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जयंती विशेष : वो कवि जिसके लिए कविता लिखना, सांस लेने की तरह था

समकालीन हिन्दी कविता के वरिष्ठतम कवियों की बात की जाए तो इसमें केदारनाथ सिंह का नाम पहले पायदान पर होगा। केदारनाथ सिंह के अलावा कोई भी ऐसा नाम याद नहीं आता है जो लम्बे समय तक लेखन में सक्रिय रहा हो।...

जयंती विशेष : वो कवि जिसके लिए कविता लिखना, सांस लेने की तरह था
रत्नाकर पांडेय,नई दिल्लीSun, 07 Jul 2019 09:49 AM
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समकालीन हिन्दी कविता के वरिष्ठतम कवियों की बात की जाए तो इसमें केदारनाथ सिंह का नाम पहले पायदान पर होगा। केदारनाथ सिंह के अलावा कोई भी ऐसा नाम याद नहीं आता है जो लम्बे समय तक लेखन में सक्रिय रहा हो। केदारनाथ सिंह ने करीब 60 वर्षों तक लेखन किया। जब कोई कवि इतने लम्बे समय तक लिखता है तब कविता उसके लिए सिर्फ लेखन नहीं रह जाती, वह उसके लिए प्रकटन बन जाती है। कहा जाता है कि एक कवि के लिए गद्य किसी कसौटी की तरह होती है। इसकी गवाह केदरनाथ सिंह की गद्य पुस्तक 'मेरे समय के शब्द' है। उन्होंने पद्य लिखने के साथ-साथ गद्य के जरिए अपनी एक अलग पहचान बनाई। आइये केदारनाथ सिंह की जयंती के मौके पर उनकी जिंदगी से जुड़े कुछ अहम पहलुओं पर नजर डालते हैं...

7 जुलाई 1934 को बलिया के चकिया गांव में जन्मे केदारनाथ जी ने अपनी कविताओं में गांव के साथ-साथ कस्बों और शहरों को भी दर्शाया। अगर उनकी कविता में सबसे अधिक बार आए किसी बिंब की बात करें तो वह है जो 'जोड़ता है'। उन्हें जोड़ने वाली हर चीज पसंद थी। चाहे वो सड़क हो या पुल, पुल हो या सड़क। लोगों को जोड़ने वाली हर चीज केदारनाथ सिंह को भाती थी। और यही चीज उनकी कविता में नजर आती है। केदारनाथ जी की रचना 'मांझी का पुल' इसी की तस्दीक करती है।

माँझी के पुल में कितनी ईंटें हैं?
कितने अरब बालू के कण?
कितने खच्चर
कितनी बैलगाड़ियाँ
कितनी आँखें
कितने हाथ चुन दिए गए हैं माँझी के पुल में
मेरी बस्ती के लोगों के पास कोई हिसाब नहीं है ('मांझी का पुल' से)

केदारनाथ सिंह की कविताओं में गांव और वहां के लोगों की चर्चा काफी रही है। एक समय के बाद उनकी कविताओं में शहर और कस्बे आने लगे। इस दौरान की जो यात्रा रही, वह अद्भुत है। केदार जी ने गांव से शहर आने के बाद गांव को भुलाया नहीं, बल्की उन्होंने वापसी की। और यह यात्रा जारी रखी। उनकी कविता 'बनारस' काफी चर्चित रही थी। इस कविता में उन्होंने शहर के जीवन में मौजूद तमाम छवियों को जीवंत किया था। 

तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर 
इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ़ ( 'बनारस' से)

केदारनाथ सिंह ठेठ गांव से अंत तक जुड़े रहे। उनकी संवेदनाएं अपूर्व हैं। उनकी कविताओं में यह बात साफ झलकती है। केदारनाथ सिंह ने लिखा, 

जाऊंगा कहाँ 
रहूँगा यहीं 

किसी किवाड़ पर 
हाथ के निशान की तरह 
पड़ा रहूँगा

किसी पुराने ताखे
या सन्दूक की गंध में 
छिपा रहूँगा मैं

केदारजी को भोजपुरी बहुत ही प्रिय थी। उन्होंने भोजपुरी को हिंदी से कभी भी कम नहीं माना। उन्होंने इन दो भाषाओं के लिए लिखा, हिन्दी मेरा देश है/ भोजपुरी मेरा घर/ घर से निकलता हूं/ तो चला जाता हूं देश में/ देश से छुट्टी मिलती है/ तो लौट आता हूं घर।

केदारनाथ सिंह चर्चित कविता संकलन 'तीसरा सप्तक' के सहयोगी कवियों में से एक हैं। 'तीसरा सप्तक' का संपादन अज्ञेय ने किया था। केदारजी की कविताओं का अनुवाद तमाम विदेशी भाषाओं में भी हुआ, जिनमें अंग्रेजी, स्पेनिश, रूसी और जर्मन शामिल है। 

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