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कश्मीरी पंडित: दर्द की दास्तां, हमसे थोड़ी हमदर्दी तो दिखाओ याद रखो हम पर क्या गुजरी है

कश्मीरी पंडित नहीं चाहते कि उनकी कहानी का इस्तेमाल किसी से बदला लेने के लिए हो, मगर वह यह भी नहीं चाहते कि इसे भुला दिया जाए। जिस दिन “शिकारा” (कश्मीरी पंडितों के पलायन पर) का ट्रेलर जारी...

कश्मीरी पंडित: दर्द की दास्तां, हमसे थोड़ी हमदर्दी तो दिखाओ याद रखो हम पर क्या गुजरी है
राहुल पंडिता,नई दिल्लीSat, 18 Jan 2020 06:08 AM
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कश्मीरी पंडित नहीं चाहते कि उनकी कहानी का इस्तेमाल किसी से बदला लेने के लिए हो, मगर वह यह भी नहीं चाहते कि इसे भुला दिया जाए। जिस दिन “शिकारा” (कश्मीरी पंडितों के पलायन पर) का ट्रेलर जारी हुआ, मेरे कुछ पंडित मित्र मेरे घर पर जुटे। हमने साथ में ट्रेलर देखा, जिसके बाद कमरे में पूरी तरह से सन्नाटा पसर गया। इस नीरवता को तोड़ा जम्मू के एक पत्रकार मित्र के एक कॉल ने। उसने हमें झकझोर कर रख दिया। उसके परिवार ने 90 के दशक में एक शरणार्थी शिविर में कई साल बिताया था। उसकी आवाज में हड़बड़ाहट थी। जैसे समय का पहिया बहुत तेजी से निकल रहा था, और वह उसी पल में बहुत कुछ साझा करना चाहता था। ट्रेलर के एक दृश्य जिसमें पंडित शरणार्थियों के एक समूह को टमाटर से भरे ट्रक के पीछे भागते हुए दिखाया गया था का संदर्भ देते हुए उसने कहा- यह दृश्य बिलकुल सच था; घाटी में उन दिनों जैसे ही चावल, सब्जियां, या मिट्टी के तेल जैसी राहत सामग्री से भरे ट्रक रिफ्यूजी कैंपों के बाहर पहुंचते, ये नजारे आम होते थे।

हम थक चुके हैं। अब तो 19 जनवरी को घर से भी नहीं निकलते। यह वह काला दिन है, जिसे कश्मीरी पंडितों के घाटी से सामूहिक पलायन की शुरुआत के रूप में देखा जाता है। लेकिन हमने अपनी कड़वाहट से निपटने के अलहदा और मजबूत तरीके ढूंढ लिए हैं।  हमारे बारे में इतना असत्य कहा गया  कि यह सुनिश्चित करने की जरूरत होती है कि पलायन हुआ और हम अपने देश में शरणार्थी बने।

मुझे याद है कि 1990 में जम्मू में मेरे एक कमरे के घर के पास एक भाजपा नेता खड़े थे, जो राहत वितरण कर रहे थे। मैं (14 वर्ष) उस आदमी के घर के बाहर राहत का इंतजार करता रहा। मैं वहां  से भाग जाना चाहता था, लेकिन हमारे पास सोने के लिए कुछ भी नहीं था। हमारी मकान मालकिन ने हमें दो दरियां दी थीं, लेकिन मां ने बताया कि उनसे  दुर्गंध आ रही है। हमें हर हाल में वो कंबल चाहिए थे। मैंने खुद को समझाया और कमरे में दाखिल हुआ। जैसे कंबल हाथ आया मैं आंख मूंदकर तेजी से दौड़ पड़ा। वह कंबल वर्षों तक हमारे साथ रहा।

कभी-कभी हमारे उदार मित्रों की शिकायत होती है कि हम कट्टर हो गए हैं। लेकिन, मैं ध्यान दिलाना चाहूंगा कि मेरे लोग शायद 'प्रेस्टीट्यूट' (मुझ पर, कभी-कभी) शब्द का इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन उन्होंने बंदूक नहीं उठाई है। हमने किसी को नहीं मारा है। हमने बसें नहीं जलाई हैं। हम किसी भी मुस्लिम इलाके में जाकर नारे लगाते हुए लोगों को ताना नहीं मारा कि बाबरी मस्जिद विध्वंस उन्हें याद रहेगा। 1990 में, हजारों लोग कश्मीर की सड़कों और मस्जिदों से ऐसे नारे लगा रहे थे, जो हिन्दुओं के खून के प्यासे थे।

पिछले तीन दशकों की बात करें तो कई ऐसे बुजुर्ग रहे, जो अंतिम वक्त अपने घर में बिताना चाहते थे। पर उनकी हसरत पूरी नहीं हो पाई। हमारे पास जीवन का एक तरीका था, हमारे देवता थे, हमारी भाषा थी, त्योहार थे,संस्कार थे। वे सभी हमारी सामूहिक स्मृति में लुप्त हो रहे हैं। निर्वासन में हम प्रतीकात्मक उत्सव की तस्वीरें इंस्टाग्राम पर डालते हैं। खुद को आश्वासन देते हैं कि हम अब भी जीवित हैं, हमारी मातृभूमि के साथ हमारे संबंध विच्छेद नहीं हुए हैं।

हम हमारे पलायन का दोष उन लोगों पर नहीं डालना चाहते, युवा हैं और अपने विचारों के लिए लड़ाई लड़ना चाहते हैं। हम शाहीनबाग के संघर्ष को कम नहीं करना चाहते हैं। हम नहीं चाहते कि हमारी कहानी का इस्तेमाल किसी से बदला लेने के लिए हो। लेकिन, कम से कम हमसे थोड़ी सहानुभूति तो दिखाओ। याद रखो कि हमारे दिलों पर क्या गुजरती है, जब आप ऐसे नारे लगाते हो।

शिकारा का ट्रेलर आउट होने के बाद, एक पंडित महिला ने फेसबुक पर लिखा- कैसे उसके पिता को 1990 में श्रीनगर में आजादी के जुलूस में शामिल होने के लिए मजबूर होना पड़ा और बहिष्कृत होने से बचने के लिए ‘वी’ का निशान बनाना पड़ा। कश्मीरी ब्लॉगर विनायक राजदान ने एक विद्वान का एक पेपर साझा किया जिसमें दावा किया गया था कि पंडित ‘अलगाववादी विचारधारा के साथ हैं,’ और उन्होंने भारत विरोधी मार्च में भाग लिया। यही वह धब्बा है, जिसने कश्मीरी आतंकियों को गांधीवादियों की छवि दी है। याद रखें, फारूक डार उर्फ बिट्टा कराटे (जेकेएलएफ से) नामक हत्यारा पिस्तौल के साथ श्रीनगर शहर में घूमता था और बट्ट-ए-मुश्क (पंडित की गंध) की खोज करता था, ताकि उन्हें ढूंढ कर मार सके?

तब भी, पृष्ठभूमि में आज़ादी के नारे चल रहे थे। हमसे थोड़ी सहानुभूति दिखाएं, क्योंकि (अनुच्छेद) 370 या नहीं, अब भी उसे इन हत्याओं के लिए दंडित नहीं किया गया है। श्रीनगर में उस दिन ‘आजादी मार्च’ में जोर-जबरदस्ती से भाग लेने वाला व्यक्ति आज बेमानी है। वह अब बोल भी नहीं सकते। 7 फरवरी को उनका जन्मदिन है। शिकारा 7 फरवरी को रिलीज़ होनी है। उम्मीद है इसके जरिए उस शख्स और हम सभी को कुछ न कुछ मिल जाएगा। यह भी उम्मीद है कि हम उस नारे को दोबारा कभी नहीं सुनेंगे। (राहुल पंडिता लेखक और “शिकारा : कश्मीरी पंडितों की अनकही कहानी” के सह लेखक हैं)

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