थे। इसी दौरान एक सत्संग में वाराणसी के संत परमहंस श्री स्वामी जी छपरा पहुंचे थे, जहां बड़ी संख्या में उनके श्रद्धालु थे। इसी दौरान वह नरहरि प्रसाद के घर पहुंचे और उन्होंने रामयाद को दीक्षा दी। गुरु से रामयाद ने ब्रह्म विद्या की जानकारी ली। इसी दौरान महज 11 साल की आयु में यादराम ने पिता नरहरि प्रसाद को खो दिया। इसके बाद उनके पास सिर्फ मां का ही साथ था। यही वह दौर था, जब वह अध्यात्म में लीन रहने लगे और धीरे-धीरे संन्यास की ओर उन्मुख हो गए। वह दो परिवारों के वारिस थे और अच्छी-खासी जिंदगी गुजार सकते थे। लेकिन उन्होंने अध्यात्म की राह पकड़ी और साधु हो गए। उन्हें उनके गुरु परमहंस जी ने ही संन्यास दिलाया और उनका नया नाम महात्मा अद्वैतानंद हो गया। हालांकि अपने अनुयायियों के बीच वह  परमहंस जी महाराज के नाम से लोकप्रिय हुए थे। 

1919 में खैबर के टेरी गांव में हुआ था परमहंस का निधन

परमहंस जी महाराज यायावर प्रकृति के थे और अकसर लंगोटी ही पहनते थे। भले ही वह बिहार में जन्मे थे, लेकिन एक दौर में उनके अनुयायी उत्तर भारत के तमाम राज्यों से लेकर खैबर पख्तूनख्वा तक में थे। खैबर पख्तूनख्वा में ही उनका टेरी गांव में 1919 को निधन हुआ था। यहीं उनकी समाधि भी है। आज भी टेरी गांव में लोग मंदिर के साथ ही स्वामी परमहंस की समाधि पर भी मत्था टेकने के लिए आते हैं। देश के विभाजन के पश्चात भी भारत समेत कई अन्य देशों से लोग यहां जाते रहे हैं। 

स्वामी परमहंस कैसे पहुंचे थे खैबर के टेरी गांव

स्वामी अद्वैतानंद के बारे में कहा जाता है कि उनके श्रद्धालु श्री भगवान दास नमक विभाग में क्लर्क थे। उनकी एक बार स्वामी परमहंस से मुलाकात हुई तो उन्होने पूछा कि कैसे मेरा प्रमोशन इंस्पेक्टर के पद पर होगा। इस पर स्वामी परमहंस ने कहा कि इंस्पेक्टर के पद को भूल जाओ, तुम तो सुपरिंटेंडेंट बनोगे। यही हुआ और वह अधीक्षक बन गए। कहा जाता है कि इसके बाद भगवान दास ने स्वामी परमहंस जी से अपने गांव टेरी आने का आग्रह किया। इसके बाद 1889 में स्वामी परमहंस टेरी गांव पहुंचे और फिर वहीं रहने लगे। यहीं 1919 में ही वह ब्रह्मलीन हो गए थे और फिर 2020 में उनकी स्मृति में मंदिर और समाधि का निर्माण किया गया।

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